क्यों अलग है उत्तर और दक्षिण भारत का राजनीतिक मिजाज़?

बीते दिनों आए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों और उनके प्रतिनिधि चुनने की प्राथमिकताओं पर लंबी बहस चली, तमाम सवाल उठाए गए. क्या वजह है कि इन क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मिजाज़ में इतना अंतर है?

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: X/@ECISVEEP)

बीते दिनों आए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों और उनके प्रतिनिधि चुनने की प्राथमिकताओं पर लंबी बहस चली, तमाम सवाल उठाए गए. क्या वजह है कि इन क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मिजाज़ में इतना अंतर है?

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: X/@ECISVEEP)

दक्षिण भारत में जन्मी किसी लड़की के लिए उत्तर भारत में जन्मी किसी लड़की से ज्यादा यह संभावना बनती है कि वह 1 साल से पहले इस दुनिया को अलविदा नहीं कहेगी. दक्षिण भारत में रह रही किसी लड़की के लिए उत्तर भारत में रह रही किसी लड़की से ज्यादा यह संभावना बनती है कि उसकी पढ़ाई लिखाई अच्छी हो पाए, वह अपना स्कूल पूरा कर पाए, वह कॉलेज जा पाए, नौकरी हासिल कर पाए, नौकरी में उसे अच्छा पैसा मिले. कहने का मतलब यह है कि दक्षिण भारत में रहने वाली लड़कियों की औसत हालात बताती हैं कि वह उत्तर भारत के मुकाबले ज्यादा बेहतर जिंदगी जी पाती हैं. ज्यादा सेहतमंद होती हैं. आर्थिक रूप से ज्यादा संबल और सुरक्षित जीवन जी पाती है.

उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों के हालात का तुलनात्मक ब्योरा देने वाली यह पंक्तियां मेरी नहीं बल्कि लेखक नीलकंठन आरएस की हैं. इन्होंने साउथ वर्सेज़ नॉर्थ इंडियाज़ ग्रेट डिवाइड (South vs North India’s Great Divide) नाम से एक किताब लिखी है.

लेखक की बात का जवाब दक्षिण भारत और उत्तर भारत की राजनीति में मिल सकता है. बीते दिनों हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे को ही देख लीजिए. सीटों के लिहाज से भाजपा ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बड़ी जीत हासिल की. मगर तेलंगाना का चुनाव हार गई.

यह केवल इसी चुनाव की बात नहीं है बल्कि आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण भारत के पांच सबसे बड़े राज्यों की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या की एक चौथाई के करीब है. मगर इन पांच राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है. जबकि ठीक इसके उलट उत्तर भारत की जनसंख्या भारत की कुल आबादी की 43% के आसपास है और उत्तर भारत के ज्यादातर बड़े राज्यों में भाजपा की सरकार है.

एक और तथ्य भी गौर करने लायक है कि पिछले नौ सालों से भारत की राजनीति में ऐसा माहौल बनाया गया है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा का दबदबा रहा है. जब से भाजपा की स्थापना हुई है तब से अब तक के इतिहास में यह भाजपा का सबसे सुनहरा दौर है. बावजूद इसके यह पार्टी दक्षिण के किसी भी राज्य की सत्ता को नहीं संभाल रही है.

इसका मतलब यह भी नहीं कि दक्षिण भारत के राज्यों में कांग्रेस का दबदबा है. बल्कि दक्षिण भारत के राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहा है. तमिलनाडु की सत्ता द्रविड़ आंदोलन से निकली डीएमके के पास है. आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस का शासन है तो केरल में माकपा. कर्नाटक कांग्रेस के पास है. वहीं, साल 2018 में तेलंगाना के अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक वहां भारत राष्ट्रीय समिति की सरकार थी. अबकी बार कांग्रेस के हाथ में सत्ता आई है.

तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राजनीतिक मिजाज में इस तरह का अंतर क्यों है?

हैदराबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केके कैलाश द हिंदू में लिखते हैं कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत की राजनीति की भाषा बिल्कुल अलग-अलग है. यहां के मुद्दे, यहां की चिंताएं और यहां तक कि इनकी अभिव्यक्ति उत्तर भारत और दक्षिण भारत में बिल्कुल अलग-अलग तरीके से की जाती है. जब देशभर में कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था, उस वक्त भी दक्षिण भारत के राज्यों के भीतर यह मिजाज बना रहता था कि कांग्रेस अलग है. कांग्रेस के जरिये दक्षिण भारत के राज्यों के राजनीतिक हित नहीं पेश किए जाते हैं. इसी वजह से दक्षिण भारत में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार हुआ. दक्षिण भारत के राज्यों को लगा कि क्षेत्रीय पार्टियां ही उनकी राजनीतिक हित को अच्छे से पेश कर पाएंगी. समय बीतता चला गया और यह क्षेत्रीय हित साधने का मिजाज दक्षिण भारत के राज्यों में और गहराता चला गया.

वे आगे कहते हैं, ‘दक्षिण भारत के राज्यों को लगता है कि जो पार्टी केंद्र में शासन संभाल रही है वह उत्तर भारत की पार्टी है. इसलिए दक्षिण भारत से बार-बार यह आवाज उठाई जाती है संविधान की राज्य सूची में बढ़ोतरी की जानी चाहिए. मतलब संविधान के द्वारा जो केंद्र को मिली हुई शक्ति है उससे ज्यादा राज्यों को शक्ति मिलनी चाहिए. राज्य सरकार की शक्तियों को जब भी केंद्र सरकार अपनी तरफ झुकाती है तो दक्षिण भारत के राज्यों से ज्यादा तेज आवाज उठती है. इस तरह की भाषा का इस्तेमाल उत्तर भारत के राज्यों में कम होता है क्योंकि उत्तर भारत के राज्यों में भाषा संस्कृति और इतिहास के आधार पर एक तरह की समानता है. इसलिए उत्तर भारत के राज्यों के भीतर यह भाव नहीं पनपता कि वह एक दूसरे से अलग है.’

राजनीतिक विश्लेषक सुधा पाई कहती हैं कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत के सामाजिक आंदोलन के उभार और असर में बहुत अंतर रहा है. पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों का जाति व्यवस्था के खिलाफ विरोध दक्षिण भारत में बहुत पहले शुरू हो गया था. जब भारत अंग्रेजों का उपनिवेश था उसी समय दक्षिण भारत में जाति के सवाल पर सामाजिक आंदोलन की शुरुआत हो गई थी. कर्नाटक और तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद और कर्मकांडीय नैतिकता के खिलाफ विरोध आजादी के पहले ही शुरू हो चुका था. जबकि ठीक इसके उलट उत्तर भारत में जाति व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन की शुरुआत बहुत देर बाद हुई. आंबेडकर का असर बहुत देर बाद हुआ. और सामाजिक आंदोलन बिखरा हुआ था. दक्षिण भारत में सामाजिक आंदोलन पहले हुआ और उसके आधार पर चुनावी राजनीति तय हुई जबकि उत्तर भारत में बहुत लंबे समय तक केवल और केवल चुनावी राजनीति ही रही. इसलिए जिस तरह से दक्षिण भारत का वोटर वोट करता है उस तरह से उत्तर भारत का वोटर वोट नहीं करता है.

वे आगे कहती हैं, ‘उत्तर भारत और दक्षिण भारत में अलगाव है. यह विचार सबसे पहले द्रविड़ आंदोलन में अभिव्यक्त होना शुरू हुआ. उत्तर भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अंतर्गत संचालित होने वाला हिंदू धर्म अब भी बहुत ज्यादा हावी है जबकि दक्षिण भारत में सामाजिक आंदोलन की वजह से यह ब्राह्मणवादी धर्म नरम पड़ा हुआ है. इसलिए हिंदुत्व की राजनीति उत्तर भारत की संस्कृति में ज्यादा सफल हो पाई है जबकि दक्षिण भारत की संस्कृति में उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं.’

मगर ऐसा भी नहीं है कि दक्षिण भारत पूरी तरह से भाजपा से मुक्त है. कर्नाटक में उसके पास 36% वोट है और तेलंगाना में कांग्रेस के मुकाबले बहुत कम वोट होने के बावजूद भी उसके पास 14% वोट है. यह नंबर यह तो नहीं बताते कि भाजपा का दक्षिण भारत में दबदबा है मगर यह जरूर बताते हैं कि दक्षिण भारत में भाजपा की मौजूदगी है. मगर सवाल यह बनता है कि भाजपा का चुनावी जीत का रथ दक्षिण भारत में क्यों रुक जाता है?

