चंपत राय की जमात को सौहार्द का अभ्यास पहले ही नहीं था, अब हिंदू एकता भी उनसे नहीं सध रही

शैव-वैष्णव संघर्षों की समाप्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की ओर से दी गई ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोंहि न पावा’ की समन्वयकारी व्यवस्था के बावजूद चंपत राय का संन्यासियों, शैवों व शाक्तों के प्रति प्रदर्शित रवैया हिंदू परंपराओं के प्रति उनकी अज्ञानता की बानगी है.

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अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का एक हिस्सा. (फोटो साभार: श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र)

शैव-वैष्णव संघर्षों की समाप्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की ओर से दी गई ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोंहि न पावा’ की समन्वयकारी व्यवस्था के बावजूद चंपत राय का संन्यासियों, शैवों व शाक्तों के प्रति प्रदर्शित रवैया हिंदू परंपराओं के प्रति उनकी अज्ञानता की बानगी है.

अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का एक हिस्सा. (फोटो साभार: श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र)

ये लीजिए, अयोध्या में बन रहा जो राम मंदिर अब तक ‘सारी दुनिया के हिंदुओं का’ था, उनकी ‘सभी 125 संत-परंपराओं, सभी तेरह अखाड़ों व सभी षड्दर्शनों के महात्माओं, महापुरुषों व धर्माचार्यों का’-‘राष्ट्र का मंदिर’ तो था ही, ‘राष्ट्र के आनंदोत्सव का सबब’ भी था-अब संन्यासियों, शैवों व शाक्तों का नहीं रह गया है!

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर मंदिर बनवाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने एक हिंदी दैनिक को दिए इंटरव्यू में किसी लाग-लपेट के बगैर इसका ऐलान कर दिया है- कुछ इस तरह कि इसे लेकर किसी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं बची है कि जो लोग उसे संपूर्ण राष्ट्र का बता रहे थे, अब वही उसके एक हिस्से को उससे वंचित करने पर आमादा हैं.

गौरतलब है कि इस ट्रस्ट में एक ही जाति, वर्ण व संगठन का वर्चस्व है और वह अपने गठन के वक्त से ही अयोध्या के संत-महंतों का समुचित प्रतिनिधित्व न करने, ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के आंदोलन में दलित व पिछड़ी जातियों के ‘योगदान’ को नकारने, अपनी भूमिका का अतिक्रमण करने और भ्रष्टाचार बरतने वगैरह के अंदरूनी व बाहरी आरोप झेलता रहा है. इसलिए उसके द्वारा बार-बार हिंदू एकता का राग अलापे जाने के बावजूद बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि वह हिंदुओं में परंपरा से चले आते बहुलवाद से समुचित न्याय कर सकेगा.

इसीलिए उसके करतबों से हैरान कई नाशुक्रे चंपत राय के इन ‘आप्तवचनों’ से बहुत पहले से सवाल उठाते आ रहे थे कि हिंदू श्रद्धालुओं से एकत्र किए गए धन से अदालत के आदेश पर ट्रस्ट की देख-रेख में बनवाया जा रहा मंदिर किनका और किनके लिए है- विश्व हिंदू परिषद का, जिसने उसके लिए आंदोलन किया? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का, जिसकी वह आनुषंगिक संगठन है? सारे हिंदुओं का? या महज उसके प्रभुत्वशाली व कुलीन तबकों और महानुभावों का?

ट्रस्ट ने रामलला की पूजा-अर्चना के लिए रामानंदियों की पूजा-पद्धति का चुनाव किया, तब भी पूछा गया था कि यह चुनाव उसने इस संप्रदाय के वैष्णव साधुओं व संन्यासियों का देश का सबसे बड़ा संप्रदाय होने के नाते किया है, वर्ण-विद्वेष को धता बताकर रामभक्ति की विभिन्न धाराओं व शाखाओं के बीच समन्वय की स्थापना में उसकी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका के कारण या अयोध्या के रामानंदियों की नगरी होने के कारण? यह सवाल भी उठाया गया था कि संकीर्ण सोच वाला ट्रस्ट बहुलवादी रामानंदी संप्रदाय की रीति-नीति से तालमेल कैसे बैठाएगा?

