स्मृति शेष: चित्रकार इमरोज़ नहीं रहे. जिस ख़ामोशी से वे अमृता प्रीतम की ज़िंदगी में रहे, मोहब्बत इतनी ख़ामोश भी हो सकती है, इसे इमरोज़ को जान लेने के बाद ही जाना जा सकता है.
कैसे याद करते हैं किसी जाते हुए अज़ीज़ दोस्त को आख़िरी बार देखने पर, मुझे नहीं आता यह सलीक़ा. वैसे भी यादें बड़ी बेतरतीब-सी हुआ करती हैं, कोई-सी भी याद कभी भी आ धमकती है, बिना मौक़े और दस्तूर का ख़याल करे. अब जैसे इमरोज़ साहब को आज उनके आख़िरी दिन विदा करते हुए मैं कैसे याद करूं, समझ नहीं पा रही. बजाय रोने के मेरे चेहरे पर उनकी याद मुस्कुराहट बनकर फैली हुई है. इमरोज़ मुझे इस दुनिया के तो कभी लगे ही नहीं थे, पहली बार मिलने पर भी नहीं. फिर जैसे-जैसे उनसे कई मुलाक़ातें कीं, उनकी बातें सुनीं, उन्हें जाना, उनके मशविरों की गहराई को समझा, वे और भी दूसरी ही दुनिया के लगते रहे.
एक ऐसी दुनिया, जहां सचमुच सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार में जिया जा सकता है, प्यार से ही पेट भरा जा सकता है, प्यार ही ओढ़ा जा सकता है, प्यार ही बिछाया जा सकता है, प्यार को गमलों में फूलों की तरह रोंपा जा सकता है, प्यार को अपनी इकलौती पहचान बनाया जा सकता है, प्यार के नाम पर अपना वजूद मिटाया जा सकता है, प्यार की तोहमतें और ज़िल्लतें उठाई जा सकती हैं… मगर किसी भी सूरत में, किसी भी वजह से, प्यार को कम नहीं किया जा सकता. ऐसे थे इमरोज़ साहब.
दुनिया उन्हें अमृता प्रीतम के हमसफ़र के रूप में ही जानती-पहचानती और याद करती है, लेकिन कितने लोगों को ये बात याद रही होगी कि इमरोज़ की ख़ुद भी एक पहचान, एक हुनर था! वे कुछ ऐसा जानते थे, जिसके ज़रिये लोगों को अपनी बात में थोड़ी ख़ूबसूरती और जुड़ी महसूस होती थी. वे पेंटर थे और यही वह वजह थी, जिसके चलते वे अमृता प्रीतम से भी जुड़े थे.
अमृता उनसे अपनी किताब का कवर बनवाने के सिलसिले में मिली थीं पहली बार, यानी वह अमृता, जो उस वक़्त भी अपना दम-ख़म रखती थीं, उन्हें इमरोज़ के रंगों में, उनके हाथों की खींची गईं लक़ीरों में कुछ ऐसा दिखा था कि अपने शब्दों को वे थोड़ा और संवारकर पेश कर सकती थीं. फिर जब मिलीं तो ऐसी मिलीं कि मरने तक भी दूर न जा सकीं.
प्यार एक ख़ुशबू ही तो है, होती है तो महसूस हो जाती है, नहीं होती है तो सांस लेना दूभर कर देती है. अमृता प्रीतम भी तो शादी जैसे रिश्ते में होने के बाद भी इस ख़ुशबू को तरसती रहीं. साहिर के प्यार में भी उस ख़ुशबू में कसर बाक़ी ही रही, लेकिन इमरोज़… इमरोज़ तक जाकर उनकी ये प्यार की तलाश शायद अपने समंदर तक पहुंच कर समंदर ही बन गई थी. हां, समंदर ही तो, क्योंकि आमतौर पर सारी नदियां जब अपनी मंज़िल तक पहुंचती हैं तो वजदू समंदर का ही बाकी रह जाता है, वे तो अपना नामोनिशान ही मिटा देती हैं अपनी मंज़िल तक पहुंचकर, लेकिन अमृता के साथ ऐसा नहीं हुआ. वजूद तो यहां भी मिटा, लेकिन इमरोज़ ने अपना वजूद मिटाया, अमृता का नहीं.
