सारी दुनिया में लाखों यहूदी, मुसलमान, ईसाई, हिंदू, कम्युनिस्ट, एग्नॉस्टिक लोग सड़कों पर उतरकर गाज़ा पर हमला फ़ौरन बंद करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन, वही मुल्क जो कभी फिलिस्तीन का सच्चा दोस्त था, जिन पर कभी लाखों लोगों के जुलूस निकले हुए होते, वही सड़कें आज ख़ामोश हैं.
(यह लेख 13 दिसंबर को तिरुवनंतपुरम में आयोजित पी. गोविंदा पिल्लई पुरस्कार समारोह में अरुंधति रॉय द्वारा यह सम्मान स्वीकार करते समय दिया गया वक्तव्य है.)
मुझे पी. गोविंद पिल्लई के नाम पर यह सम्मान देने के लिए शुक्रिया, जो केरल से आने वाले मार्क्सवादी सिद्धांत के सबसे असाधारण विद्वानों में से एक थे. और इसके लिए भी शुक्रिया कि आपने यह सम्मान मुझे देने के लिए एन. राम से आग्रह किया. मैं जानती हूं कि यह सम्मान पिछले साल उन्हें हासिल हुआ था, लेकिन कई मायनों में मेरे इस सम्मान में भी उनका हिस्सा है. 1998 में फ्रंटलाइन के संपादक के रूप में – और आउटलुक के संपादक विनोद मेहता के साथ- उन्होंने मेरा पहला राजनीतिक निबंध ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशन’ प्रकाशित किया था, जो भारत के परमाणु परीक्षणों के बारे में था. और इसके बाद कई बरसों तक वे मेरा काम प्रकाशित करते रहे. उनके सटीक, पैने, लेकिन एक निडर संपादक होने ने ही मुझे ऐसा लेखक बनने का भरोसा दिया जो आज मैं हूं.
मैं भारत में आज़ाद प्रेस के अंत के बारे में नहीं बोलने जा रही हूं. यहां मौजूद हम सभी इसके बारे में जानते हैं. न ही मैं इस बारे में बोलने जा रही हूं कि उन सभी संस्थानों का क्या हश्र हुआ है, जिनको हमारे लोकतंत्र को चलाने और उसे सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए क़ायम किया गया था. बीस बरसों से मैं यह करती आ रही हूं और मुझे यक़ीन है कि यहां मौजूद आप सभी मेरे नज़रियों से वाक़िफ़ होंगे.
उत्तर भारत से केरल आने के बाद, या क़रीब-करीब किसी भी दक्षिणी राज्य में आकर मैं सुकून भी महसूस करती हूं और बेचैनी भी. कि उत्तर में रहने वाले हममें से अनेक लोगों को रोज़मर्रा के जीवन में जिस दहशत के साथ जीना पड़ता है, उससे लगता है कि मैं कितनी दूर आ गई हूं. हक़ीक़त यह है कि हम जितना सोच रहे हैं, यह उतना दूर नहीं है. अगर मौजूदा हुकूमत अगले साल फिर से सत्ता में आती है, तब 2026 में परिसीमन की कार्रवाई के तहत मुमकिन है कि संसद में हम जितने सांसद भेजते हैं, उनकी तादाद घटाकर पूरे दक्षिण भारत की ताक़त छीन ली जाए. हमारे विविधता भरे मुल्क की रीढ़ फेडरलिज़्म (संघवाद) भी ख़तरे में है.
केंद्रीय सरकार जिस तरह से ख़ुद को बेलगाम ताक़त सौंपती जा रही है, उसमें हम विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के चुने हुए मुख्यमंत्रियों की बेबसी को भी देख रहे हैं. उन्हें उनके राज्य के लिए बने सार्वजनिक कोष में से अपने राज्यों के हिस्से के लिए याचना करनी पद रही है. फेडरलिज़्म को मिली सबसे ताज़ा चोट सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला है, जिसमें उसने संविधान के अनुच्छेद 370 के अंत को वैध बताते हुए मंज़ूरी दे दी है. इस अनुच्छेद में जम्मू-कश्मीर राज्य को अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया था. भारत में विशेष दर्जा रखने वाला यह अकेला राज्य नहीं है. यह कल्पना करना एक गंभीर ग़लती होगी कि इस फ़ैसले का मतलब सिर्फ़ कश्मीर से है. इसका असर हमारी व्यवस्था के बुनियादी ढांचे तक पहुंचता है.
