सारे अंधेरे के बावजूद रोशनी का इंतज़ार अप्रासंगिक नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: एक तरह का 'सभ्य अंधकार' छाता जा रहा है, पूरी चकाचौंध और गाजे-बाजे के साथ. लेकिन, नज़र तो नहीं आती पर बेहतर की संभावना बनी हुई है, अगर यह ख़ामख़्याली है तो अपनी घटती मनुष्यता को बचाने के लिए यह ज़रूरी है.

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(पेंटिंग साभार: नेहा सिंह/theartdungeon.blog)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: एक तरह का ‘सभ्य अंधकार’ छाता जा रहा है, पूरी चकाचौंध और गाजे-बाजे के साथ. लेकिन, नज़र तो नहीं आती पर बेहतर की संभावना बनी हुई है, अगर यह ख़ामख़्याली है तो अपनी घटती मनुष्यता को बचाने के लिए यह ज़रूरी है.

(पेंटिंग साभार: नेहा सिंह/theartdungeon.blog)

बीसवीं शताब्दी के अनेक युद्धों, हिंसाओं और अत्याचारों, बरबादियों और देशनिकालों, गरीबी-शोषण-अन्याय आदि की गवाही साहित्य ने साहस-संवेदना-मर्म के साथ दर्ज़ की है. यह गवाही मूल्यवान रही है पर उसका निर्णायक प्रभाव दुनिया पर, सत्ताओं पर, राजनीति और मीडिया पर, धर्मों पर पड़ा हो इसका कोई साक्ष्य नहीं है. उल्टे, इस नई शताब्दी ने अपने कुल तेईस सालों में जो कुछ किया-देखा-सहा है उससे स्पष्ट है कि मनुष्य अपने इतिहास से कोई सबक नहीं लेता.

नरसंहार, दूसरों को समूल नष्ट करने का उत्साह और साधन, हिंसा और अत्याचार, अधिक सूक्ष्म, अधिक व्यापक और लोकप्रिय हो गए हैं. हम अब हम एक ऐसी शताब्दी में रहने को विवश हैं जो, लगता है, हर दिन अपनी बची-खुची मानवीयता जान-बूझकर खोती-गंवाती जा रही है: उसे लेकर कोई खेद या पश्चात्ताप तक नहीं बचा है.

कई बार लगता है कि जो भारत में हो रहा है वह उसकी परंपरा में अंतर्भूत क्रूरता-हिंसा का नया विस्तृत संस्करण भर है. जो दुनिया में हो रहा है वह भी इसी क़िस्म का है. एक तरह का ‘सभ्य अंधकार’ छाता जा रहा है, पूरी चकाचौंध और गाजे-बाजे के साथ.

यह समय है जब सामूहिक रूप से संभवतः इस सबका प्रतिकार और प्रतिरोध संभव ही नहीं रह गया है. जो कुछ इस सिलसिले में हो सकता है वह व्यक्ति ही कर सकते हैं. ज़ाहिर है कि व्यक्ति का कुछ कर पाना बेहद सीमित है. वह गवाह हो सकता है, अपने दायरे में असहयोग भी कर सकता है. पर यह गवाही सचाई में जो हुआ उसे ईमानदारी से बखान कर सकती है, उससे अधिक कुछ और नहीं है.

गवाही देना एक नैतिक और मूल्यवान कर्म है पर उसके प्रभाव की सीमाएं, इस बीच, बहुत तीख़ेपन से प्रगट हुई हैं. ऐसी कोई सामूहिकता अब नहीं है जिसमें ये गवाह व्यक्ति शामिल होकर कुछ कर सकें. ऐसी सामूहिकता धीरे-धीरे विकसित होने जा रही है इसके कोई लक्षण अभी नज़र नहीं आ रहे हैं.

यह स्थिति हताश करती, निर्विकल्प लगती है. एक तरह की किंकर्तव्यविमूढ़ता भी फैल रही है. लाचारी की भावना भी बहुत व्यापक हो रही है. किसी तरह की रैडिकल उम्मीद इस समय, इस मुक़ाम पर असंभव लगती है.

पर दूसरी तरफ़, ऐसा तो नहीं हो सकता कि मनुष्य के जीवन से सच और समझ की, सहानुभूति और उदारता की, दूसरों के साथ-तालमेल और शांति की सहज प्रवृत्तियां पूरी तरह से ग़ायब या ध्वस्त हो जाएं अपनी मनुष्यता से लगातार विश्वासघात करता मनुष्य अपनी मनुष्यता को पूरी तरह से नष्ट कर दे ऐसा मानना इन प्रवृत्तियों की जिजीविषा को अवमूल्यित करना होगा.

