जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग नोनिया जाति के बारे में है.
यह फलसफा गैर-वाजिब नहीं है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है. मतलब यह कि जिस तरह की आवश्यकता होती है, मनुष्य ने वैसी वस्तुओं का आविष्कार किया. प्रारंभ में उसे खुद को बचाने और शिकार करने की आवश्यकता थी तो उसने पत्थरों के ही सही, लेकिन हथियार बनाए. फिर जब केवल जानवरों के मांस और कंद-मूल से उसका मन भर गया तो उसने खेती का आविष्कार किया और इसके लिए तमाम तरह के उपकरण मनुष्यों ने विकसित किए. लेकिन क्या आप जानते हैं कि वह पहला शख्स कौन था, जिसने स्वाद की खोज की? एक ऐसा स्वाद, जिसने मनुष्यों की आहार संस्कृति को चिर-स्थायी मजबूती दी.
हां, वे नोनिया थे. धरती के पहले मनुष्य, जिन्होंने सबसे पहले यह जाना कि नमक क्या होता है और वे केवल किसी एक भूभाग तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने नमक बनाने की कला का आविष्कार किया. वे श्रमजीवी रहे. उन्होंने श्रम किया और पूरी दुनिया को एक ऐसे स्वाद से भर दिया, जिसके बगैर वह किसी दूसरे स्वाद की कल्पना भी नहीं कर सकता. शायद ही आज की पीढ़ी को इनका महत्व पता हो, जो समुद्री नमक खाती है.
नोनिया मानव सभ्यता के विकास के क्रम में उनमें शामिल हैं, जिन्होंने इस धरती को इंसानों के लायक बनाया. नमक का कितना महत्व था, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि पहले सैनिकों को वेतन में रुपये-पैसे के बजाय नमक दिया जाता था.
दरअसल होता यह था कि तब के समाज में कृषि और पशुपालन का विकास इतना हो चुका था कि लोगों के पास अतिरिक्त उपलब्धता बढ़ने लगी थी. लेकिन नमक की खेती तो संभव ही नहीं थी. लिहाजा वह नमक कमाने के लिए नौकरी करते थे. इसकी पुष्टि आज भी इससे होती है कि लोग नमक खाने-खिलाने की दुहाई देते हैं.
इस संबंध में एक किंवदंती जैसा ही है. कहते हैं कि रोम में सैनिकों को भी वेतन के रूप में नमक दिया जाता था. सोल्जर यानी सैनिक शब्द ही रोमन शब्द ‘साल्डेयर’ से आया है, जिसका मतलब है ‘टू गिव साल्ट यानी नमक देना’.
भारत में नोनिया समुदाय के लोगों को आज वैश्य समुदायों में गिना जाता है. अधिकांशतः वैश्य समुदाय व्यापार करता है, लेकिन नोनिया श्रमजीवी रहे. इसकी वजह संभवत: यह कि ये अपने द्वारा उत्पादित नमक की कीमत, अपने श्रम काे जानते थे. नोनिया जाति के लोगों ने नमक बनाया और लोगों को वाजिब दर पर उपलब्ध कराया. उनके लिए यह व्यापार था भी नहीं. यह तो एक कला थी. कला भी ऐसी जिसका संबंध सीधे मिट्टी से था. जैसे किसान मिट्टी से अनाज उपजाते थे, वैसे ही नोनिया जाति के लोग मिट्टी से नमक बनाते थे. इसके बदले किसान उन्हें अनाज देते और वे उन्हें नमक. किसान जातियों के साथ नोनिया जाति का रिश्ता रोटी-नमक का रहा.
कहीं-कहीं इन्हें लोनिया भी कहते हैं. इनकी एक उपजाति नोनिया चौहान भी है, जिसे इतिहासकारों ने पृथ्वीराज चौहान का वंशज कहा है. इस अपुष्ट सूचना से इतर ये भारत के प्राचीनतम केमिकल इंजीनियर रहे, जिन्होंने शोरा बनाया, तेजाब बनाया और गंधक बनाया. लोनिया शब्द संस्कृत के लवण से आया है. लेकिन सामाजिक रूप से ये शूद्र ही रहे. ऐसा शूद्र, जिसका नमक सभी खाते हैं, लेकिन अपने संग कोई बिठाना भी नहीं चाहता.
वैसे इन्होंने केवल नमक ही नहीं बनाया. इस देश के इतिहास में इनका दूसरा योगदान भी रहा है. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने वालों में ये तिलका मांझी और सिदो-कान्हो के जैसे रहे हैं. इन्होंने 1750 के करीब अंग्रेजी सरकार के खिलाफ तीस साल तक सशस्त्र विद्रोह किया था. बिहार के हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया शोरा उत्पादन का प्रमुख केंद्र था और शोरे की जिम्मेदारी इनके ऊपर थी. अंग्रेज इनके नमक और शोरे का व्यापार करने लगे थे तथा शोषण भी.
बिहार के छपरा जिले में अंग्रेजों ने एक शोरे की फैक्ट्री खोली थी, जिसे सन् 1771 में नोनिया जाति के विद्रोहियों ने लूट लिया था और फैक्ट्री में आग लगा दी थी. इसे भारतीय इतिहासलेखन का स्याह पक्ष जानिए कि नमक कानून तोड़ने वाले बुद्धु नोनिया गुमनाम बने रहे हैं. बताया जाता है कि बेगूसराय के करपूरा गांव में जन्मे बुद्धू नोनिया को आखिरकार अंग्रेज सैनिकों ने पकड़ लिया था और खौलते हुए नमक के कड़ाह में डालकर मार दिया.
बाद के दिनों में गांधी के सहयोगी के रूप में मुकुटधारी प्रसाद चौहान भी थे, जो नोनिया जाति के थे. 1917 में चंपारण में गांधी के जितने करीबी मुकुटधारी थे, उतने तो राजकुमार शुक्ल भी नहीं थे. लेकिन इतिहास में केवल राजकुमार शुक्ल को याद रखा गया.
खैर, नोनिया जाति के लोग आज भी हैं. बिहार में जाति आधारित गणना रिपोर्ट – 2022 के मुताबिक, इनकी आबादी 24 लाख 98 हजार 474 है. सरकार के स्तर पर इन्हें अति पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है. लेकिन सामाजिक रूप से ये अछूत सरीखे ही हैं, यही वर्तमान का सच है.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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