जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के तरीके को सुप्रीम कोर्ट द्वारा वैध ठहराए जाने के फैसले की बारीकियां समझने के लिए ज़रूरी है कि यह समझा जाए कि अनुच्छेद 370 था क्या और इसे हटाया कैसे गया.
केंद्र की भाजपा सरकार ने जम्मू-कश्मीर से जिस तरह अनुच्छेद 370 हटाया उस तरीके पर सुप्रीम कोर्ट ने वैधता का मुहर लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच की 476 के पेज के फैसले में तीन मतों का उल्लेख है. मगर निष्कर्ष यही है कि अनुच्छेद 370 जिस तरीके से हटाया गया है वह संवैधानिक है.
इसके बाद से कानून की व्याख्याओं की भरमार है मगर न्याय की आत्मा की बहुत कम जगह दिखाई देती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बारीकियां समझने के लिए जरूरी है कि यह समझा जाए कि अनुच्छेद 370 कहता क्या है और इसे हटाया कैसे गया?
क्या था अनुच्छेद 370
अनुच्छेद 370 का 1 (A) बहुत पहले ही अर्थहीन हो गया था. अनुच्छेद 370 का 1 (b) कहता था कि भारत की संसद डिफेंसरक्षा, विदेश नीति और संचार के विषय पर जम्मू-कश्मीर के लिए कानून बना सकती है. इस विषय में क्या-क्या शामिल होंगे इसका निर्णय जम्मू-कश्मीर के साथ चर्चा के जरिये तय होगा.
370 1( B) कहता था कि अगर इन तीनों के अलावा दूसरे विषय शामिल करने हैं तो इसके लिए भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर की सहमति लेनी पड़ेगी. अनुच्छेद 370 1(c) कहता था कि भारतीय संसद के दो ही अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे- वह हैं अनुच्छेद 1 और अनुच्छेद 370. अनुच्छेद एक में कहा गया है कि भारत यूनियन ऑफ स्टेट है. अनुच्छेद 370 1( d) में कहा गया था कि कश्मीर पर अनुच्छेद 1 और 370 के अलावा अगर कोई और भी अनुच्छेद लागू करना है तो उसके लिए राष्ट्रपति का आदेश लागू करना होगा लेकिन राष्ट्रपति का आदेश जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति और परामर्श के बाद ही लागू होगा.
अनुच्छेद 370 (2) के तहत यह बात कही गई थी कि जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति का मतलब जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की स्वीकृति से है, अगर जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा से स्वीकृति नहीं मिलेगी तो राष्ट्रपति का आदेश लागू नहीं हो पाएगा. अनुच्छेद 370 (3) कहता था कि अगर अनुच्छेद 370 को पूरा या आंशिक तौर पर खारिज करना है तो यह राष्ट्रपति के आदेश मुमकिन है. मगर राष्ट्रपति को अपना आदेश जारी करने से पहले संविधान सभा की सिफारिश लेनी पड़ेगी. यानी सलाह-मशविरा या सहमति नहीं बल्कि संविधान सभा अनुशंसा करेगी तब जाकर अनुच्छेद 370 खत्म हो सकता है.
यही वजह है कि कई कानूनी जानकार लगातार यह कहते आए हैं कि अनुच्छेद 370 को कभी खत्म ही नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा अनुशंसा करे. न जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा बची है और न ही अनुच्छेद 370 खत्म होगा. मगर यह तो अर्थ निकालने से जुड़ा मसला है.
अगर ज्यादातर कानूनी जानकारों ने यह सोचा कि संविधान सभा है ही नहीं, तो अनुच्छेद 370 खत्म ही नहीं हो सकता तो भाजपा की सरकार नया रास्ता निकाला कि जब संविधान सभा है ही नहीं तो अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए संविधान सभा के अनुशंसा की क्या जरूरत? इसी रास्ते को पकड़कर मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को अगस्त 2019 में हटा दिया. और अब इस रास्ते की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर भी लगा दी है.
