स्मृति शेष: जेपीएस ओबेरॉय को जो बात उन्हें अलग करती थी, वो थी समाजशास्त्रीय अध्ययन को सिर्फ भारत की सीमाओं तक महदूद न करने की उनकी अनवरत कोशिश. उन्होंने अपने सहयोगियों और छात्रों को भी भारत के अलावा एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय समाजों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. इसी क्रम में, ओबेरॉय ने डीयू के समाजशास्त्र विभाग में ‘यूरोपियन स्टडीज़ प्रोग्राम’ की भी शुरुआत की.
आधुनिकता, भारतीय समाज, सिविल सोसाइटी, विज्ञान व संस्कृति के अध्येता और प्रख्यात समाजशास्त्री जितेंद्र पाल सिंह ओबेरॉय का 3 जनवरी 2024 को निधन हो गया. लगभग सात दशक लंबे अपने अकादमिक जीवन में उन्होंने समाज को समझने की विशिष्ट सैद्धांतिकी विकसित की, जिसमें न तो पश्चिमी सिद्धांतों के प्रभुत्व के लिए कोई स्थान था और न ही देशज दिखने का अतिरिक्त आग्रह. अकारण नहीं कि समाजशास्त्रीय सिद्धांतों और अवधारणाओं को वे अनुभव और विवेक की कसौटी पर निरंतर आजमाते रहे.
अकादमिक यात्रा
सहयोगियों, मित्रों और छात्रों के बीच ‘जेपीएस’ के नाम से चर्चित जीत ओबेरॉय वर्ष 1934 में लाहौर में पैदा हुए. महज़ तेरह बरस की उम्र में वे विभाजन की त्रासदी के गवाह बने और लाखों विस्थापित परिवारों की तरह उनका परिवार भी बंटवारे के बाद भारत आया.
पचास के दशक के आरंभ में जीत ओबेरॉय इंग्लैंड गए, इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने. वहां उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन से वर्ष 1955 में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की. लंदन में रहने के दौरान ही छुट्टियों में कपड़े की एक फर्म में अस्थायी रूप से काम करते हुए जीत ओबेरॉय की मुलाक़ात समाजशास्त्र के शोधार्थी बेसल बर्नस्टाइन से हुई और इस मुलाक़ात ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी.
बर्नस्टाइन, जो ख़ुद भी आगे चलकर समाजशास्त्री बने, से हुई चर्चाओं ने जीत ओबेरॉय की रुचि समाजशास्त्र में पैदा की. इसके अलावा विक्टर टर्नर के सानिध्य ने भी उन्हें समाजशास्त्र में ही अपना भविष्य तलाशने को प्रेरित किया.
इंजीनियरिंग से समाजशास्त्र की ओर
इस तरह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके जीत ओबेरॉय मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ सोशल एंथ्रोपोलॉजी में शोध छात्र के रूप में दाख़िल हुए. जहां उन्होंने वर्ष 1955 से 1958 के दौरान प्रोफेसर मैक्स ग्लकमान के निर्देशन में काम किया. इसी दौरान उन्होंने मेलेनेशियाई समाज पर ब्रानिस्लाव मैलिनोवस्की के काम को आधार बनाकर शोध-प्रबंध लिखा, जो 1962 में मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से ‘पॉलिटिक्स ऑफ द कुला रिंग’ शीर्षक से पुस्तक रूप में छपा.
दिलचस्प है कि इस किताब को अंतिम रूप देते समय स्वयं जीत ओबेरॉय काबुल में थे और इस किताब की भूमिका ख़ुद मैक्स ग्लकमान ने लिखी थी.
उल्लेखनीय है कि ब्रानिस्लाव मैलिनोवस्की ने मेलेनेशियाई समाज में प्रचलित उपहार विनिमय की अवधारणा (‘कुला’) का विस्तृत अध्ययन वर्ष 1922 में प्रकाशित अपनी क्लासिक कृति ‘आर्गोनॉट्स ऑफ द वेस्टर्न पेसिफिक’ में प्रस्तुत किया था. अपने इस अध्ययन के लिए मैलिनोवस्की ने वर्ष 1914 से 1918 के दौरान फील्ड-वर्क़ किया था. मैलिनोवस्की द्वारा संकलित तथ्यों और विवरणों को ही जीत ओबेरॉय ने अपने इस अध्ययन का आधार बनाया.
जहां मैलिनोवस्की का ज़ोर ‘कुला’ की संस्था को उपहार और विनिमय की एक प्रणाली के रूप में समझने और उसमें अंतर्निहित मनोविज्ञान को विश्लेषित करने पर था. वहीं जीत ओबेरॉय ने कुला के राजनीतिक पहलू पर ज़ोर देते हुए उसे एक राज्यविहीन लघु समाज के राजनीतिक संगठन के रूप में देखा.