लेकिन आज मैं एक ऐसी चीज़ पर बात करना चाहती हूं जो कहीं अधिक फ़ौरी और ज़रूरी है. हमारे मुल्क ने अपनी नैतिक दिशा खो दी है. सबसे घिनौने अपराध, सामूहिक जनसंहार (जेनोसाइड) और नस्ली सफ़ाए (एथनिक क्लींजिंग) के सबसे ख़ौफ़नाक ऐलानों पर तारीफ़ें मिल रही हैं, राजनीतिक इनाम दिए जा रहे हैं. सारी की सारी दौलत जहां कुछेक हाथों में सिमटती जा रही है, वहीं ग़रीबों को कुछ टुकड़े फेंक देने भर से वही ताक़तें सत्ता हासिल करने में कामयाब हो रही हैं जो ग़रीब अवाम की बदहाली को और बढ़ाती हैं.
हमारे वक़्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग ख़ुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं. वे उन्हें मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं. वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण है – यह आधुनिक दुनिया का मीठा ज़हर है. जिसका तकनीक पर क़ब्ज़ा है, उसका दुनिया पर क़ब्ज़ा है. लेकिन आखिरकार, मैं मानती हूं कि अवाम पर क़ब्ज़ा नहीं किया जा सकता और वे क़ब्ज़े में नहीं आएंगे. मैं मानती हूं कि नई पीढ़ी बग़ावत में उठ खड़ी होगी. एक इंक़लाब आएगा. मुझे माफ़ कीजिए. मैं इसे सुधार कर कहती हूं. इंक़लाब आएंगे, कई सारे इंक़लाब.
मैंने कहा कि एक मुल्क के रूप में हमने अपनी नैतिक दिशा खो दी है. सारी दुनिया में लाखों यहूदी, मुसलमान, ईसाई, हिंदू, कम्युनिस्ट, एग्नॉस्टिक लोग सड़कों पर जुलूस निकाल रहे हैं, ग़ाज़ा पर तुरंत हमला बंद करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन हमारे मुल्क की सड़कें आज ख़ामोश हैं, हमारा वही मुल्क जो कभी ग़ुलाम, उपनिवेश अवाम का सच्चा दोस्त था, जो फिलिस्तीन का एक सच्चा दोस्त था. जिन पर कभी लाखों लोगों के जुलूस निकले हुए होते, वही सड़कें आज ख़ामोश हैं. कुछ को छोड़कर हमारे ज़्यादातर लेखक और बुद्धिजीवी भी ख़ामोश हैं. कितना शर्मनाक है. और तंगनज़री का कैसा अफ़सोसनाक प्रदर्शन.
जब हम देख रहे हैं कि किस तरह हमारे लोकतंत्र का ढांचा व्यवस्थित रूप से तबाह किया जा रहा है, और असाधारण विविधता वाले हमारे वतन पर एक झूठा, सबको एक साथ जकड़ देने वाला एक संकीर्ण राष्ट्रवाद थोपा जा रहा है, तब कम से कम जो लोग ख़ुद को बुद्धिजीवी कहते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि ग़ुस्सा और सांप्रदायिकता हमारे मुल्क में भी तबाही ला सकती है.
अगर हम इज़रायल के हाथों फिलिस्तीनी लोगों के खुलेआम कत्लेआम पर कुछ नहीं कहते, जबकि यह हमारी निजी ज़िंदगियों के सबसे अंतरंग कोनों तक में लाइवस्ट्रीम हो रहा है, तब हम इस कत्लेआम के भागीदार बन जाते हैं. क्या हम बस चुपचाप देखते रहेंगे, जबकि घरों, अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, आर्काइव्स पर बम गिराए जा रहे हैं, दस लाख से अधिक लोग बेघर हो चुके हैं, और मलबों के नीचे से बच्चों की लाशें निकल रही हैं? ग़ाज़ा की सरहदें बंद हैं. लोग कहीं नहीं जा सकते. उनके पास छुपने के लिए जगह नहीं है, खाना नहीं है, पानी नहीं है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि आधी से ज़्यादा आबादी भुखमरी का सामना कर रही है और इसके बावजूद उन पर लगातार बम गिराए जा रहे हैं. क्या हम फिर से इसे चुपचाप देखते रहेंगे कि एक पूरे के पूरे अवाम को इस कदर कमतर इंसान बना दिया जाए उनका ख़ात्मा एक बेमानी, मामूली बात बन जाए?