अनुच्छेद 370 के प्रावधान के मुताबिक, भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच किसी भी तरह का कानूनी रिश्ता राष्ट्रपति के आदेश के जरिये ही स्थापित होता था. इसलिए साल 1952 के बाद जम्मू-कश्मीर के लिए राष्ट्रपति का आदेश भी जारी होना शुरू हो गया. इसमें साल 1954 के राष्ट्रपति का आदेश बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें यह बताया गया था कि भारत के संविधान के कौन से और अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे. भारत की संसद की कौन-सी शक्तियां लागू होंगी. 1954 के आदेश के मुताबिक, भारत के संविधान का बहुत ज्यादा हिस्सा जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिया गया.
1954 के राष्ट्रपति के आदेश के मुताबिक भारत के संविधान में अनुच्छेद 35 ए जोड़ा गया. अनुच्छेद 35 कहता है कि मूल अधिकारों को लागू करवाने के लिए अगर किसी कानून के बनाने की जरूरत होगी तो यह अनुच्छेद संसद को यह अधिकार देता है कि वह कानून बनाकर के मूल अधिकार लागू करवा सकता है. जैसे छुआछूत के मामले में मूल अधिकार के तहत यह तो प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के साथ छुआछूत नहीं होना चाहिए मगर इसे लागू करने के लिए कानून बनाने की जरूरत को अनुच्छेद 35 के तहत पूरा किया गया है.
इस 35 के अपवाद के रूप में 35 ए जोड़ा गया. यह 35 ए 1954 के राष्ट्रपति के आदेश से निकला.
35 ए कहता है कि कोई भी ऐसी विधि या मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होगा जो जम्मू-कश्मीर के प्रावधानों से अलग है. 35 ए भारतीय संसद के इस अधिकार को सीमित करता है कि वह मूल अधिकारों के लागू करवाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हस्तक्षेप कर सकें. आसान भाषा में समझिए तो यह कि अगर जम्मू-कश्मीर ने अपने संविधान में मूल अधिकार दे रखा है तो दे रखा है अगर नहीं दे रखा है तो भारत के संविधान के मूल अधिकार और मूल अधिकार लागू करवाने के लिए बनाए गए कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होंगे और अगर लागू होंगे तो अनुच्छेद 370 के रूट के तहत लागू होंगे.
इस तरह से राष्ट्रपति के आदेश में 35 ए में शामिल किया गया कि जम्मू-कश्मीर का स्थायी नागरिक कौन है, यह तय करने का अधिकार जम्मू-कश्मीर के सरकार के पास रहेगा. और जो स्थायी नागरिक होगा उसे ही जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने और नौकरी पाने का अधिकार होगा.
साल 2019 में जब साल 1954 में जारी राष्ट्रपति का आदेश खारिज कर दिया गया, तब अनुच्छेद 370 के साथ अनुच्छेद 35 ए को भी हटा दिया गया.
अनुच्छेद 370 हटाया कैसे गया
साल 2015 में जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के गठबंधन से बनी थी. यह बेमेल गठबंधन था, जिसका इसका टूटना तय था. और ऐसा हुआभी. पीडीपी की महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री थीं. भाजपा ने अपना रंग दिखाते हुए समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद 19 जून 2018 को मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा.
जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 92 के मुताबिक, राष्ट्रपति के परामर्श के बाद जम्मू-कश्मीर पर राज्यपाल शासन लग गया. जब राज्यपाल शासन की अवधि पूरी हुई तो भारत की संसद के दोनों सदनों की सहमति से राष्ट्रपति शासन लग गया.
जानकार कहते हैं कि जिस तरह से राज्यपाल शासन लगाया गया और उसके बाद दिसंबर 2018 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया गया, उससे लगता है कि जून 2018 में ही तय हो गया था कि राज्य विधान मंडल को खत्म कर देना है, उसकी जगह पर गवर्नर को शक्ति दे देनी है. बाद में राष्ट्रपति शासन लगा देना है और अगले साल अनुच्छेद 370 को हटा देना है.
राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत यह प्रावधान भी है कि राज्य सरकार को मिली हुई शक्ति और राज्य सरकार द्वारा किए जाने वाले कामकाज का अधिकार राष्ट्रपति को मिल जाएगा. क्योंकि भारत के राष्ट्रपति की शक्ति भारत की संसद में निहित होती है इसलिए राज्य के विधान मंडल की शक्ति संसद के अधीन इस्तेमाल की जाएगी.
इस तरह जम्मू-कश्मीर राज्य की वैधानिक स्थिति अनुच्छेद 370 हटाने से पहले इस तरह से बदल दी गई थी कि अनुच्छेद 370 को हटाने में जो भी अड़चन आए उसे दूर कर लिया जाए. क्योंकि साधारण सी बात है कि जम्मू-कश्मीर की कोई भी सरकार या विधानसभा अनुच्छेद 370 को हटाने की संस्तुति नहीं करती इसलिए राष्ट्रपति शासन के तहत अनुच्छेद 370 हटाने से पहले भाजपा सरकार ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सारी शक्ति संसद को स्थानांतरित कर दी थी.
इसके बात 5 अगस्त 2019 का दिन आया. पहले से ही जम्मू-कश्मीर में करीब 50,000 जवान तैनात कर दिए गए थे. इंटरनेट प्रतिबंधित कर दिया गया. जम्मू-कश्मीर के नेताओं सहित वह तमाम लोग, जो विरोध कर सकते थे उन्हें या तो नज़रबंद कर दिया गया या जेल में डाल दिया गया था. मतलब विरोध की आवाज उठने की किसी भी तरह की संभावना को कुचल दिया गया था.
5 अगस्त 2019 को राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर के लिए संवैधानिक आदेश 272 जारी किया. संक्षेप में CO 272. इस आदेश के मुताबिक, राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 (1) भारत के संविधान के सभी प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिया. साथ मे अनुच्छेद 367 (4) जो कि भारत के संविधान में निहित शब्दों को परिभाषित करने का काम करता है अनुच्छेद 370 (3) में लिखे संविधान सभा को हटाकर विधानसभा कर दिया.
मतलब अनुच्छेद 370 हटाने के लिए जो अड़चन की बात कानूनी मामलों के जानकार लगातार कह रहे थे कि कश्मीर की संविधान सभा की संस्तुति कभी मिल नहीं सकती है क्योंकि संविधान सभा भंग हो गई है इसलिए अनुच्छेद 370 कभी खत्म नहीं होगा. इस अड़चन को संविधान सभा की जगह विधानसभा रखकर हटा दिया गया. क्योंकि जम्मू-कश्मीर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था. और अनुच्छेद 356 के तहत लगने वाले राष्ट्रपति शासन से भारत के सांसद को विधानसभा की शक्तियां मिल जाती हैं तो भारत की संसद ने जम्मू-कश्मीर के विधानसभा की शक्तियों का इस्तेमाल किया.
भारत की संसद में निहित राज्यसभा ने अनुच्छेद 370 (3) के तहत राष्ट्रपति को यह अनुशंसा की कि अनुच्छेद 370 की धारा 1 को छोड़कर सभी प्रावधान हटा दिए जाएं. एक तरह से अनुच्छेद 370 को अर्थहीन बना दिया गया. राज्यसभा ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक भी पेश किया. इसके तहत जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया. एक जम्मू-कश्मीर, जिसके लिए विधानसभा होगी मगर वह केंद्र शासित प्रदेश की तरह होगा और दूसरा लद्दाख जो केवल केंद्र शासित प्रदेश होगा मगर उसकी कोई विधानसभा नहीं होगी. यह लोकसभा से भी पारित हो गया.
इसके खिलाफ बीस से अधिक याचिकाएं दायर होने के बाद यह मसला इस साल तीन साल के इंतज़ार के बाद सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सितंबर महीने में 16 दिन सुनवाई चली. 5 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया जो सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने 11 दिसंबर को सुनाया.
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि राष्ट्रपति के आदेश के जरिये जम्मू-कश्मीर को भारत में एकीकृत करने की प्रक्रिया साल 1957 से ही शुरू हो गई थी. अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद भारत में एकीकृत करने की प्रक्रिया पूरी हो गई है.