आगे चलकर जीत ओबेरॉय आस्ट्रेलिया गए, जहां कैनबरा स्थित आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी से उन्होंने वर्ष 1964 में अपनी पीएचडी पूरी की. दिलचस्प है कि उनका शोधग्रंथ भारत के किसी इलाक़े या समुदाय पर आधारित नहीं था, बल्कि उन्होंने अफग़ानिस्तान के अंदरब घाटी के ताजिकों के सामाजिक संगठन पर काम किया.
अन्य भारतीय समाजशास्त्रियों से जो बात जीत ओबेरॉय को अलग करती थी, वह थी समाजशास्त्रीय अध्ययन को सिर्फ भारत की सीमाओं तक महदूद न करने की उनकी अनवरत कोशिश. दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में रहते हुए उन्होंने अपने सहयोगियों और छात्रों को भी भारत के अलावा एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय समाजों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. इसी क्रम में, जीत ओबेरॉय ने दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में ‘यूरोपियन स्टडीज़ प्रोग्राम’ की भी शुरुआत की.
अपने अध्यापकीय जीवन का आरंभ उन्होंने मेलबर्न स्थित मोनाश यूनिवर्सिटी से किया, जहां वे 1963 से 1966 तक अध्यापन करते रहे. उनके भारत वापस आने में समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास की बड़ी भूमिका थी, जिनसे पचास के दशक में ही जीत ओबेरॉय मिल चुके थे. भारत में आने के बाद वे शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो बने, जहां संस्थान के तत्कालीन निदेशक इतिहासकार निहाररंजन राय से वे गहरे प्रभावित हुए.
दो साल बाद ही वर्ष 1968 में वे दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के समाजशास्त्र विभाग में रीडर के रूप में नियुक्त हुए. सालभर बाद ही वर्ष 1969 में वे प्रोफेसर बने और अगले तीस वर्षों तक बतौर प्रोफेसर उन्होंने दिल्ली स्कूल में अध्यापन किया. वर्ष 2011 में उन्हें इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा ‘लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया गया.
यूरोपीय आधुनिकता की पड़ताल
वर्ष 1991 में जर्मनी स्थित ओल्डेनबर्ग यूनिवर्सिटी के आमंत्रण पर उन्होंने कार्ल यास्पर्स व्याख्यानमाला के अंतर्गत ‘द अदर यूरोप एंड इट्स आर्ट्स एंड साइंसेज़ फॉर द वर्ल्ड’ विषय पर व्याख्यान दिए. उनके ये विचारोत्तेजक व्याख्यान ‘द यूरोपियन मॉडर्निटी’ शीर्षक से वर्ष 2002 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए. इस पुस्तक में उन्होंने यूरोपीय आधुनिकता की चर्चा करते हुए दो यूरोपीय संसारों की बात की है, एक तो प्रबोधन और पुनर्जागरण का यूरोप और दूसरा वह यूरोप, जिसे वे ‘भूमिगत यूरोप’ (अंडरग्राउंड यूरोप) कहते हैं. यह दूसरा यूरोप उस प्रबुद्ध यूरोप के ‘अन्य’ की तरह था, जिसे उसने अराजक, प्रतिक्रियावादी, विधर्मी और द्रोही कहकर लगातार नकारने की कोशिश की.
यह दूसरा यूरोप अपने में आधुनिकता की एक वैकल्पिक परंपरा को समाहित किए हुए था. यह वैकल्पिक परंपरा दांते से लेकर गेटे जैसे विचारकों में दिखाई पड़ती है. इसी संदर्भ में जीत ओबेरॉय ईश्वर, प्रकृति और मनुष्य की त्रयी के जटिल अंतरसंबंधों को लेकर आधुनिकता के ऊहापोह को विश्लेषित करते हैं. यूरोप के इस द्वैध को ‘निर्द्वंद्व भाव’ से समझने का प्रयास भी जीत ओबेरॉय करते हैं.
उल्लेखनीय है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के क्रम में इस निर्द्वंद्व (नॉन-ड्युअलिस्ट) दृष्टिकोण की महत्ता की चर्चा उन्होंने अनेक जगहों पर की है.
धर्म, राज्य और नागरिक समाज
अस्सी और नब्बे के दशक में ही उन्होंने धर्म, राज्य और नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) के अंतरसंबंधों का गहराई से अध्ययन शुरू किया, जिसकी बानगी सिख धर्म पर आधारित उनकी पुस्तक ‘रिलीजन, सिविल सोसाइटी एंड द स्टेट’ में देखने को मिलती है. उनके अनुसार, धर्मों के बीच सह-अस्तित्व, परस्पर संवाद और विचार-विनिमय मानवता और नागरिक समाज की दृष्टि से बिलकुल सहज परिघटना है, कोई अपवाद नहीं.
