राष्ट्रीय चेतना के पर्याय थे स्वामी अभयानंद

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कई विचारधाराओं के लोगों ने अपने-अपने तरीकों से मोर्चा लिया था. इनमें कई गुमनाम बने रहे, पर जिनके बारे में कुछ जानकारियां भीं थीं, उन पर भी बहुत कुछ नहीं लिखा जा सका. स्वामी अभयानंद भी उन्हीं में से एक थे.

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स्वामी अभयानंद. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कई विचारधाराओं के लोगों ने अपने-अपने तरीकों से मोर्चा लिया था. इनमें कई गुमनाम बने रहे, पर जिनके बारे में कुछ जानकारियां भीं थीं, उन पर भी बहुत कुछ नहीं लिखा जा सका. स्वामी अभयानंद भी उन्हीं में से एक थे.

स्वामी अभयानंद. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सभी वर्गों के लोगों ने योगदान दिया और इसीलिए कहा भी जाता है कि राष्ट्र निर्माण के योगदान में किसी एक समुदाय, धर्म, संस्था, पार्टी, व्यक्ति अथवा विचार को ही सर्वतोभावेन सहायक पुंज नहीं माना जा सकता बल्कि यह ‘संगच्छध्वं संवदध्वं’ की मान्यता को सिद्ध करने वाला संग्राम था. इस संग्राम में कई विचारधाराओं के लोगों ने अपने-अपने तरीकों से मोर्चा लिया. इन मोर्चाधारियों में कई गुमनाम थे और जिनके बारे में कुछ जानकारियां भीं थीं, लेकिन उन पर बहुत कुछ नहीं लिखा जा सका.

भोजपुरी लोक और इस भाषा के लोग देश-विदेश जहां भी हैं वहां पूर्वी गीत सुने जाने हैं. भोजपुरी की पूर्वी विधा के जनक महेंद्र मिसिर थे, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे. उनके गीतों में भी राष्ट्रीयता की झलक मिलती है. अंग्रेजी सरकार के खिलाफ फर्जी नोट छापने की घटना तो अत्यंत प्रसिद्ध ही है. मिसिर के प्रेरणापुंज थे ‘स्वामी अभयानंद’. दुखद है कि महेंद्र मिसिर पर लेख आदि लिखने वालों ने स्वामी जी का नाम तक भी उल्लेख न किया है. आप गूगल पर कई आलेख पाएंगे पर, स्वामी जी की चर्चा नहीं की गई है.

स्वामी जी के संबंध में कुछ अधिक तो ज्ञात नहीं है. वैसे भी प्रायः साधु-संतों के संबंध में अल्प ज्ञाति ही होती है. स्वामी जी का जन्मभूमि ग़ाज़ीपुर जनपद के चौसा तहसील के डेढ़गावां ग्राम में था. पिता बाबू पंडित अभिलेख राय क्षेत्र के जाने-माने जमींदार किसान रहे, जिनके ये बड़े पुत्र थे. तरुणवय में ही किसी दशनामी संन्यासी के प्रभाव में संन्यस्त हो गए.

डॉ. जौहर शाफियाबादी ने महेंद्र मिसिर पर केंद्रित ऐतिहासिक भोजपुरी उपन्यास ‘पूर्वी के धाह’ में स्वामी जी का विस्तार से चर्चा किया है. डॉ. शाफियाबादी ने स्वामी जी के यज्ञ और भोजपुरी आंदोलन के नाम से राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में लिखा है:

‘स्वामी अभयानंद के शिष्यों में सभी जाति, वर्ग और धर्म के लोग थे. यज्ञ तो विष्णु महायज्ञ के नाम से होता था किंतु अन्य यज्ञों से भिन्न होता था. वह मूलरूप से भारत माता महायज्ञ होता था. इसमें मुस्लिम विद्वान भी प्रवचन करते और श्रोता में भी सभी समुदायों के लोग शामिल होते रहे. राष्ट्रीय एकता और सर्वधर्म समभाव और मानवीय चेतना के कथा-प्रवचन मुख्य रूप से हुआ करते. स्वामी जी चंदे का उपयोग अस्त्र-शस्त्रों खरीदने और क्रांतिकारी गतिविधियों में करते. स्वामी जी की प्रमुख गतिविधियों में 12 नवंबर सन् 1915 ईस्वी में सियालदाह स्टेशन की खजाने की लूट, कलकत्ता के फूलबागान में अंग्रेजों अफसरों और सिपाहियो की हत्याएं, पैसा छापने की मशीन लगा पैसा छपवाना और भोजपुरी आंदोलन के नाम से हस्तलिखित पत्रिका निकालना शामिल रहा.’

