सीजेआई का इंटरव्यू याद दिलाता है कि वाक्चातुर्य कला है और कोई उसका माहिर हो सकता है लेकिन क्या वह ईमानदारी से बोल रहा है? चतुर वक्ता पक्ष चुनते हैं या दिए हुए पक्ष के लिए तर्क जुटाते हैं. वे यह कहकर अपने कहे की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते कि पक्ष उनका नहीं. हम जानते हैं कि उन्होंने अपना पक्ष चुना है.
वर्षांत पर भारत के मुख्य न्यायाधीश का इंटरव्यू सुनते हुए मुझे अरसा पहले की सीख याद आई: वाक्पटु होने का अर्थ यह नहीं कि आप ईमानदार वक्ता भी हों. वाक्चातुर्य कला है और कोई उसका माहिर हो सकता है लेकिन क्या वह सच भी बोल रहा है या ईमानदारी से बोल रहा है? इसीलिए मैं अक्सर अपने छात्रों को ‘डिबेटर’ होने के ख़तरों से सावधान करता हूं.
हमारे स्कूलों में ‘डिबेटिंग’ में वाणी की नैतिकता की कोई शिक्षा नहीं दे जाती. वक्ता किसी मसले के पक्ष और विपक्ष में एक जैसी पटुता के साथ तर्क दे सके, यही सिखलाया जाता है. पक्ष महत्त्वपूर्ण नहीं होता.
लेकिन पक्ष महत्त्वपूर्ण होता है. चतुर वक्ता पक्ष चुनते हैं या दिए हुए पक्ष के लिए तर्क जुटाते हैं. वे यह कहकर अपने कहे हुए की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते कि पक्ष उनका नहीं, उनका काम तो सिर्फ़ तर्क जुटाना था. हम जानते हैं कि उन्होंने अपना पक्ष चुना है. डिबेटर इसे अपने पेशे की अनिवार्यता कहकर मुक्त हो जाता है. वह अक्सर अपने कहे हुए की, जो कि उसका कर्म है, ज़िम्मेदारी नहीं लेता.
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ से कई सवाल किए गए. उनमें अयोध्या की ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर राम मंदिर बनाए जाने के उनके फ़ैसले से जुड़ा सवाल भी था. सबसे बड़ा सवाल यह था कि उस फ़ैसले पर उसे लिखने वाले न्यायाधीश का नाम क्यों नहीं था. इसके जवाब में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि वह पूरी पीठ का सर्वसम्मत फ़ैसला था इसलिए पीठ ने उसे लिखने वाले का नाम न देने का निर्णय किया.
लेकिन यह बात इसलिए नहीं जमती कि अदालत की यह परंपरा नहीं है. न इस फ़ैसले के पहले, न इसके बाद इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण मिलता है. लेखक के अपना नाम न देने का एक कारण विनम्रता हो सकता है. दूसरा कायरता.
हम पिछले उदाहरणों से जानते हैं कि विनम्रता का आरोप आप प्रायः न्यायमूर्तियों पर नहीं लगा सकते. इतने महत्त्वपूर्ण मामले को सुलझा लेने का संतोष काफी नहीं होता. उसका श्रेय लेने के लोभ का संवरण क्यों किया गया? या मसला यह था कि यह फ़ैसला ही ऐसा था कि कोई भी न्यायाधीश यह नहीं चाहता था कि भविष्य में उसे इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए.
इसका कारण यह है कि यह फ़ैसला, जैसा गौतम भाटिया और सुहृथ पार्थसारथी ने लिखा था, मत्स्य न्याय का एक उदाहरण है. विधिवेत्ताओं ने इस फ़ैसले का विश्लेषण करते हुए कहा कि यह ‘जो ताकतवर है, अधिकार उसी का है और कमजोर को सिर्फ़ बर्दाश्त करना है’ के सिद्धांत पर टिका हुआ है. चूंकि हिंदू लंबे समय तक मस्जिद के भीतरी हिस्से को लेकर अपना दावा करते रहे जिसमें बीच-बीच में हिंसा करना भी शामिल था, अदालत ने माना कि उस हिस्से पर उनका हक़ बन जाता है. कम से कम वह जगह विवादग्रस्त हो जाती है.लेकिन चूंकि मुसलमानों ने मस्जिद के बाहरी हिस्से को लेकर जिसपर हिंदुओं का क़ब्ज़ा हो गया था, हिंदुओं की तरह ज़िद नहीं की, अदालत ने यह माना कि उनकी उतनी रुचि उस हिस्से में नहीं थी. और इसलिए वह विवादित भी नहीं है. लेकिन हिंदू चूंकि मस्जिद के भीतरी हिस्से को देखकर पूजा करते रहे, उनकी रुचि उसमें थी, यह मान लिया गया. दूसरी तरफ़ मुसलमान बाहरी हिस्से की तरफ़ देखकर इबादत नहीं कर रहे थे. यानी उनकी दिलचस्पी उसमें न थी. इस तरह के कुतर्कों या चतुर तर्कों से फ़ैसला भरा हुआ है.