राजनीतिक विशेषज्ञ प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय इसका जवाब देते हैं कि इस प्रश्न का आधा उत्तर तो ऐतिहासिक और वैचारिक संदर्भों से मिल जाता है. भाजपा की चुनावी जीत की राजनीति की पूरी तासीर हिंदुत्व से तैयार होती है. हिंदू राष्ट्रवाद से तैयार होती है. हिंदू राष्ट्रवाद के केंद्र में मुस्लिम विरोध शामिल है. यानी मुस्लिम विरोध के बल पर हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की जमीन लगातार तैयार करते रहने का काम किया जाता है. यह माहौल उत्तर भारत में तो मिल पाता है मगर दक्षिण भारत में नहीं.

उन्होंने यह भी जोड़ा, ‘दक्षिण भारत के केवल उन्हीं इलाकों में जहां मुसलमानों ने अतीत में शासन किया और हिंदुओं से भेदभाव किया वहीं पर भाजपा को पनपने का कुछ माहौल मिल पाता है. मगर उत्तर भारत में मुस्लिम शासक के तौर पर मुगलों को आगे कर हिंदुओं के भेदभाव की कहानी रची जाती है. इस तरह का इतिहास दक्षिण भारत में नहीं मिल पाता. दक्षिण भारत में मुस्लिम शासन का इतिहास तो मिलता है मगर वह इतना बंटा हुआ है कि उससे ऐसी कहानी नहीं रची जा सकती जैसे मुगलों के शासन में हिंदुओं के हालात पर उत्तर भारत में पेश की जाती है. यह एक बड़ा कारण है कि मुस्लिम विरोध की वैसी एकजुटता दक्षिण भारत में नहीं हो पाती जैसी उत्तर भारत में हो पाती है.’

कई जानकार बताते हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद का एक बड़ा आधार हिंदी भाषा है. हिंदू राष्ट्रवाद की कहानी में एक किरदार हिंदी भाषा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से वैचारिक तौर पर यह बात कही जाती है कि भारत की राष्ट्रीय भाषा हिंदी होनी चाहिए. भाजपा के उभार से एक बात स्वाभाविक तौर पर निकलती है कि वह हिंदी भाषा को पूरे देश पर थोपना चाहती है. दक्षिण भारत के लोग अपने भारतीय होने पर गर्व करते हैं. अपनी संस्कृति और अपनी भाषा पर गर्व करते हैं. मगर वह भाषा के तौर पर हिंदी की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकते.

एक तरह से कह लीजिए तो दक्षिण भारत में भाजपा के साथ इस बात का टैग लगा हुआ है कि अगर भाजपा सत्ता में आएगी तो हिंदी भाषा थोपेगी. यह एक बड़ी वजह है कि दक्षिण भारत की सत्ता पर भाजपा वर्तमान में भी और भविष्य में भी काबिज होते हुए नहीं दिखाई देती है.

इसके साथ अब परिसीमन का मुद्दा भी जुड़ गया है. परिसीमन का मतलब है कि लोकसभा की सीटों को तय करना. इसके कई आधार होते हैं अगर केवल आबादी के आधार पर लोकसभा की सीट तय की जाएगी तब भी उत्तर भारत के मुकाबला दक्षिण भारत के राज्यों को सीटों के मामलों में बहुत ज्यादा नुकसान होगा. मतलब एक तरह से कह लीजिए तो दक्षिण भारत के राज्यों में यह बहस छड़ी हुई है कि सामाजिक आर्थिक पैमाने पर बेहतर होने का उन्हें इनाम मिलना चाहिए था मगर यहां तो उल्टा हो रहा है.

प्रतिनिधित्व के मामले में उन्हें नुकसान झेलना पड़ सकता है. इस मामले को किस तरीके से सुलझाया जाए कि दक्षिण भारत में प्रतिनिधित्व को लेकर के नाखुशी न पैदा हो, यह भी तय करेगा कि भाजपा की भविष्य की राजनीति दक्षिण भारत में कैसी होगी? हाल-फिलहाल तो इसे एक मामले से दक्षिण भारत के लोगों में यह एहसास और गहरा रहा है कि भारत की राजनीति में उत्तर भारत का दबदबा है.

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