अयोध्या के मंदिर 1920-21 के किसान विद्रोह से अपना रिश्ता भूल गए…

साल 1920 में अवध किसान सभा ने ब्रिटिश सरकार के किसान विरोधी क़ानूनों व नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष की रणभेरी बजाने के लिए सम्मेलन हेतु अयोध्या के सरयू तट को चुना था. दमनकारी सरकार की निगाहों से बचते हुए सूबे के कोई एक लाख किसान वहां पहुंचे थे, जिनके लिए अयोध्या के संतों ने अपने मठ-मंदिर खोल दिए थे.

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(फोटो: द वायर)

साल 1920 में अवध किसान सभा ने ब्रिटिश सरकार के किसान विरोधी क़ानूनों व नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष की रणभेरी बजाने के लिए सम्मेलन हेतु अयोध्या के सरयू तट को चुना था. दमनकारी सरकार की निगाहों से बचते हुए सूबे के कोई एक लाख किसान वहां पहुंचे थे, जिनके लिए अयोध्या के संतों ने अपने मठ-मंदिर खोल दिए थे.

(फोटो: द वायर)

इस कठिन वक्त में, जब कुछ लोग हमारी चेतनाओं को लगातार दूषित करने में लगे हैं, आप जानें तो शायद चकित होकर रह जाएं कि जिस अयोध्या को इन दिनों भव्य राम मंदिर निर्माण की खुमारी में बाकी सब कुछ भूल जाने को ‘कहा’ जा रहा है और वक्त के पहियों को ऐसी दिशा में घुमाने की कोशिश की जा रही है कि उसके अन्य मंदिरों में भी किसानों के जीवन-मरण से जुडे़ प्रश्नों की चर्चा के लिए कोई जगह न रह जाए, वह कभी अवध के किसानों के संघर्ष का अवध का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करती थी.

इतना ही नहीं, उसके ज्यादातर मंदिर आंदोलनकारी किसानों के आश्रय व आतिथ्य-सत्कार के स्थल हुआ करते थे. आपको यह जानकर और आश्चर्य होगा कि यह महज सौ साल पहले की बात है.

विडंबना यह कि इन सौ सालों के बीच-खासकर 22-23 दिसंबर, 1949 के बाद से अब तक-अयोध्या को इतने अघटनीयों से गुजरना पड़ा है कि उसकी केंद्रीय चिंता कुरूप होकर ‘कुछ और’ हो गई है और इस ‘कुछ और’ के चक्कर में उससे बहुत कुछ पीछे छूटता गया है. वे दिन भी पीछे छूट गए हैं, जब उसके मंदिरों का किसान जीवन से अन्योन्याश्रित संबंध हुआ करता था. वे एक दूजे को जीवन तो दिया ही करते थे, एक दूसरे के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त भी होते थे.

इसे यों समझा जा सकता है कि अवध किसान सभा को 1920 में देश की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के किसान विरोधी कानूनों व नीतियों के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन व संघर्ष की रणभेरी बजाने के लिए अपना सम्मेलन करना हुआ तो उसने इसके लिए अयोध्या के सरयू तट को ही चुना, हालांकि उनका संगठन प्रतापगढ़ जिले में अयोध्या से ज्यादा मजबूत था.

इस सम्मेलन की तिथि थी 20-21 दिसंबर और इस अंदेशे के बावजूद कि गोरी सरकार उसमें शामिल होने वाले किसानों की ओर अपनी भृकुटियां फौरन टेढ़ी कर उनका जीना दूभर कर देगी, किसानों ने उसे लेकर अभूतपूर्व उत्साह दिखाया था. पौष महीने की हड्डियां कंपाती ठंड के बीच दमनकारी सरकार की निगाहों से बचते-बचाते और नाना असुविधाएं झेलते सूबे के कोई एक लाख किसान इस सम्मेलन में आए थे, जो उन दिनों के लिहाज से एक बड़ी संख्या थी.