फिलिस्तीनियों को इंसानों से कमतर कोई चीज़ समझने की शुरुआत बेंजामिन नेतन्याहू और उनकी मंडली से नहीं हुई थी. इसकी शुरुआत दशकों पहले हो गई थी.
11 सितंबर 2001 की पहली बरसी पर 2002 में मैंने संयुक्त राष्ट्र में एक व्याख्यान दिया था ‘कम सेप्टेंबर‘. इसमें मैंने 11 सितंबर को पड़ने वाली अन्य बरसियों के बारे में बात की थी. इसी तारीख़ को 1973 में चिली के राष्ट्रपति साल्वादोर आय्येंदे के ख़िलाफ़ सीआईए के समर्थन से तख्तापलट हुआ था. और फिर इसी तारीख़ को 1990 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश सीनियर ने संसद के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए इराक़ के ख़िलाफ़ युद्ध के सरकारी फ़ैसले की घोषणा की थी. और फिर मैंने फिलिस्तीन के बारे में बात की थी. मैं वह हिस्सा आपको पढ़कर सुनाती हूं, और आप देखेंगे कि अगर मैंने आपको यह नहीं बताया होता कि इसे 21 साल पहले लिखा गया था, तो आपको लगता कि यह आज के बारे में है.
’11 सितंबर की एक त्रासद गूंज मध्यपूर्व में भी मिलती है. 11 सितंबर 1922 को अरब लोगों की नाराज़गी की अनदेखी करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन में एक फ़रमान का ऐलान किया. यह 1917 के बालफोर घोषणा का अगला एक कदम था, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य ने तब जारी किया था जब ग़ाज़ा की सीमाओं पर उसकी फ़ौज तैनात थी. बालफोर घोषणा ने यूरोपीय ज़ायनिस्टों (Zionists) से यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्र का वादा किया था. (उस वक़्त साम्राज्य, जिसका सूरज कभी नहीं डूबता था, लोगों के वतन को छीनने और बांटने के लिए आज़ाद था, जैसा कि स्कूल में कोई दबंग बच्चा गोलियां बांटता है). साम्राज्यों ने कितनी बेपरवाही के साथ प्राचीन सभ्यताओं की काट-छांट की है. फिलिस्तीन और कश्मीर ब्रिटेन के गहरे, खून में लथपथ ज़ख़्म हैं जो उसने आधुनिक दुनिया को दिए हैं. आज दोनों ही उग्र अंतरराष्ट्रीय टकरावों का केंद्र हैं.’