जिस ख़ामोशी से वे अमृता की ज़िंदगी में रहे, मोहब्बत इतनी ख़ामोश भी हो सकती है, इसे इमरोज़ को जान लेने के बाद ही जाना जा सकता है.
जब मैं पहली बार इमरोज़ साहब से मिली थी तो वजह थी, अमृता प्रीतम का घर. तब मैं ‘गृहलक्ष्मी’ मैगज़ीन में सीनियर सब-एडिटर हुआ करती थी. उस दफ़ा हम इंटीरियर स्पेशल अंक प्लान कर रहे थे मैगज़ीन का और मेरा सुझाव था कि हमें सेलेब्रिटीज़ के साथ-साथ लेखकों, कवियों के घर भी कवर करने चाहिए, यानी वे दरो-दीवार, जहां से इतनी ख़ूबसूरत सोचें निकला करती हैं. और फिर जब मैं वहां पहुंची तो दरवाज़ा इमरोज़ साहब ने ही खोला था. क्या मोहब्बत लोगों को इतना ख़ूबसूरत भी बना देती है! वे अधखुला दरवाज़ा थामे खड़े मुस्कुरा रहे थे. उनके बालों की एक लट माथे पर झूल रही थी और उस अजनबी को देखकर लग रहा था कि कितनी दिनों बाद मिल रही हूं अपने इस दोस्त से! क्यों इतना बिज़ी हो जाती हूं मैं!
मेरे साथ मेरे फोटोग्राफर भूपिंदर सिंह जी थे. वे आते ही अपने काम में लग गए, यानी फोटो खींचने में और मेरी निगाह घूम-फिरकर इमरोज़ साहब पर ही जा रही थी. मैं उनसे इधर-उधर की बातें भी कर रही थी, मगर ख़ुद नहीं जानती थी कि ज़ेहन में चल क्या रहा है. कभी ये ख़याल आता कि अमृता जी से इतनी ख़ामोश मोहब्बत करने वाले के बारे में, मैं तो सोचती थी कि बड़ा ख़ामोश मिजाज़ का कोई इंसान होगा, मगर ये तो चहकता सा, मुस्कुराता सा, गहरी समदंर जैसी आंखों वाला शख़्स है, जो इससे भी ज़्यादा बोलती हैं. इसमें जो सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत मुझे लगा, वह इनका सरल-सहज व्यवहार, उनकी मुस्कुराहट है या फिर सहजता से, सरलता से, मुस्कुराती मोहब्बत की ताबीर है, जो किसी ख़ुशक़िस्मत को ही नसीब होती है और मैं उस जीती-जागती ताबीर को देख रही हूं तो यह उसी का असर है.
एक बार इमरोज़ साहब ने अमृता जी से अपनी मुलाक़ात के बारे में बताते हुए कहा था कि एक बार जब अमृता उनसे मिलने उनके घर आईं तो घर का दरवाज़ा बंद था. दस्तक होने पर जब इमरोज़ साहब ने जाकर दरवाज़ा खोला, तो दरवाज़ा खुल जाने के बावजूद अमृता अंदर नहीं आईं. बस इतना बोलीं, ‘इमरोज़, तेरे दरवाज़े पर भी मुझे दस्तक देकर आना होगा?’ बस इसके बाद इमरोज़ साहब ने कभी अपने घर का दरवाज़ा बंद नहीं किया.