अदालत ने अपने तर्कों से दो ग़ैर-बराबर पक्ष तैयार किए और हिंदुओं को मुसलमानों से ज़्यादा वजन दिया. फिर यह मानते हुए भी 1949 में मस्जिद के भीतर चोरी-चोरी मूर्ति रखना और 6 दिसंबर, 1992 को मस्जिद गिराना अपराध था, अदालत ने गिराई हुई मस्जिद की ज़मीन उसे ढहानेवालों के हवाले कर दी. अदालत के तर्क के मुताबिक़ ये दोनों अपराध भी हिंदुओं की मस्जिद में दिलचस्पी के उदाहरण ही माने जाने चाहिए. इनके ज़रिये हिंदू यही साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि वे इस जगह को इतना चाहते हैं कि उसे हासिल करने के लिए बार-बार अपराध कर सकते हैं. अदालत मस्जिद की ज़मीन को लेकर हिंदुओं की इस प्रतिबद्धता से बहुत प्रभावित हुई और उसने तय किया कि उनका दावा मज़बूत है.
इसके साथ ही बार-बार यह कहने के बावजूद कि वह अपना फ़ैसला किसी समुदाय की आस्था और विश्वास के आधार पर नहीं दे रही, आख़िरकार उसने अपना निर्णय हिंदुओं की आस्था के आधार पर ही किया. आस्था यह कि यह भूमि रामजन्मभूमि है. उस आस्था का वजन इसके यथार्थ के मुक़ाबले कि वहां एक ज़िंदा मस्जिद थी, ज़्यादा माना गया.
फ़ैसले में यह भी कहा गया कि फ़ैसले का मक़सद मुल्क में अमन-चैन क़ायम करना है. इसलिए कमज़ोर को शहज़ोर की बात मान लेनी चाहिए. जो दबंग है उसे शांत करने के लिए उसकी मांग मान लेनी चाहिए.
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि यह मामला बहुत पुराना, लंबा और पेचीदा था और उन्हें संतोष है कि उन्होंने इसे एक मुक़ाम तक पहुंचाया. लेकिन यह सवाल बचा रह जाता है कि क्या यह फ़ैसला इंसाफ़ कर पाया. और क्या इसने अमन-चैन क़ायम किया?
इसका जवाब सामने है. बाबरी मस्जिद की ज़मीन राम के अभिभावकों को सुपुर्द करने के बाद न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपनी कल्पनाशीलता के सहारे ज्ञानवापी मस्जिद को विवादित बना दिया. उन्होंने कहा कि आख़िर किसी की उत्सुकता यह जानने की तो हो ही सकती है कि मस्जिद के अंदर क्या है. इस उत्सुकता को शांत करना उसका अधिकार है, इसलिए मस्जिद का सर्वेक्षण किया जा सकता है. उत्सुकता शांत करने के क्रम में अगर दावेदार मस्जिस के वजूखाने के फ़व्वारे को शिवलिंग मान ले, तो उसका भी सम्मान किया जाना चाहिए. इस रास्ते चलकर अब मथुरा की शाही मस्जिद को भी उत्तर प्रदेश का उच्च न्यायालय सर्वेक्षण के लिए खोल रहा है.
तो न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बाबरी मस्जिद में अमन-चैन के लिए जिस पूरे इंसाफ़ का सिद्धांत लेते हुए न्याय को सिर के बल खड़ा कर दिया, वह अमन-चैन क़ायम न हो और कड़ाह हमेशा खौलता रहे, इसका भी इंतज़ाम उन्होंने कर दिया है.
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को इसका श्रेय भी मिलेगा कि उन्होंने इस देश के संघीय ढांचे की चूल हिला दी है. जम्मू कश्मीर मामले में अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने के कदम को तो उन्होंने जायज़ ठहराया और इसी की उनसे उम्मीद थी. लेकिन एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने यह फ़ैसला भी दिया कि संघीय सरकार चाहे तो किसी भी राज्य को तोड़ सकती है, उसके भीतर से केंद्र शासित प्रदेश बना सकती है. इस एक निर्णय ने भारत को एकदम अनिश्चय में डाल दिया है और राज्यों को केंद्र की मर्ज़ी का ग़ुलाम बना दिया है.
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ कुशल वक्ता हैं और उनके सारे वक्तव्य सामयिक राजनीति के मिज़ाज को सहलाने वाले होते हैं. लेकिन अदालत में वे सरकार को असुविधा में नहीं डालना चाहते. वे यह चाहते हैं कि लोग निर्णय लेने वालों पर भरोसा करें. लेकिन निर्णय लेने वालों का आचरण भरोसा नहीं पैदा करता. यह सवाल बचा हुआ है कि इस सरकार के सारे आलोचकों की ज़मानत के मामले वे एक विशेष न्यायाधीश के पास क्यों भेज रहे हैं. इसका जवाब यह नहीं है कि उनके फ़ैसले पर हमें भरोसा करना चाहिए.
मुख्य न्यायाधीश बड़े दिन पर कैरोल गा सकते हैं, विकलांग लोगों की कैंटीन बना सकते हैं और इससे उन्हें तालियां मिलेंगी. लेकिन उनका काम इंसाफ़ करना है. बहुत दिन नहीं हुए उन्होंने अपने एक व्याख्यान में यह कहा था कि बहुसंख्यकवाद के समय सबसे बड़ी अदालत की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है. उस समय हमें नहीं मालूम था कि इस बात का मतलब यह है कि अदालत संविधान की व्याख्या इस तरह करेगी कि बहुसंख्यकवाद संवैधानिक दिखलाई पड़ने लगेगा. वह आख़िरकार अमन-चैन तो क़ायम कर ही देता है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)