अयोध्या के संत-महंतों ने उनकी इस बड़ी संख्या का न सिर्फ दिल खोलकर स्वागत किया था, बल्कि खुले आसमान के नीचे ठिठुरते हुए रात बिताने की मजबूरी से बचाने के उद्देश्य से उनके लिए अपने मठों-मंदिरों के दरवाजे खोल दिए और उनका हरसंभव सत्कार किया था. हां, कहना होगा कि किसानों को सिर छिपाने का ठौर देने के काम में मस्जिदें भी पीछे नहीं ही रही थीं.

इससे खफा गोरी सरकार संत-महंतों व मंदिरों-मस्जिदों का तो खैर कुछ भी बिगाड़ नहीं पाई थी (यह भी कह सकते हैं कि बिगाड़ना नहीं चाहा था), लेकिन किसानों पर भरपूर कहर तोड़ा था. सम्मेलन की समाप्ति पर वे अपने घरों को वापस जाने लगे तो सरकारी मशीनरी ने उन्हें इस हद तक तंग किया था कि न वे रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ियों की प्रतीक्षा कर सकें, न ही उनमें सवार हो सकें.

इससे क्रुद्ध किसान रेलों की पटरियों पर लेट गए और सत्याग्रह करने लगे तो उन्हें तितर-बितर करने के लिए गोरी पुलिस ने उन पर खूब लाठियां भांजी और रेलगाड़ियों के भाप के इंजनों से निकले खौलते हुए पानी की बौछारें भी डालीं थीं. फिर भी किसान तितर-बितर नहीं हुए और सरकार को मजबूर कर दिया कि वह उन्हें रेलगाड़ियों से उनके गंतव्य तक भेजने के प्रबंध करे- चाहे उन्होंने टिकट लिया हो या नहीं.

अयोध्या किसान कांग्रेस नाम से प्रसिद्ध किसानों का यह सम्मेलन समूचे सूबे में किसानों के विद्रोह की पीठिका सिद्ध हुआ था. किसान उससे लौटकर अपने गांवों में पहुंचे ही थे कि उनके भीतर से विद्रोह का लावा-सा फूट पड़ा था. फैजाबाद, सुल्तानपुर आदि जिलों में उन्होंने तालुकेदारों व जमीनदारों के विरुद्ध हल्ला बोलकर उनके दरबारों व महलों पर हमले शुरू किए तो वे जल्दी ही बाजार लूटने और थाने फूंकने तक जा पहुंचे थे.बढ़ी हुई महंगाई को लेकर उन्होंने कपड़ा व्यापारियों को भी कुछ कम निशाना नहीं बनाया था. साथ ही उन्होंने अपना कर्तव्य न निभाने और जमींदारों का समर्थन करने वाले स्कूल मास्टरों को भी नहीं ही बख्शा था.

इस सबसे एकबारगी ऐसा लगने लगा था जैसे किसी ने राख को कुरेदकर सदियों से उसके अंदर दबी आग को बरबस धधका दिया हो. इससे त्रस्त गोरी सरकार ने इस विद्रोह को दबाने के लिए अमन सभाएं आरंभ कीं तो उनका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा था.

लेकिन तीन साल पहले उस आंदोलन का शताब्दी वर्ष आया, तो दूषित चेतनाओं के नाना खेलों के बीच ऐसे गुजर गया जैसे हमारे इतिहास या वर्तमान में उसकी कोई अहमियत ही न हो. क्या आश्चर्य कि अब नवनिर्मित राम मंदिर के भित्तिचित्रों अथवा अयोध्या में सरकारी तौर पर जगह-जगह कराए गए दृश्यांकनों में भी उसकी कोई छवि या जिक्र नहीं है- इतना भी नहीं कि अवध किसान सभा सीताराम के साथ बाबा रामचंद्र की जय के नारे लगाया करती थी.