‘सुनिए कि 1937 में विंस्टन चर्चिल ने फिलिस्तीनी अवाम के बारे में क्या कहा था, ‘मैं इससे सहमत नहीं हूं कि एक नांद में रहने वाले कुत्ते का उस नांद पर अंतिम अधिकार होता है भले ही वह उसमें एक बहुत लंबे समय तक क्यों न रहा हो. मैं उस अधिकार को स्वीकार नहीं करता. उदाहरण के लिए मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अमेरिका के रेड इंडियंस या ऑस्ट्रेलिया के काले लोगों के साथ कोई बहुत बुरा बर्ताव हुआ है. मैं यह स्वीकार नहीं करता कि इस बात से इन लोगों के ऊपर कोई अत्याचार हुआ है कि एक शक्तिशाली प्रजाति, ऊंचे स्तर की एक प्रजाति ने, कह सकते हैं कि सांसारिक रूप से एक अधिक बुद्धिमान प्रजाति ने, आकर उनके स्थान को अपने क़ब्ज़े में ले लिया.’ फिलिस्तीनियों के बारे में इज़रायली राज्य का रवैया यहीं से जन्म लेता है. 1969 में इज़रायली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने कहा, ‘फिलिस्तीनियों का कोई अस्तित्व नहीं है.’ उनके बाद प्रधानमंत्री बने लेवी एशॉल ने कहा, ‘फिलिस्तीनी क्या होते हैं? जब मैं यहां (फिलिस्तीन) आया, यहां 250,000 ग़ैर यहूदी थे, अधिकतर अरब और बेदूइन लोग. यह एक मरुस्थल था, एक पिछड़े हुए क्षेत्र से भी बुरा. कुछ भी नहीं था.’ प्रधानमंत्री मेनाकेम बेगीन ने फिलिस्तीनियों को ‘दोपाया जानवर’ कहा था. प्रधानमंत्री यित्ज़ाक शामिर ने उन्हें ‘टिड्डे’ कहा था जिन्हें कुचला जा सकता है. यह देश के हुक्मरानों की ज़बान है, आम अवाम के शब्द नहीं.’
इस तरह बिना वतन वाले एक अवाम के लिए बिना अवाम वाले एक वतन का ख़ौफ़नाक मिथक शुरू हुआ.
‘1947 में संयुक्त राष्ट्र ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन का बंटवारा किया और फिलिस्तीनी ज़मीन का 55 फीसदी हिस्सा ज़ायनिस्टों को सौंप दिया. लेकिन एक साल के भीतर वे 76 फ़ीसदी फिलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर चुके थे. 14 मई 1948 को इज़रायल राज्य की स्थापना हुई. घोषणा के कुछ मिनटों के भीतर संयुक्त राष्ट्र ने इसे मान्यता दे दी. जॉर्डन ने वेस्ट बैंक (पश्चिमी तट) पर क़ब्ज़ा कर लिया. ग़ाज़ा पट्टी मिस्र की फ़ौज के नियंत्रण में आ गई, और फिलिस्तीन का औपचारिक वजूद ख़त्म हो गया, सिवाय उन लाखों फिलिस्तीनी अवाम के दिलो-दिमाग के, जो अब उजड़कर शरणार्थी बन चुके थे. 1967 में इज़रायल ने वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा पट्टी पर भी क़ब्ज़ा कर लिया. दशकों तक बग़ावतें, जंगें और इंतफ़ादा होते रहे हैं. दसियों हज़ार लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं. समझौतों और करारनामों पर दस्तख़त किए गए हैं. युद्धविराम की घोषणा हुई और उनका उल्लंघन हुआ. लेकिन खूनखराबा ख़त्म नहीं होता है.
फिलिस्तीन पर अभी भी ग़ैरक़ानूनी क़ब्ज़ा जारी है. इसके लोग अमानवीय हालात में जीते हैं. वे नस्ली भेदभाव पर आधारित घिरे हुए इलाक़ों वाले, एक क़िस्म के बांटुस्तानों में रहते हैं, जहां उन पर सामूहिक सज़ाएं थोपी जाती हैं, जहां कर्फ़्यू कभी ख़त्म नहीं होता है, जहां रोज़ उन्हें अपमानित किया जाता है, बेरहम कार्रवाइयों का निशाना बनाया जाता है. उन्हें नहीं पता कि कब उनके घर गिरा दिए जाएंगे, कब उनके बच्चों को गोली मार दी जाएगी, कब उनके बेशक़ीमती दरख़्तों को काट दिया जाएगा, कब उनकी सड़कें बंद कर दी जाएंगी, कब उन्हें खाना और दवाइयां खरीदने के लिए बाज़ार जाने की इजाज़त दी जाएगी. और कब नहीं दी जाएगी. वे बिना किसी सम्मान के जीते हैं. और बिना किसी उम्मीद के. अपनी ज़मीन पर, अपनी हिफ़ाज़त पर, अपनी आवाजाही पर, अपने संचार, अपनी पानी की सप्लाई पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है.