नज़र नहीं आती पर बेहतर की संभावना बनी हुई है और सारे अंधेरे के बावजूद रोशनी का इंतज़ार अप्रासंगिक नहीं हो गया है. अगर यह ख़ामख़्याली है तो अपनी घटती मनुष्यता को बचाने के लिए यह ज़रूरी है.

टेक्नोलॉजी की विडंबना

हम अब ऐसे समय और समाजों में रहते हैं जिनमें टेक्नोलॉजी का बहुत विस्‍तार, महत्‍व और भूमिका है. हमारे रोज़मर्रा के जीवन में टेक्नोलॉजी की इतनी घुसपैठ है कि उसके बिना हम अब जीवन तो सोच सकते हैं, न ही बिता. टेक्नोलॉजी ज्ञान की विधा है. पर साथ-साथ वह व्यवहार की भी विधा है. उसके विस्तार ने हमें अपने जीवन के बारे में अलग ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया है. यहां तक कि उसने हमारी आकांक्षाओं, लक्ष्यों आदि के परिसर में ख़ासी बड़ी जगह बना ली है. उसकी वजह से जीवन में कई सुगमताएं आई हैं. संप्रेषण बहुत सुगम हुआ है, यात्रा और यातायात भी. सूचनाएं भी तत्काल मिलने लगी हैं और ख़बरें भी. हमारे पास अपनी बात कहने, सवाल पूछने आदि के लोकतांत्रिक साधन भी हो गए.

इसी टेक्नोलॉजी का उपयोग तानाशाही सत्ताएं अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए, बाज़ार अपने विस्तार-विज्ञापन के लिए, कई ख़बरिया माध्यम झूठ ख़बरें फैलाने, झूठे मुद्दों को केंद्रीय बनाने और राजनीतिक-सांप्रदायिक शक्तियां घृणा-झूठ-हिंसा फैलाने आदि के लिए धड़ल्ले से कर रहे हैं. उन्हें अभूतपूर्व सफलता भी लगातार मिल रही है. टेक्नोलॉजी का यह दुरुपयोग संसार भर में उदार मूल्यों को विकृत-ध्वस्त करने के लिए व्यापक से हो रहा है.

अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में टेक्नोलॉजी की बदौलत आज दुनिया मनुष्य के इतिहास में इतने हथियारों से लैस जितनी पहले कभी नहीं थी और अनेक युद्ध नई टेक्नोलॉजी को अज़माने या शस्त्र भंडारों को समय रहते इस्तेमाल करने के लिए किए जा रहे हैं. कई बार इस प्रभाव से बचना मुश्किल लगता है कि हिंसा और विनाश कहीं न कहीं टेक्नोलॉजी के स्वभाव का अनिवार्य अंग हैं.

दूसरी तरफ़, यह भी सही है कि टेक्नोलॉजी ने सामाजिक विषमताएं दूर करने में मदद की है. पर इस तरह की संभावनाओं का पूरा सदुपयोग कर सकने में सत्ताएं-बाज़ार आदि आड़े आ रहे हैं. ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें नई टेक्नोलॉजी बहुत कारगर मदद कर सकती है.

हम सब जानते हैं कि हमारे देश में, जैसे कि दुनियाभर में, अनेक भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं. क्या इस क्षेत्र में नई टेक्नोलॉजी हमें उन्हें संरक्षित करने, सजीव बनाए रखने में मदद नहीं कर सकती? यही स्थिति साहित्य और कलाओं के कई रूपों की है: वहां भी टेक्नोलॉजी की विधायक भूमिका संभव है.

शिक्षा के क्षेत्र में नई टेक्नोलॉजी ने ज्ञान अर्जित करने के उद्यम को अवमूल्यित किया है. क्या भारत में उसका उपयोग, मिडियाक्रिटी और उद्यमहीनता बढ़ाने के बजाय ज्ञान को सच्चे प्रश्नवाचक, संस्कृति-बोध को सक्रिय-सघन करने के लिए कर सकते हैं?

ज़ाहिर है कि ऐसे क्षेत्रों की कमी नहीं है जिसमें विधायक भूमिका ज़रूरी और अपेक्षित है. यह उन क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी को कौन ले जाएगा? क्या ऐसे सजग-ज़िम्मेदार समूह हैं? हैं तो नज़र क्यों नहीं आते? क्या वे सत्ता-बाज़ार आदि से मुक्त कुछ करने की हिम्मत और दीवानगी रखते हैं?