क्या इसका कारण यह है कि उक्त किसान विद्रोह की कमान कथित नीची व अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के किसानों, भूमिहीनों, भूतपूर्व सैनिकों और साधुओं के भी हाथ में थी?

‘अवध का किसान विद्रोह’ (1920 से 1922 ई.) नामक बहुचर्चित पुस्तक (जिसे किसानों के इस विद्रोह पर असाधारण व सबसे प्रामाणिक शोध माना जाता है) में उसके लेखक सुभाषचंद्र कुशवाहा लिखते हैं: किसानों की एकता व संघर्ष की शुरुआत को अभिजातवर्गीय समुदाय द्वारा हर बार नेस्तनाबूद कर दिया जाता रहा है. यह स्थिति आदि से आज तक बनी हुई है.

हालांकि, कुशवाहा के अनुसार, अवध का किसान विद्रोह स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पहली गंवई पाठशाला था. इस विद्रोह ने ही उन्हें यहां की भूख, गरीबी और बदहाली का साक्षात्कार कराया था. लेकिन उनका कहना है कि किसानों के क्रांतिकारी तेवर को दबाने और कुलीनतावादियों को लाभ पहुंचाने की नीति को तब भी अपनाया गया था और आज भी अपनाया जा रहा है. कुशवाहा के अनुसार इस धरती का राष्ट्रवाद कभी संगीनों से तो कभी कर्जों से गरीबों को मारता रहा है.

जो भी हो, आजादी की लड़ाई के दौरान अयोध्या के मंदिरों ने किसानों के ही नहीं क्रांतिकारियों के सशस्त्र संघर्षों में भी बड़ी भूमिका निभाई थी. इसके लिए उन्होंने पूजास्थल के तौर पर अपनी सीमाएं तोड़ने से भी गुरेज नहीं किया था.

क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान अयोध्या की हनुमानगढ़ी व मेरठ मंदिर के अलावा खाकी अखाड़ा व भीखू साहू के मंदिर भी क्रांतिकारियों के आश्रयस्थल हुआ करते थे. विभिन्न कार्रवाइयों के दौरान क्रांतिकारी पुलिस से बचने के लिए इन मंदिरों व अखाड़ों में खुद तो छिपते ही थे, अपने अस्त्र-शस्त्र भी छिपाते थे. क्रांतिकारियों को शह व समर्थन देने को लेकर एक बार गोरी पुलिस ने हनुमानगढ़ी के बाबा बनवारीदास व खाकी अखाड़े के महंत भगवानदास को हथकड़ियों व बेड़ियों में जकड़कर शहर में घुमाते हुए जेल भेजा था. लेकिन अंततः उसे उन्हें लाचार होकर उन्हें छोड़ देना पड़ा था क्योंकि उनके विरुद्ध कोई गवाह या सबूत नहीं ढूंढ़ पाई थी.

अफसोस कि मंदिरों की उस शानदार विरासत को अब, और तो और, इन मंदिरों के कर्ता-धर्ता संत-महंतों ने भी भुला दिया है.

ऐसा नहीं होता तो इस वक्त अयोध्या में आगामी 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समारोहपूर्वक की जाने वाली रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा की बढ़ती सरगर्मियों के बीच इस बात की भी चर्चा होती ही कि फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले में बारह जनवरी, 1921 को किसान विद्रोह आरंभ हुुआ तो दो फरवरी तक इस सीमा तक बढ़ गया था कि अमेरिकी अखबार ‘द डेली वेस्टर्न’ ने खबर छापी थी कि फैजाबाद के लगभग दस हजार किसान विद्रोहियों को रोकने के लिए लखनऊ से सेना बुलाई गई है.

तथ्यों के मुताबिक, इस विद्रोह के आरंभ में 12-13 जनवरी को ही भूमिहीन कृषि मजदूरों की भारी भीड़ ने जमींदारों, बनियों, सुनारों, कुलक किसानों और अनाज के गोदामों को लूटना आरंभ कर दिया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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