स्वामी अभयानंद क्रांति के अप्रतिम योद्धा थे. हिंदू धर्म के आर्ष ग्रंथों में कहा गया है भगवान का अवतार पीड़ितों के उद्धार के लिए और सज्जनों की रक्षा के लिए होता है. भगवान के भक्तों और मुख्य तौर पर संन्यासियों को पीड़ितों के लिए सहृदय हो उनकी रक्षा करनी चाहिए. स्वामी जी इसके पर्याय बने और उत्पीड़क अंग्रेज़ों का काल बन भारतीयों की अंतिम श्वास तक रक्षा की.

सन् 1857 ईस्वी के विद्रोह के बाद ब्रितानिया हुकूमत ने चुन-चुनकर सशस्त्र विद्रोहियों का शमन करना प्रारंभ किया. अभयानंद जी का युद्ध नीति साम, दाम, दंड और भेद पर आधारित रहा. महेंद्र मिसिर आदि शिष्यों को उक्त नीति में ही निपुण किया और ढेलाबाई आदि नगरवधुओं के माध्यम से स्वतंत्रता रूपी लक्ष्य का भेदन करने का उद्योग किया.

साधु-संन्यासियों यह कहते भी हैं कि ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’. स्वामी जी के संबंध में अब तक जो ज्ञात है उसे देख-सुन अथर्ववेद का राष्ट्र अभिवर्द्धन सूक्त स्मरण आता है, जिसके ऋषि वशिष्ठ हैं और देवता अभीवर्तमणि ब्रह्मणस्पति हैं, इसमें कहा गया है-  हे ब्रह्मणस्पते! जिस समृद्धिदायक मणि से इंद्रदेव कि उन्नति हुई, उसी मणि से आप हमें राष्ट्रहित के लिए विकसित करें.

स्वामी जी का यज्ञ और जीवन राष्ट्राय वर्धय के मूलों मंत्र पर आधारित दिखता है. भला कोई संन्यासी अपने मोक्ष आदि को छोड़ राष्ट्र की उपासना करे और लंबे समय से चली आ रही कुप्रथा अस्पृश्यता आदि को न माने तो वह मेरी दृष्टि में धर्म का पुनः संस्थापना ही कर रहा है.

श्रीमद्भागवत महापुराण में नृसिंह-प्रह्लाद संवाद का एक श्लोक यहां प्रासंगिक है-

प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः.
नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यत्त्वदस्य शरणं भ्रमतोsनुपश्ये॥

इसका भावानुवाद यह है कि ऋषि-मुनि लोग तो स्वार्थी बनकर अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं, उन्हें अन्यों की चिंता नहीं होती, मुझे दीन-दुखियों को छोड़ केवल अपनी मुक्ति न चाहिए, मैं तो इन्हीं के साथ रहूंगा और मरूंगा, जिऊंगा. उक्त श्लोक में प्रह्लाद ने भगवान नृसिंह से कहा है. स्वामी जी ने इन बातों को ही जीवन में उतारा था और कहते हैं कि छपरा में गौतम स्थान में प्रातः कालीन संध्या-पूजा के समय ही अंग्रेज सैनिकों से मुठभेड़ में अपने साथियों के साथ घायल हो गए किंतु अंग्रेजी सरकार उनके शरीर को बरामद न कर सकी, एक प्रकार से उन्होंने सरयू में जल समाधि ले ली. उनकी मृत्यु कि घटना सन् 1927 ई. की कही जाती है.