कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नेहरू युग में संस्कृति और राजनीति, सारे तनावों और मोहभंग के बावजूद, सहचर थे जबकि आज संस्कृति को राजनीति रौंदने, अपदस्थ करने में व्यस्त है. बहुलता, असहमति आदि के बारे में सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रसार हो रहा है. व्यंग्य-विनोद-कटूक्ति-कॉमेडी पर लगातार आपत्ति की जा रही है.
इन दिनों हर दूसरे-तीसरे दिन जवाहरलाल नेहरू की कोई राजनेता फ़ज़ीहत करता है और उसके अक्सर निराधार आरोपों को उचित बनाने के लिए कुछ छद्म बुद्धिजीवी सामने आ जाते हैं. ये बुद्धिजीवी अक्सर बुद्धि से नहीं, हिंदुत्व से जीते हैं. उनमें से कभी किसी ने तथ्यों के आधार पर नेहरू जी का संस्कृति के साथ जो संबंध था उसकी पड़ताल की हो तो मुझे पता नहीं.
बहरहाल, नेहरू, औरों के अलावा, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उन चार बड़े राजनेताओं में से एक थे जो सांस्कृतिक हस्ती भी रखते थे: ब़ाकी तीन थे महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद और राममनोहर लोहिया. वे उस स्वतंत्रता-संग्राम में शामिल थे जो राजनीतिक के साथ-साथ सांस्कृतिक संघर्ष भी था. भारत के अतीत, उसकी परंपराओं और उसके भविष्य को लेकर चारों की दृष्टियां संस्कृतिमूलक थीं.
विभाजन के बाद बचे भारत की एकता और अखंडता बनाए रखना नेहरू जी की मूल चिंता थी. वे संस्कृति को राजनीति, आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया, भारत को किसी धर्म के वर्चस्व से अलग उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक बहुलता के स्वीकार और पोषण के प्रयत्न से अलग नहीं कर सकते थे, न करना चाहते थे. उनका संस्कृति-बोध एक ओर उनके इतिहास-बोध, गांधी-बोध, स्वतंत्रता-संग्राम-बोध, आधुनिकता-बोध और विश्वबोध से मिलकर बना था तो दूसरी ओर वह रसा-बिंधा था उनके लोकतंत्र, ज्ञान, विज्ञान और समाजबोध से. वह एक जटिल संरचना थी और उसे समकालीन परिस्थिति के संदर्भ में ही समझा जा सकता है.
नेहरू जी ने मौलाना आज़ाद के साथ मिलकर तीन साहित्य, ललित कला और संगीत नाटक राष्ट्रीय अकादमियां, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, फिल्म संस्थान की स्थापना की. तभी, जब वे आईआईटी, विज्ञान और टेक्नोलॉजी की कई संस्थाएं, प्रयोगशालाएं, परमाणु शक्ति आयोग, कई नाभिकीय संस्थाएं आदि स्थापित कर रहे थे. संस्कृति में उनका स्पष्ट लक्ष्य भारत की सांस्कृतिक बहुलता और विपुलता का स्वीकार-संवर्द्धन, भारत की सर्जनात्मक और बौद्धिक परंपराओं और आधुनिकता के संरक्षण-पोषण-विस्तार के लिए नई संस्थापरक पहल, पारम्परिक रूपों, नई कल्पना और नवाचार सभी को प्रोत्साहन देने का था. प्रौद्योगिक-निर्भर आधुनिक सभ्यता में जो ‘आध्यात्मिक ख़ालीपन’ उपजता है उसे भरने की उनकी कोशिश थी, पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार.
नेहरू जी के अधीन जो सांस्कृतिक कार्य और विकास हुए उनसे यह भी स्पष्ट हुआ कि लोकतंत्र में बिना राजनीतिक और विचारधारात्मक हस्तक्षेप के, सांस्कृतिक संरक्षण, विकास, पोषण, नवचार-विस्तार न केवल अपेक्षित है बल्कि संभव है. राष्ट्रीय संस्थानों को सच्ची स्वायत्तता दी गई और उसका उन दिनों पालन भी हुआ. इस स्थिति का गहरा संबंध नेहरू जी की लोकतांत्रिक संस्कृति की स्थापना और विकास से भी है. उनके बिना यह संभव ही नहीं था. इस नेहरूई लोकतांत्रिक संस्कृति के मूल तत्व थे: संसद की केंद्रीयता का सुनिश्चय, विपक्ष का सम्मान, असहमति, वाद-विवाद-संवाद की जगहें, संवैधानिक मूल्यों पर लगातार आग्रह, संघीय ढांचे का पोषण और सम्मान.
इन सब बातों को नेहरू जी से संबंधित कुछ प्रसंगों से बेहतर समझा जा सकता है. अपनी युवावस्था में इलाहाबाद नगर पालिका का अध्यक्ष चुने जाने पर उन्होंने इलाहाबाद म्यूज़ियम की स्थापना कराई. उनका हिंदी-उर्दू लेखकों से संबंध और संवाद था. उनकी आत्मकथा का हिंदी अनुवाद प्रेमचंद ने किया था. वे बनारस में जयशंकर प्रसाद के लिए आयोजित शोकसभा में शामिल थे. उन्होंने अज्ञेय की जेल में लिखी अंग्रेज़ी कविताओं के संचयन की भूमिका लिखी थी और दिनकर के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भमिका भी. बाद में नेहरू अभिनंदन ग्रंथ का संपादन अज्ञेय ने किया था.