फिर जब वे अमृता के साथ एक ही छत के नीचे रहने लगे, तब भी उनके कमरे का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था. अमृता हवा के झोंके-सी जब चाहतीं, आतीं, जब चाहतीं, चली जातीं. अमृता जी को चाय का बड़ा शौक़ था और पढ़ते हुए ये शौक़ तलब में बदल जाया करता था. दिल की चाह दिल जानता है, वह भी जान ही लेता है, जो दिल में रहता है तो इमरोज़ ख़ामोशी से उठते, चाय बनाकर लाते और अमृता की मेज पर बेआवाज़ रखकर, बिना क़दमों की आहट किए चले जाते. अक्सर अमृता नज़र उठाकर देखती भी नहीं, अपने लिखने में ही तल्लीन रहतीं उस वक़्त. बस एक मुस्कुराहट उनके चेहरे पर उतर आया करती थी उन लम्हों में. इसी एक मुस्कुराहट के लिए जीते जी मरते हैं मोहब्बत की चाह करने वाले. अमृता ने भी तो शायद कितने भीगे तकियों के बाद ये मुस्कुराहट पाई थी. दुनिया इसी मुस्कुराहट को तो छीनती है हर क़दम पर. अमृता, आपसे रश्क़ न हो जाए किसी को तो क्या हो!
मैंने काम के अलावा भी अपने फोटोग्राफर से कहकर कुछ तस्वीरें उनकी अपने लिए, अपनी नज़र से खिंचवा लीं. फिर जब मैं वापस आते हुए इमरोज़ साहब के गले मिली तो उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ‘तू जा तो रही है, पर फिर भी रह गई. चली आना जब चाहे अपनी तलाश में, तेरा चेहरा बता रहा है तू ख़ुद को खोई हुई है, अपनी ही तलाश कर रही है.’ और मैं, सिवाय हैरान होकर तकने के कर भी क्या सकती थी. क्या मोहब्बत जादू भी सिखा देती है!
उसके बाद से मेरा इमरोज़ साहब के घर बार-बार आना-जाना शुरू हो गया. अब वे मेरे लिए कुछ और नहीं, सिर्फ़ दोस्त थे, लेकिन परियों की कहानी वाले दोस्त, जिससे मिलकर ग़म के साये दूर हो जाते हैं और ये दुनिया भी अच्छी लगने लगती है, जो अक्सर शिकायतों के सिवाय कुछ बाक़ी नहीं छोड़ती.
मैं जाने से पहले उन्हें फोन कर देती. फिर जब मैं वहां पहुंचती तो हम साथ-साथ चाय बनाते, अपने लिए रोटी या परांठा बनाते, साथ खाते, फिर साथ ही बर्तन धोकर भी रख देते. हमारी बातों का सिलसिला तो ऐसा चलता था कि सुबह से शाम हो जाती, मगर बातें फिर भी बची रह जातीं, जो अगली मुलाक़ात की वजह बन जातीं. तब तक अमृता जी का देहांत हो चुका था, मगर दुनिया के लिए, इमरोज़ साहब के लिए वे कभी ‘थीं’ नहीं बनीं, हमेशा ‘है’ ही रहीं, इसीलिए मुझे भी यही लगता हमेशा कि अमृता जी भी हमारे साथ मौजूद हैं हर लम्हे और जिस दम इमरोज़ साहब ख़ामोश हो जाते हैं, उस पल अमृता मुझसे कुछ कह रही हैं.
हम चाय बनाकर अपने प्याले उठाकर अक्सर गमलों के पास बैठ जाया करते थे छत पर ही. बहुत सारे गमले लगाए हुए थे इमरोज़ साहब ने. रोज़ाना दाना डालकर आस-पास के सारे कबूतरों से भी दोस्ती कर ली थी और उनसे भी ऐसे ही बात करते थे, जैसे मुझसे. उन सब की गुंटरगूं भी ख़ासी लंबी हुआ करती थी और दिलचस्प ये था कि वे सब आपस में एक-दूसरे की बोली समझें, न समझें, बात ज़रूर समझ जाया करते थे.