तो जब समझौतों पर दस्तख़त किए जाते हैं, और ‘स्वायत्तता’ और ‘राज्य का दर्जा’ जैसे शब्दों के परचम लहराए जाते हैं, तब यह सवाल पूछना ज़रूरी हो जाता है: किस क़िस्म की स्वायत्तता? किस क़िस्म का राज्य? किस क़िस्म के अधिकार इसके नागरिकों के पास होंगे? जो नौजवान फिलिस्तीनी अपने गुस्से पर क़ाबू नहीं कर पाते वे ख़ुद को इंसानी बमों में बदल देते हैं और इज़रायल की सड़कों और गलियों को निशाना बनाते हैं. वे ख़ुद को उड़ा लेते हैं, आम लोगों की जानें लेते हैं, उनके रोज़मर्रा के जीवन में दहशत भर देते हैं, और आखिरकार दोनों समाजों के संदेहों और एक दूसरे के बारे में आपसी नफ़रत को ही मज़बूती देते हैं. हरेक बम धमाका एक बेरहम पलटवार को दावत देता है, फिलिस्तीनी अवाम की मुश्किलों को और बढ़ाता है. लेकिन फिर सच्चाई यह है कि खुदकुश बम हमले निजी हताशा की कार्रवाई होते हैं, कोई क्रांतिकारी कदम नहीं. फिलिस्तीनी हमले इज़रायली नागरिकों में दहशत ज़रूर भरते हैं, लेकिन वे फिलिस्तीनी इलाक़े में इज़रायली सरकार की रोज़ाना की दख़लंदाज़ियों के लिए एक सटीक बहाना बन जाते हैं. वे पुराने चलन वाले, उन्नीसवीं सदी के औपनिवेशवाद का एक सटीक बहाना बन जाते हैं, जिसे 21वीं सदी के नए चलन के ‘युद्ध’ का जामा पहना दिया गया है. इज़रायल का सबसे कट्टर राजनीतिक और सैनिक सहयोगी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका है और हमेशा से रहा है.”
‘अमेरिकी सरकार ने इज़रायल के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र के हर उस प्रस्ताव को रोका है, जिसमें इस टकराव के एक शांतिपूर्ण, न्यायोचित हल की मांग की जाती है. इसने इज़रायल की क़रीब-क़रीब हर जंग का समर्थन किया है. जब इज़रायल फिलिस्तीन पर हमला करता है, तब फिलिस्तीनी घरों को जो मिसाइलें तबाह करती हैं वे अमेरिकी होती हैं. और हर साल इज़रायल कई अरब डॉलरों की रक़म संयुक्त राष्ट्र से हासिल करता है, जो यहां के करदाताओं का पैसा है.’
आज नागरिक आबादी पर इज़रायल जो भी बम गिरा रहा है, उस पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का नाम लिखा है. हर टैंक पर. हर गोली पर. यह सब कुछ नहीं हो रहा होता, अगर अमेरिका पूरे दिल से इसका समर्थन नहीं कर रहा होता. 8 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की बैठक में जो कुछ हुआ उसे हम सबने देखा, जब 13 सदस्य राष्ट्रों ने युद्ध विराम के लिए वोट डाला और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने इसके ख़िलाफ़. वह वीडियो देखना परेशान कर देने वाला था, जिसमें अमेरिकी उप राजदूत, जो एक ब्लैक अमेरिकी हैं, का हाथ प्रस्ताव पर वीटो के लिए उठा. हमारे ज़ेहन पर इसके निशान हमेशा रहेंगे. सोशल मीडिया पर कुछ नाराज़ लोगों ने कड़वाहट में इसे इंटरसेक्शनल इम्पीरियलिज़्म कहा है.
नौकरशाही कार्रवाइयों को देखें तो ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का कहना है: अपना मक़सद पूरा करो, लेकिन रहमदिली के साथ.