कहा गया कि जम्मू-कश्मीर की कोई अपनी स्वतंत्र संप्रभुता नहीं है. जब विलय पत्र के जरिये जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ तभी उसकी संप्रभुता चली गई. 25 नवंबर 1949 को भारत का संविधान लागू हुआ. उसके बाद जिस तरह की आंतरिक संप्रभुता भारत के दूसरे राज्य को मिली हुई है उससे कोई अलग संप्रभुता जम्मू-कश्मीर को नहीं मिली हुई है.
जब तक अनुच्छेद 370 को हटाया नहीं गया तब तक याचिकाकर्ताओं ने राज्यपाल शासन और राष्ट्रपति शासन को चुनौती नहीं दी. इसलिए अगर वह राज्यपाल शासन और राष्ट्रपति शासन के बाद मिली शक्तियों के तहत उठाए गए कदमों की चुनौती देते हुए राज्यपाल शासन, राष्ट्रपति शासन को चुनौती दे रहे हैं तो उस चुनौती को स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के अनुशंसा के मसले पर शीर्ष कोर्ट ने कहा कि जैसे ही जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा भंग हो गई वैसे ही संविधान सभा के तहत संस्तुति करने की शक्ति से जुड़ा प्रावधान भी खत्म हो गया. मतलब जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के भंग होने के बाद अनुच्छेद 370 (3) के तहत जम्मू-कश्मीर के संविधान सभा के की संस्तुति का कोई महत्व नहीं रह जाता है. केवल राष्ट्रपति के आदेश जारी करने का महत्व है.
याचिकाओं में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक यानी जम्मू-कश्मीर के बंटवारे को लेकर भी सवाल उठा था कि संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत अगर संसद किसी राज्य की सीमा, क्षेत्रफल या नाम में बदलाव करना चाहती है, तो उसके लिए राज्य की विधानसभा से सहमति लेनी पड़ेगी. अगर सहमति नहीं मिलती है तो संसद बदलाव नहीं कर सकती.
इस मसले पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लग गया तो विधानसभा की सारी शक्ति भारत की संसद को मिल गई. और जब संसद ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन पर सहमति दे दी है तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है. यह भी संवैधानिक तौर पर सही प्रक्रिया है.
क्या कोर्ट के फैसले पर भी सवाल उठ सकते हैं?
द हिंदू अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा है कि संघीय सिद्धांतों पर सबसे प्रबल हमला सुप्रीम कोर्ट का यह अचेतन निष्कर्ष है कि जब एक राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन है तो संसद, राज्य विधायिका की ओर से किसी भी तरह का काम कर सकती है. भले ही वह ऐसा काम क्यों न हो जिससे राज्य के चरित्र में बदलाव का ऐसा कदम उठाया गया, जो कभी नहीं उठाया जा सकता था. ऐसा कदम, जिसकी इजाजत न राज्य की जनता देती न चुनी गई विधानसभा.
इस चिंताजनक व्याख्या से संविधान का मूलभूत ढांचा कमजोर होता हुआ दिखता है. राज्यों के अधिकारों पर गंभीर असर पड़ते हुए दिखता है. इससे ऐसा लगता है कि चुनी हुई इकाई की अनुपस्थिति में केंद्र सरकार को कई शत्रुतापूर्ण और अपरिवर्तनीय कार्रवाइयों की अनुमति मिल सकती है.
सरकार और उसके समर्थकों के लिए बहुत खुशी की बात है क्योंकि संविधान पीठ ने उसके रुख का समर्थन किया है और याचिकाकर्ताओं के मजबूत तर्कों को खारिज कर दिया है. विशेष रूप से, इस बिंदु पर कि सरकार ने अनुच्छेद 370 के खास प्रावधानों को रद्द करने की तैयारी के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करके दुर्भावनापूर्ण तरीके से काम किया है और अनुच्छेद 370 को खत्म करने की प्रक्रिया में जम्मू-कश्मीर के किसी भी प्रतिनिधि को शामिल नहीं किया.