राहुल सांकृत्यायन ने साम्यवादी होने के कारण उनके ग्रंथ ‘मध्य एशिया का इतिहास’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की जो बाधा या आपत्ति थी उसे नेहरू ने अकादमी के अध्यक्ष के रूप में खारिज कर पुरस्कार राहुल जी को ही दिया था. उन्होंने शिवमंगल सिंह सुमन की नोटबुक में लिखा था: ‘अपने जीवन को एक कविता बनाना चाहिए’. उन्होंने निराला जैसे कवि की माली हालत ख़राब होने के कारण उन्हें मासिक पेंशन देने का अनुरोध पत्र लिखकर किया और उसमें यह भी कहा कि आर्थिक सहायता महादेवी जी के मार्फ़त दी जाए क्योंकि उन्हें निराला के औधड़ दानी होने का पता था.
नेहरू जी की विश्वकीर्ति थी कि वे लेखकों-कलाकारों और उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं. युगोस्लाविया में टीटो ने जब असहमत मार्क्सवादी मिलोवन जिलास को जेल में डाल दिया था तो उनकी पत्नी ने नेहरू जी को पत्र लिखा और उनके हस्तक्षेप से जिलास को जेल में कई सुविधाएं और छूटें मिलीं.
रूसी कवि-उपन्यासकार बोरिस पास्तरनाक को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो सोवियत संघ ने उन्हें पुरस्कार लेने से रोक दिया और उनके रूस से निष्कासन की कार्रवाई शुरू कर दी गई. लंदन में ब्रिटिश साहित्यकार एल्डस हक्स्ले और स्टीफेन स्पेंडर ने एक अंतरराष्ट्रीय पास्तरनाक बचाव-समिति गठित की और नेहरू जी से उसका अध्यक्ष होने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया. उन्होंने उस समय रूस के असली शासक ख्रुश्चोव से दो आग्रह किए: पास्तरनाक को स्टाकहोम पुरस्कार लेने जाने दिया जाए और दूसरा कि उनके रूप से निष्कासन की कार्रवाई बंद की जाए. ख्रूश्चोव ने दूसरी बात मान ली, पहली नहीं.
व्लादिमीर नाबोकोव का उपन्यास ‘लोलिता’ अपनी तथाकथित अश्लीलता के लिए सारी दुनिया में विवादग्रस्त था. उसकी प्रतियों को, भारत आने पर, कस्टम अधिकारियों ने रोक लिया. एक प्रति नेहरू जी के कार्यालय में आई. उसे उन्होंने नहीं उनकी बेटी इंदिरा ने पढ़ा और उनकी सिफ़ारिश पर ‘लोलिता’ की प्रतियां पर लगी रोक हटा ली गई.
फ़िरोजशाह कोटला में खुले में जब इब्राहीम अलकाज़ी ने अपनी क्लासिक प्रस्तुति ‘अंधा युग’ की तो नेहरू जी उसे देखने गए थे. जब चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के नेतृत्व में कुछ युवा कलाकारों ने एक नया ग्रुप 1890 गठित किया जिसे उस समय में भारत में मैक्सिको के राजदूत और महान कवि-कलाविद् अक्तावियो पाज़ का भरपूर समर्थन था तो उसकी पहली प्रदर्शनी का उद्घाटन नेहरू जी ने किया था.
लियो तोलस्तोय की 50वीं पुण्यतिथि पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली में हुआ था. उसमें नेहरू जी के अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा था कि महानता कम से कम दो प्रकार की होती हैं: पहली जिसका सामना करने पर आप अपनी तुच्छता महसूस करते हैं और जो आपको आक्रांत करती है. दूसरी, जिसमें आप को लगता है कि आप उसमें शामिल हैं, वह आपको भी ऊपर उठाती है.
तोलस्तोय की महानता इस दूसरे प्रकार की थी. यह सुनते ही सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मैं वहां था. नेहरू जी के बाद स्टीफ़ेन स्पेंडर बोले और उन्होंने कहा कि सुप्रतिष्ठित पत्रिका ‘एनकाउंटर’ के संपादक के रूप में संसार भर के राजनेताओं और प्रधानमंत्रियों आदि से बाहर मिलते रहते हैं पर इस समय संसार में नेहरू के अलावा कोई और राजनेता नहीं है जो इस तरह से महानता की नई व्याख्या कर सके.
नेहरू युग में संस्कृति और राजनीति, सारे तनावों और मोहभंग के बावजूद, सहचर थे जबकि आज संस्कृति को राजनीति रौंदने, अपदस्थ करने में व्यस्त है. इन दिनों हमारी संस्कृति की बुनियादी प्रश्नवाचकता को दबाया-बाधित-दंडित किया जा रहा है. संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय राष्ट्रीय संस्थान, अकादमियां आदि एक संकीर्ण विचारधारा के प्रचार में लगाए जा रहे हैं. बहुलता, असहमति आदि के बारे में व्यापक सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रसार हो रहा है. व्यंग्य-विनोद-कटूक्ति-कॉमेडी पर लगातार आपत्ति की जा रही है.
दिलचस्प यह है कि नए निज़ाम ने एक भी नया सांस्कृतिक, बौद्धिक संस्थान नहीं बनाया है, न परंपरा का, न शास्त्र का, न संस्कृत का. जो थे उन्हें तोड़ा-मरोड़ा-पथभ्रष्ट-संकीर्ण किया है. आज हम अधकचरी परंपरा और अधकचरी आधुनिकता के बीच फंसे भारत होते जा रहे हैं. हमारी सांस्कृतिक विरासत और समकालीन अभिव्यक्ति दोनों ही संकटग्रस्त हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)