‘इस त्रासद टकराव से हमें कौन से सबक़ सीखने चाहिए? जिन यहूदी लोगों ने ख़ुद इतनी क्रूरताएं झेली हैं (शायद इतिहास में किसी भी अवाम से सबसे ज्यादा) उनके लिए क्या उन लोगों के जोखिम और ख्वाहिशों को समझ पाना सचमुच में असंभव है जिन्हें उन्होंने विस्थापित कर रखा है? क्या भयावह तकलीफ़ें हमेशा बेरहमी को जन्म देती हैं? इंसानियत के लिए इससे कैसी उम्मीद पैदा होती है? एक जीत के मौक़े पर फिलिस्तीनी लोग कैसा बर्ताव करेंगे? जब राज्य से महरूम एक राष्ट्र जब एक राज्य बनेगा, तब वह किस क़िस्म का राज्य होगा? इसके परचम के साए में किस तरह का ख़ौफ़ अंजाम दिया जाएगा? क्या हमें एक अलग राज्य के लिए लड़ना चाहिए, या फिर हमें हरेक के लिए आज़ादी और सम्मान से भरे जीवन के अधिकार के लिए लड़ना चाहिए, चाहे किसी की जातीय पहचान या धर्म कुछ भी हो?
फिलिस्तीन किसी समय मध्यपूर्व में धर्मनिरपेक्षता का एक मोर्चा था. लेकिन आज उसी जगह पर हमास एक कमजोर, अलोकतांत्रिक, हर क़िस्म से भ्रष्ट लेकिन कथित रूप से असंकीर्ण पीएलओ की जगह लेता जा रहा है, जो खुलेआम एक संकीर्ण विचारधारा, और इस्लाम के नाम पर लड़ने का दावा करता है. उनका घोषणापत्र कहता है: ‘हम इसके सिपाही होंगे और इसकी आग के लिए लकड़ी जो दुश्मनों को जला डालेगी’. दुनिया से मांग की जाती है कि वह खुदकुश बमबारों की निंदा करे. लेकिन क्या हम उस लंबे सफ़र की अनदेखी कर सकते हैं जिससे होकर वे इस मुक़ाम पर पहुंचे हैं? 11 सितंबर 1922 से 11 सितंबर 2002 तक – एक जंग को जारी रखने के लिए 80 साल एक बहुत लंबा समय होता है. क्या दुनिया फिलिस्तीन के अवाम को कोई सलाह दे सकती है? क्या उन्हें बस गोल्डा मायर की सलाह मान लेनी चाहिए, और सचमुच में इसके लिए कोशिश करनी चाहिए वे अपना वजूद मिटा डालें?’
फिलिस्तीनी लोगों को मिटा देने, उनको पूरी तरह ख़त्म कर देने के विचार को इज़रायली राजनीतिक हुक्मरान और सैनिक अधिकारी साफ़ साफ़ कह रहे हैं. ‘जेनोसाइड (नस्ली जनसंहार) को रोकने में नाकामी’ के लिए – जो अपने आप में एक अपराध है – बाइडेन प्रशासन के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करने वाले एक अमेरिकी वकील का कहना है कि नस्ली जनसंहार के इरादे को इस तरह साफ़-साफ़ और सार्वजनिक रूप से कहने के मामले बहुत दुर्लभ हैं. एक बार इस मक़सद को हासिल कर लेने के बाद, शायद इन हुक्मरानों का इरादा यह हो कि ऐसे म्यूज़ियम बनाए जाएं जिनमें फिलिस्तीनी संस्कृति और हस्तशिल्पों की नुमाइश हो. असली फिलिस्तीनी खाना परोसने वाले रेस्तरां हों. शायद नए ग़ाज़ा बंदरगाह पर इस बात को लेकर एक लाइट एंड साउंड शो भी हो कि पुराना ग़ाज़ा कितना रंगीन हुआ करता था. मुमकिन है कि यह बंदरगाह बेन गुरियन नहर परियोजना के मुहाने पर बनाया जाए, जिसे स्वेज नहर के पैमाने पर बनाने की योजना तैयार की जा रही है. कहा जा रहा है कि समंदर में खुदाई के ठेकों पर दस्तख़त किए जा रहे हैं.