तिरासी का होने पर

औसत उमर से तो ज़्यादा हो ही गई है, फिर भी तिरासी का होने पर ऐसा नहीं लग रहा है कि बहुत हो गया और अब जाने की तैयारी करने में लग जाना चाहिए. इसे आत्मरति या अतर्कित आत्मविश्वास कुछ भी समझा जा सकता है पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि अब विदा लेने का वक़्त आ गया है या जल्दी ही आने वाला है. हो सकता है जल्दी ही आ जाए पर मैं उसका इंतज़ार नहीं कर रहा हूं; न मुझे उसके नज़दीक कहीं होने का कोई आभास मिल रहा है.

ग़ालिब ने अगर यह कहा था कि ‘एक मर्गे-नागहानी और है’ तो यह भी तोकहा था: ‘अय मर्ग/रहने दे मुझे यां’ कि अभी काम बहुत है.’ यह भले अजब है पर सही है कि जीवन हमेशा काम से छोटा पड़ जाता है.

लगभग सत्तर बरस हो गए साहित्य और कलाओं में जीवन बिताते. अपने बहुत सारे लिखे का बोझ भी मैंने दूसरों पर डाला है. एक तर्क तो यह कहता है कि अगर सात दशकों बाद भी तुम अपनी बात पूरी नहीं कर पाए तो अब क्या ख़ाक कर पाओगे?

दूसरा तर्क यह है कि कोई भी अपनी बात जीवनभर उसे कहने, कहते रहने की कोशिश करने के बाद भी कभी पूरी नहीं कर पाता. साहित्य ऐसी ही आधी-अधूरी बातों का संग्रहालय होता है. फ़र्क सिर्फ़ यह है कि जो लेखक बड़े होते हैं वे अपनी अधूरी बात को भी पूरी मानने पर हमें विवश करते हैं और हमें उनका अधूरापन भी बहुत सार्थक, बेहद मूल्यवान लगता है. पर हम जैसे कमतर लोग न तो घर के हो पाते हैं, न घाट के: हमारी बात कभी न पूरी होगी, न कोई उसे पूरी मानने का कभी विवश होगा.

परिदृश्य काफ़ी हद तक निराशाजनक है. उदार दृष्टि, बहुलता के आग्रह, दूसरों का दर्द महसूस करने की क्षमता, भारतीय परंपरा के उजले बौद्धिक और सर्जनात्मक अभिप्राय, आधुनिकता की प्रखर प्रश्नाकुलता, लोकतंत्र और संविधान के बुनियादी मूल्य जो स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता के रहे हैं, सभी हर दिन सत्ता, मीडिया, धर्मों और बाज़ारू व्यवस्था द्वारा प्रहार और अतिक्रमण का शिकार हो रहे हैं. ऐसे में उम्मीद करना तक मूर्खता लगता है. पर ठीक इस बेहद नाउम्मीद मुक़ाम पर अलविदा कहना, अपने को विरक्त कर लेना न तो नैतिक होगा, न ही मानवीय.

यह बौद्धिक और सर्जनात्मक काम भी नहीं होगा. इस समय उम्मीद को एक कुटैव की तरह बनाए रखना और पोसना चाहिए. हम बदल नहीं सकते पर बदलने की कोशिश और संघर्ष से अपने को अलग या दूर नहीं कर सकते. जो किसी समय संभव नहीं लगता, लेखक उसे संभावना के अहाते में लाने की कोशिश करता है. हमारा मुक़ाबिला बुराई की सर्वव्यापकता, लोकप्रियता और हेकड़ी से है. फ़ौरी तौर पर हमारी हार तय है, पर सिर्फ़ फ़ौरी तौर पर. मानवता कितनी भी भ्रष्ट-विकृत क्यों न हो जाए, वह अंततः सच और सचाई का मंगल और सर्वहित का मार्ग पूरी तरह से छोड़ नहीं सकती. उम्मीद की, परिवर्तन की, विकल्प की यही आधारशिला है.

शायद अपनी जिजीवषा का बचाव या औचित्य सिद्ध करने के लिए इतना द्रविड़ प्राणायाम ज़रूरी नहीं है: इतना काफ़ी है कि उम्मीद भले कम है, जिजीवषा काफ़ी है.

ग़ालिब ने यह भी कहा है: कोई दिन गर ज़िंदगानी और है/हमने अपने जी में ठानी और है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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