अब तक 16,000 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बिके, योजना चलाने में करदाताओं के 13.5 करोड़ ख़र्च हुए

स्टेट बैंक ने एक आरटीआई के जवाब में बताया है कि 2018 में चुनावी बॉन्ड योजना आने के बाद से 29 चरणों में 15,956.3096 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए हैं. बताया गया है कि दानदाताओं को बैंक को कोई सेवा शुल्क नहीं देना पड़ता, यहां तक कि बॉन्ड की छपाई लागत का भुगतान भी सरकार या करदाता वहन करते हैं.

(फोटो साभार: rupixen/Unsplash)

स्टेट बैंक ने एक आरटीआई के जवाब में बताया है कि 2018 में चुनावी बॉन्ड योजना आने के बाद से 29 चरणों में 15,956.3096 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए हैं. बताया गया है कि दानदाताओं को बैंक को कोई सेवा शुल्क नहीं देना पड़ता, यहां तक कि बॉन्ड की छपाई लागत का भुगतान भी सरकार या करदाता वहन करते हैं.

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नई दिल्ली: साल 2018 में जब से सरकार ने चुनावी बॉन्ड को मंजूरी देने वाला कानून पारित किया है, तब से 15,956.3096 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बेचे गए हैं. यह 29 चरणों में हुआ है.

लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने पारदर्शिता कार्यकर्ता और पूर्व सैनिक कोमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा दायर सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत एक याचिका के जवाब में यह जानकारी दी है.

चुनावी बॉन्ड जारी करने के लिए अधिकृत भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने सरकार से ‘चुनावी बॉन्ड योजना के प्रबंधन और संचालन के लिए कमीशन, मुद्रण और अन्य खर्चों’ के लिए 13.50 करोड़ रुपये का शुल्क लिया है.

लोकेश बत्रा ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, ‘योजना की विडंबना यह है कि दानदाताओं को एसबीआई को कोई सेवा शुल्क (कमीशन) नहीं देना पड़ता है, यहां तक कि बॉन्ड की छपाई लागत का भुगतान करने की भी जरूरत नहीं होती, सरकार या करदाता यह लागत वहन करते हैं. अपारदर्शी चुनावी बॉन्ड योजना 2018 के माध्यम से राजनीतिक दल गुमनाम कर-मुक्त फंडिंग के लेनदेन में सक्षम हो जाते हैं.’

आरटीआई से यह भी पता चला है कि बेचे गए कुल बॉन्ड में से 23.8874 करोड़ रुपये के 194 बॉन्ड भुनाए नहीं गए और अंततः प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (पीएमएनआरएफ) में ट्रांसफर हो गए. अप्रैल 2017 से मार्च 2022 के बीच पीएमएनआरएफ को 2,065.69 करोड़ रुपये प्राप्त हुए.

राजनीतिक दलों को वित्तपोषण के ये विवादास्पद स्रोत अपारदर्शी होने और संभवतः राजनीतिक दलों को बेहिसाब धन प्रदान करने के चलते कार्यकर्ताओं और विपक्षी दलों की आलोचनाओं के निशाने पर रहे हैं. पहले, किसी कंपनी द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले धन के अनुपात की एक सीमा थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. याचिका दायर होने के चार साल बाद सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में मोदी सरकार ने बड़े कॉरपोरेट दानदाताओं से लेकर राजनीतिक दलों की निजता के अधिकार की रक्षा करने की गुहार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने 2 नवंबर, 2023 को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का इस संबंध में कहना है, ‘एसजी का यह तर्क सुनना परेशान करने वाला था कि नागरिकों को दाताओं/प्राप्तकर्ताओं की पहचान जानने का कोई अधिकार नहीं है. यह बयान एक बनाना लोकतंत्र के लिए उपयुक्त होगा, न कि विश्वगुरु बनने की चाहत रखने वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए.’

2018 में चुनावी बॉन्ड योजना शुरू होने के बाद से भाजपा चुनावी बॉन्ड से सबसे अधिक धनराशि प्राप्त करने वाली पार्टी बनी हुई है. ब्लूमबर्ग के अनुसार, चुनावी बॉन्ड फंड में उसे 9,200 करोड़ रुपये में से 57 फीसदी मिला है, जबकि कांग्रेस को 10 फीसदी मिला है.

चुनावी बॉन्ड को लेकर क्यों है विवाद

चुनाव नियमों के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2,000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है.

हालांकि, चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है. अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी. इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ. इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है.

इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों (जैसे चेक इत्यादि) से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है.

चुनावी बॉन्ड योजना को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने साल 2017 में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया था. चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स इन्हीं संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.

इसकी याचिका में कहा गया है कि इन संशोधनों की वजह से विदेशी कंपनियों से असीमित राजनीतिक चंदे के दरवाजे खुल गए हैं और बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधता प्राप्त हो गई है. साथ ही इस तरह के राजनीतिक चंदे में पूरी तरह अपारदर्शिता है.

याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इनके परिणामस्वरूप हितों के टकराव की संभावनाएं बढ़ेंगी और काले धन और भ्रष्टाचार में भी भारी वृद्धि होगी. याचिकाकर्ताओं का यह भी दावा है कि इससे शेल कंपनियों बनाई जाएंगी और भारत में राजनीतिक और चुनावी प्रक्रिया में बेनामी धन का लेनदेन भी बढ़ेगा.

चुनावी बॉन्ड पर उतरे रहे हैं सवाल 

कई ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट, संगठन और राजनीतिक दल वर्षों से इन बॉन्ड की ‘अपारदर्शिता’ और दानदाताओं की पहचान गुप्त रहने को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं.

ज्ञात हो कि चुनावी बॉन्ड ब्याज मुक्त वित्तीय साधन हैं जिनका उपयोग व्यक्ति या समूह राजनीतिक दलों को गुमनाम दान देने के लिए कर सकते हैं. इन्हें चेक या डिजिटल माध्यम से भुगतान के बाद अधिकृत एसबीआई शाखाओं द्वारा 1,000 रुपये से 1 करोड़ रुपये के बीच अलग-अलग राशि में जारी किया जाता है. कैश के जरिये भुगतान की अनुमति नहीं है.

चुनावी बॉन्ड प्राप्त करने के लिए पार्टियों को पंजीकृत होना चाहिए और पिछले संसदीय या विधानसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट प्राप्त किया होना चाहिए. केंद्र सरकार ने 2017 में इस योजना का प्रस्ताव देते हुए कहा था कि यह भारत में राजनीतिक दलों की फंडिंग के तरीके में जरूरी पारदर्शिता लाएगी.

हालांकि, योजना के आलोचकों का तर्क है कि चंदे की गुमनाम प्रकृति राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी के जनता के अधिकार का उल्लंघन करती है. उन्होंने यह भी चिंता जताई है कि केंद्र सरकार चुनावी बॉन्ड दाताओं की पहचान के बारे में एसबीआई डेटा तक पहुंच सकती है.

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