बीस साल पहले, जब न्यू मैक्सिको में मैंने ‘कम सेप्टेंबर’ व्याख्यान दिया, तब अमेरिका में फिलिस्तीन को लेकर एक क़िस्म की चुप्पी का माहौल था. इसके बारे में जो लोग बोलते थे वे इसकी भारी क़ीमत चुकाते थे. आज नौजवान सड़कों पर हैं. अगले मोर्चे पर उनकी रहनुमाई यहूदी और फिलिस्तीनी कर रहे हैं, जो अपनी सरकार, अमेरिका की सरकार की करतूतों पर ग़ुस्से में हैं. विश्वविद्यालयों में उथल-पुथल है. सबसे एलीट कैंपसों में भी. उन्हें चुप कराने के लिए पूंजीवाद तेज़ी से आगे आ रहा है. डोनर्स फंड रोक देने की धमकी दे रहे हैं, और इस तरह इस बात का फ़ैसला कर रहे हैं कि अमेरिकी छात्र क्या कह सकते हैं और क्या नहीं, और उन्हें कैसे सोचना चाहिए और कैसे नहीं. यह एक तथाकथित उदारवादी शिक्षा के बुनियादी उसूलों के मर्म पर ही चोट है.
उत्तर-उपनिवेशवाद, बहु-संस्कृतिवाद, अंतरराष्ट्रीय क़ानून, जेनेवा कन्वेंशन, मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र की दिखावेबाजी का अंत हो चुका है. बोलने की आज़ादी या सार्वजनिक नैतिकता का दिखावा भी ख़त्म हो चुका है. अंतरराष्ट्रीय वकील और विद्वान जिसे सभी कसौटियों पर एक नस्ली जनसंहार बता रहे हैं, वह ‘युद्ध’ जारी है जिसमें अपराध करने वाले मुजरिम ख़ुद को पीड़ित बता रहे हैं, एक नस्लभेदी राज्य चलाने वाले उपनिवेशवादी, उत्पीड़ितों के किरदार में हैं. अमेरिका में इस पर सवाल उठाने का मतलब होगा एंटी-सेमेटिक होने का आरोप लगना. चाहे सवाल करने वाले लोग ख़ुद यहूदी ही क्यों न हों. आप होश खो बैठेंगे. यहां तक कि इज़रायल भी उस तरह आवाज़ों को नहीं कुचलता जितना अमेरिका कुचलता है, जहां गिडियन लेवी जैसे असहमत इज़रायली नागरिक इज़रायली कार्रवाइयों के सबसे जानकार और सबसे तीखे आलोचक हैं (हालांकि हालात वहां भी तेज़ी से बदल रहे हैं). अमेरिका में तो इंतिफादा की बात करने को यहूदियों के नस्ली जनसंहार का आह्वान मान लिया जाता है. जबकि इंतिफादा का मतलब है बग़ावत, प्रतिरोध, जो फिलिस्तीन के मामले में एक नस्ली जनसंहार का विरोध है. इसका मतलब है अपने को मिटा दिए जाने का विरोध. ऐसा लगता है कि फिलिस्तीनी लोगों के पास नैतिक रूप से करने के लिए सिर्फ़ एक ही काम है – कि वे मर जाएं. हम सबके सामने क़ानूनी रूप से एक ही रास्ता है – कि हम उन्हें मरते हुए देखें. और चुप रहें. अगर हम ऐसा नहीं करते, तब हम अपने स्कॉलरशिप, ग्रांट, लेक्चर फ़ीस और अपनी आजीविकाओं को जोखिम में डालेंगे.
11 सितंबर के बाद अमेरिकी वार ऑन टेरर ने दुनिया भर की हुकूमतों को अपने नागरिक अधिकारों को ख़त्म कर देने का, और एक जटिल, आक्रामक निगरानी व्यवस्था क़ायम करने का बहाना दिया. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें हमारी सरकारें हमारे बारे में हर चीज़ जानती हैं, और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते. इसी तरह अमेरिका के नए मैकार्थीवाद की छतरी तले पूरी दुनिया के देशों में ख़ौफ़नाक चीज़ें पनपेंगी. बेशक हमारे अपने देश में यह बरसों पहले शुरू हो गया था. लेकिन अगर हम इसके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाएंगे तो यह और तेज़ होगा और हम सबको बहा ले जाएगा.