मैंने इमरोज़ साहब से मैंने कई बार पूछा कि अमृता जी तो इतनी बड़ी लेखक थीं, जो आता था, उन्हीं से मिलने आता था, कई बार लोग आपको नहीं भी जानते या पहचानते, तब आपको बुरा नहीं लगता था. उनका जवाब था, ‘यहां सिर्फ़ अमृता ही तो रहती है, मैं भी तो अमृता ही हूं, क्या मैं तुझे अलग दिखता हूं?’ क्या जवाब देती मैं. मुझे तो अपने सवालों का जवाब इन सवालों में ही मिल रहा था. अगर मोहब्बत करो तो या तो किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ. कैसे हुआ जाता है, ये तस्वीर मेरे सामने सांस ले रही थी.
अमृता जी के जाने के बाद इमरोज़ साहब भी कविताएं लिखने लगे थे. वे गुरुमुखी में लिखते थे. जब मैं जाती तो वे अपनी कविताएं पढ़कर सुनाते और मैं उन्हें देवनागरी, यानी हिंदी में लिख देती. एक बार जब उन्हें एक पुरस्कार मिला था तो उसके साथ कुछ रुपये भी थे. वे उन रुपयों से ढेर सारे फूलों वाले पौधे ख़रीद लाए और एक कुर्ता भी. उनका वह कुर्ता भी फीके रंगों का था. जब मैंने कहा कि कोई रंगीन-सा कुर्ता क्यों नहीं ख़रीदा तो कहने लगे, ‘मेरे पास पहले से ही तो इतने रंग हैं, बाहरी रंगों का क्या करूंगा. और अब तो अमृता भी धनक बनी रहती है.’
मुझे उन्हें तब देखना ज़्यादा अच्छा लगता था, जब वे मुझे न देख रहे हों और अपने काम में मशगूल हों. उनके बालों की एक लट अक्सर माथे पर गिरी रहती थी. चेहरे पर तब भी एक मुस्कुराहट होती थी, जब वे नहीं मुस्कुरा रहे होते थे. सचमुच वे कभी अकेले नहीं दिखते थे, अमृता हमेशा उनके चेहरे में झलकती थीं. सच कहा है किसी ने कि जब प्यार करने वाले साथ-साथ रहने लगते हैं तो वे दिखने भी एक जैसे लगते हैं.
एक बार मेरे जन्मदिन पर वे मेरे लिए ख़ामोशी से जाकर केक लेकर आ गए और अपनी पेंटिंग्स के ख़ज़ाने की तरफ़ इशारा करके कहा, ‘जा, अपना तोहफ़ा तू ख़ुद चुन ले.’ मैंने कहा, ‘तोहफ़ा भी कोई अपनी पसंद से चुना जाता है!’ बदले में उन्होंने कहा, ‘ज़रूरी नहीं कि हर बार दूसरे जो भी दें, उसे ही पसंद करने की आदत डाल ली जाए. तू अपनी ज़िंदगी में अब उन चीज़ों की जगह बना, जो तू चाहती है और जो न भाए, उन्हें अपने घर के किसी कोने या दीवारों तक पर जगह मत दे.’ मैं मान ली उनकी बात.
वे अक्सर कहा करते थे कि तू हमेशा मेरी ही सुनती है, अपना लिखा भी तो सुनाया कर और मैं कहती, ‘आपके पास तो मैं आती ही सुकून के लिए हूं, शोर क्यों साथ लाऊं.’ ये बात वाक़ई सच है. इमरोज़ साहब के पास जाकर और उनसे मिलकर आकर मैं बहुत दिनों तक दिलोदिमाग़ से शांत रहती थी. ग़ुस्सा कम हो जाता है, शिकायतें छुट्टी पर चली जातीं और दुनिया को क़त्ल करने का ख़्याल कुछ दिनों के लिए छूट जाता. जब ये तमाम बातें लौटने लगतीं तो मैं फिर जा पहुंचती इमरोज़ साहब की दुनिया में, जहां बेगरज़ मोहब्बत और इंसानियत अभी एक सांस लेती थी. इस सवाल पर हर बार मेरा यही जवाब सुनने के बाद एक बार उन्होंने कहा था, ‘सुकून बाहर भी मिलता है क्या!’