वे सिख धर्म में अंतर्निहित शहादत की अवधारणा को भी रेखांकित करते हैं. आश्चर्य नहीं कि इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय शहादत, अहिंसा और क्रांति पर केंद्रित है. जिसमें जीत ओबेरॉय बीसवीं सदी के तीसरे दशक के आरंभ में पंजाब में हुए गुरुद्वारा आंदोलन और अकालियों के संघर्ष के बारे में महात्मा गांधी के विचारों को विश्लेषित करते हैं. इसी क्रम में वे मार्च 1921 में ननकाना साहब में घटित त्रासदी के संदर्भ में गांधी द्वारा सिखों को दिए गए संदेश में अंतर्निहित शहादत और सत्याग्रह के विचारों को वे चिह्नित करते हैं.
विज्ञान, समाज और संस्कृति
जीत ओबेरॉय ने जर्नल ऑफ एशियन स्टडीज़, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, कांट्रिब्यूशंस टू इंडियन सोशियोलॉजी, सोशियोलॉजिकल बुलेटिन, इंडियन फिलॉसाफिकल क्वाटरली, गांधी मार्ग जैसी पत्रिकाओं में भी समय-समय पर लेख लिखे. चार वर्ष पूर्व 2019 में उनके ऐसे ही लेखों का संकलन ‘माइंड एंड सोसाइटी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसका संपादन ख़ालिद तैयबजी ने किया है.
ये लेख तीन समूहों में बंटे हुए हैं. पहले समूह में वे लेख हैं जिनमें उन्होंने स्वराज, राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद जैसी अवधारणाओं के बारे में लिखा है. दूसरे समूह में ऐसे लेख हैं, जिनमें वे आधुनिक पाश्चात्य चिंतन का समाजशास्त्रीय नज़रिये से विश्लेषण करते हैं. तीसरे समूह के लेखों में वे भारत की देशज आधुनिकता की चर्चा करते हैं जिसमें वे विज्ञान और स्वराज की बात करते हुए सांस्कृतिक अस्मिता और प्रबोधन को रेखांकित करते हैं. स्वराज की चर्चा के क्रम में वे स्वधर्म की भी बात करते हैं.
संस्कृति की अवधारणा के संदर्भ में उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इसमें ज्ञान-विज्ञान की प्रणालियों को भी समाहित करना चाहिए. उन्होंने समाजशास्त्रीय अध्ययन की उस प्रवृत्ति की आलोचना की जिसमें संस्कृति और मानव-समाज के अध्ययन के क्रम में उत्पादन की प्रक्रियाओं और मानव-श्रम का संज्ञान नहीं लिया जाता था.
विज्ञान और संस्कृति से जुड़ी अपनी स्थापनाओं के संदर्भ में वर्ष 1978 में प्रकाशित पुस्तक ‘साइंस एंड कल्चर’ में जीत ओबेरॉय ने लिखा कि यह सैद्धांतिकी उन्होंने अपने अनुभवों से विकसित की है. विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के छात्र के रूप में जहां उन्हें प्रयोगशाला और इंग्लैंड के कारखानों का प्रत्यक्ष अनुभव हासिल हुआ, वहीं समाजशास्त्र के शोधार्थी के रूप में उन्होंने पुस्तकालयों और फील्ड-वर्क़ के अंतर्गत समाज के अनुभव हासिल किए, जिसने उनकी समझ को समृद्ध किया.
विज्ञान और संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में पाश्चात्य विचारों के प्रभुत्व से भी वे अवगत थे, इसीलिए उन्होंने गैर-पश्चिमी दृष्टि से विज्ञान और सभ्यता, ज्ञान और समाज के अंतरसंबंधों को समझने, नई-पुरानी सैद्धांतिकी को विवेक और तर्क की कसौटी पर कसने पर बल दिया. उन्होंने विश्वविद्यालय की परिधि के भीतर और बाहर, विज्ञान और कला के दायरे में ज्ञान की उन सभी प्रविधियों को, चाहे वे यूरोपीय हों या ग़ैर-यूरोपीय, स्वीकार करने पर ज़ोर दिया, जिन्हें अब तक अनदेखा किया जाता रहा था.
विज्ञान और संस्कृति, मनुष्य और प्रकृति की एक ऐसी ही विचारोत्तेजक पड़ताल उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द अदर माइंड ऑफ यूरोप’ में की है, जो वर्ष 1984 में छपी. इस पुस्तक में उन्होंने महान जर्मन कवि, उपन्यासकार और नाटककार गेटे (1749-1832) को एक वैज्ञानिक के रूप में देखा. उनके अनुसार, अपने विज्ञान संबंधी लेखन में गेटे मनुष्य और प्रकृति, स्व और अन्य के विज्ञान को विश्लेषित करते रहे. जीत ओबेरॉय दिखाते हैं कि अपने प्रेक्षणों, विवरणों, तुलनाओं और व्याख्याओं के ज़रिये गेटे परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली चीजों में एकत्व तलाशते रहे और इस तरह विज्ञान की एक वैकल्पिक प्रविधि गढ़ते रहे.
विज्ञान, धर्म, राज्य और समाज को विश्लेषित करने वाले इस दिग्गज समाजशास्त्री को नमन!
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)