कल ही ख़बर आई कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जो किसी समय भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से था, ने छात्रों के आचरण को लेकर नए नियम जारी किए हैं. उनके तहत धरना या भूख हड़ताल करने वाले हर छात्र पर 20,000 रुपये का जुर्माना होगा. ‘राष्ट्र-विरोधी नारे’ लगाने के लिए 10,000 रुपये. अभी इसकी कोई सूची नहीं है कि ये कैसे नारे हैं – लेकिन हम यक़ीन से कह सकते हैं कि मुसलमानों के नस्ली जनसंहार और सफ़ाए की मांग करने वाले नारे इस फेहरिस्त का हिस्सा नहीं होंगे. यानी फिलिस्तीन की लड़ाई हमारी लड़ाई भी है.
कहने के लिए जो बचा है उसे साफ़-साफ़ कहना और दोहराना ज़रूरी है.
वेस्ट बैंक पर इज़रायल का क़ब्ज़ा और ग़ाज़ा की घेरेबंदी मानवता के ख़िलाफ़ अपराध हैं. इस क़ब्ज़े को धन और मदद देने वाले अमेरिका और दूसरे देश इस अपराध के भागीदार हैं. आज हम जिस दहशत को देख रहे हैं, हमास और इज़रायल द्वारा नागरिकों का विवेकहीन कत्लेआम, वह इस घेरेबंदी और क़ब्ज़े का नतीजा है.
चाहे दोनों ही पक्षों द्वारा की जाने वाली क्रूरता का कैसा भी ब्योरा दिया जाए, उनकी ज्यादतियों की कितनी भी निंदा की जाए, उनके अत्याचारों में एक बराबरी का चाहे जितना भी झूठ गढ़ा जाए, वे हमें किसी समाधान तक नहीं पहुंचा सकते.
इस भयावहता को जन्म देने वाली चीज़ है क़ब्ज़ा. क़ब्ज़ा ही वह चीज़ है जो अपराध करने वालों और उस अपराध का निशाना बनने वालों, दोनों के ऊपर हिंसा कर रही है. इसके शिकार बनने वाले मर रहे हैं. और उनके अपराधियों अब अपने जुर्म के साथ जीना पड़ेगा. और उनकी आने वाली उनकी पीढ़ियों को भी.
इसका हल किसी फ़ौजी कार्रवाई से नहीं निकल सकता. यह सिर्फ़ एक राजनीतिक हल ही हो सकता है, जिसमें इज़रायलियों और फिलिस्तीनियों, दोनों को ही, एक साथ या एक दूसरे के साथ-साथ रहना पड़ेगा. सम्मान के साथ, और समान अधिकारों के साथ. इसमें दुनिया का दख़ल देना ज़रूरी है. इस क़ब्ज़े का अंत ज़रूरी है. फिलिस्तीनियों को सचमुच का एक मुल्क मिलना ज़रूरी है. और फिलिस्तीनी शरणार्थियों को वापस लौटने का अधिकार मिलना ज़रूरी है.
अगर नहीं तो पश्चिमी सभ्यता की नैतिक इमारत ढह जाएगी. हम जानते हैं कि यह हमेशा ही एक दोमुंही चीज़ थी, लेकिन उसमें भी एक क़िस्म की पनाह मिलती थी. वह पनाह हमारी आंखों के सामने से ख़त्म हो रही है.
इसलिए, फिलिस्तीन और इज़रायल की ख़ातिर, जो ज़िंदा हैं उनकी ख़ातिर, और जो मारे गए उनके नाम पर, हमास के हाथों बंधक बनाए गए लोगों की ख़ातिर, और इज़रायली जेलों में बंद फिलिस्तीनियों की ख़ातिर, सारी इंसानियत की ख़ातिर, यह कत्लेआम फ़ौरन बंद हो.
इस सम्मान के लिए मुझे चुनने के लिए आपका एक बार फिर से शुक्रिया. इस पुरस्कार के साथ मिलने वाले 3 लाख रुपयों के लिए भी आपका शुक्रिया. ये मेरे पास नहीं रहेंगे. वे उन एक्टिविस्टों और पत्रकारों के काम आएंगे जो भारी क़ीमत चुकाते हुए भी विरोध में डटे हुए हैं.
(मूल अंग्रेजी से रेयाज़ुल हक़ द्वारा अनूदित)