फिर बहुत-सी बातें हुईं. ये सिलसिला सालोंसाल चलकर एक ऐसी जगह आकर रुक गया, जहां इमरोज़ साहब तक पहुंचना आसान नहीं रह गया. वे अमृता जी की ख़ुशबू में रचे-बसे घर से निकलकर दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के एक आलीशान फ्लैट में पहुंच गए. अमृता जी का परिवार साथ था, लेकिन इमरोज़ की अमृता उस दरोदीवार में कहीं पीछे छूट गई थीं, जो घर उन्होंने अपने सपनों से बनाया-सजाया था.
फिर मुलाक़ातों की ये कड़ी टूटी और टूटती ही चली गई. बाद में कई बार फोन करने पर भी कोई फोन ही नहीं उठाता था. जहां से सारे सवालों के जवाब बिन पूछे मिल जाया करते थे, अब वहां की कोई ख़बर ही नहीं मिल रही थी. इस दुनिया में मोहब्बत रोज़ ब रोज़ घट रही है और मोहब्बत की दुनिया के दरवाज़े भी बंद हो गए, राहें भी खो गईं. दिल में शिकायतें, नफ़रतें, ग़ुस्सा और न बढ़ता जाए तो क्या हो, क्योंकि यही तो वह चीज़ है, जो दुनिया बिन मांगे भी रोज़ दे रही है.
फिर अचानक पिछले कई रोज़ से मैं इमरोज़ साहब को बहुत शिद्दत से याद कर रही थी, मगर साथ ही अजीब-सी बेचैनी भी लगी हुई थी. उनकी कोई ख़बर ही नहीं मिल रही थी. और फिर आज सुबह, इमरोज़ साहब दोबारा मिल गए, ख़ुद एक ख़बर बनकर कि आज सुबह इमरोज़ साहब का देहांत हो गया है. मैंने फिर फोन पर उतनी कोशिश की, जितनी कर सकती थी, पर आज भी वहां से कोई जवाब नहीं मिल रहा था, जहां से मैंने हमेशा अपने सारे जवाब पाए थे.
आख़िर हारकर मैंने गीतकार गुलज़ार साहब को फोन किया, क्योंकि सिर्फ़ इतना भर ही पता कर पाई थी कि इमरोज़ साहब का देहांत मुंबई में हुआ है. अगर वे मुंबई में थे तो गुलज़ार साहब के संपर्क में तो होंगे ही. उन्हें तो वे अपना ‘यार’ कहते थे. अफ़सोस कि गुलज़ार साहब को भी ये ख़बर मुझसे ही मिली और तब से वे भी बेचैनी से कोशिशों में लगे हैं कि अपने इस जाते दोस्त को आख़िरी सलाम तो कह दें.
सबकी कोशिशें अंजाम तक पहुंचें, शायद ये ज़रूरी नहीं होता. मेरे लिए इमरोज़ साहब भी कहीं नहीं गए. मैं हमेशा उनसे बातें करके सलाह लिया करती थी, अब वही सोच भी आगे हमेशा रास्ता दिखाएगी, जो उनसे साथ रहने पर भीतर कहीं जगह तो बना गई, लेकिन अक्सर गुम रहती है. अब जब-जब मैं चाहूंगी, इमरोज़ साहब से कुछ भी पूछ लिया करूंगी, क्योंकि जो न चाहने पर भी कुछ बताना चाहे, वह तो इमरोज़ हो ही नहीं सकता.
इमरोज़ वह हैं, जो रास्ता बताते नहीं, खुद रास्ता बन जाते हैं… और सच्ची मोहब्बतें की भी ख़ामोशी से जाती हैं, जी भी ख़ामोशी से जाती हैं और मरती भी ख़ामोशी से ही हैं. उनके मरने का किसी को पता ही नहीं चल पाता, इसीलिए हम माने रहते हैं कि मोहब्बतें कभी मरा नहीं करतीं.