पिछले दिनों चंपत राय ने अपील की कि उनका ट्रस्ट जिन्हें निमंत्रण न दे, वे 22 जनवरी के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में न आएं, तो भी कई हलकों में पूछा गया था कि क्या इस मंदिर पर पहला हक उन ‘वफादार’ धर्माधीशों, आचार्यों, सत्ताधीशों, नेताओं, वीवीआईपी महानुभावों, उद्योगपतियों, खिलाड़ियों, अभिनेताओं और कलाकारों आदि का ही है, जिन्हें ट्रस्ट वीवीआईपी मानकर प्राण प्रतिष्ठा में बुला रहा है- पूरी तरह अपनी पसंद नापसंद के आधार पर, न कि उनकी रामभक्ति व आस्था के आधार पर?

लेकिन इनमें किसी भी सवाली ने यह उम्मीद नहीं की थी कि निर्बल के बल, समदर्शी और पतित-पावन राम की प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन के आमंत्रण में ऐसे भेदभाव भरे सलूक पर बहस के बीच ही ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय द्वारा एक झटके में यह कहकर कि मंदिर संन्यासियों, शैवों व शाक्तों का नहीं, सिर्फ रामानंदियों का है- रामानंद संप्रदाय का, ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः’ की स्थिति ही नहीं, अंतर्विरोध भी पैदा कर दिए जाएंगे.

साथ ही यह अंदेशा भी कि क्या पता, अगले झटके में वे उसे और किनका नहीं रह जाने दें. जिनका अभी है या जिनका वे बता रहे हैं कि है, क्या गारंटी है कि उनका भी आगे कब तक रहने देंगे!

इसका भी क्या पता कि अतीत के शैव-वैष्णव संघर्षों की समाप्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की ओर से दी गई ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोंहि न पावा’ की समन्वयकारी व्यवस्था के बावजूद उन्होंने संन्यासियों, शैवों व शाक्तों के प्रति जैसा रवैया प्रदर्शित किया है, उसके चलते ‘हिंदू होने के प्रमाणपत्र’ बांटने वाली उनकी जमात की निगाह में वे हिंदू रह भी गए हैं या ‘रामविरोधी’ हो गए हैं.

जो भी हो, बात यहां तक तो आ ही गई है कि एक शंकराचार्य ने पूछ लिया है कि मंदिर रामानंदियों का है तो उसके निर्माण के लिए हमसे चंदा ही क्यों लिया था और क्यों नहीं चंपत राय इस्तीफा देकर मंदिर को रामानंदियों के हवाले करके किनारे हो जाते? ऐसी कौन-सी आफत आई हुई है कि शास्त्रों की व्यवस्था के विपरीत अधबने मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है और उसके समय व शैली पर उठने वाले सवालों को दरकिनार कर धर्म के कार्य में राजनीति की जा रही और धर्माचार्य व राजनेता का फर्क मिटा दिया जा रहा है?

यहां समझने की बात यह है कि शंकराचार्य को मंदिर का रामानंदियों का होना स्वीकार है लेकिन ट्रस्ट द्वारा उसे लेकर की जा रही राजनीति नहीं. इसीलिए वे ट्रस्ट के महासचिव को मंदिर रामानंदियों को सौंपकर इस्तीफा दे देने को कह रहे हैं. जाहिर है कि उनकी निगाह में ट्रस्ट न रामानंदी संप्रदाय जितना समावेशी या समन्वयकारी है, न ही उतना स्वीकार्य.

दूसरी ओर ट्रस्ट के रुख का बचाव करने वाले कई महानुभाव कह रहे हैं कि चारों शंकराचार्यों द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के बहिष्कार के बाद ट्रस्ट का यह बताना जरूरी था कि मंदिर किसका है? लेकिन इन महानुभावों के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि जो बात कही गई, क्या उसे प्रकारांतर से नहीं कहा जा सकता था, जिससे वह थोड़ी शिष्ट दिखती या कहने वाले की निजी राय बताकर उससे किनारा किए जाने की गुंजाइश बची रहती?

ये महानुभाव यह भी कहते हैं कि ‘बिखरे सनातन समाज’ को पुनर्जीवित कर एकजुट रखने व नये दर्शन की स्थापना की लंबी व मजबूत परंपरा के बावजूद शंकराचार्य हिंदुओं के पोप या खलीफा नहीं हैं, लेकिन यह पूछने पर जवाब नहीं देते कि तब क्या चंपत राय हिंदुओं के पोप या खलीफा हैं?

तिस पर पेंच इतना ही नहीं है. भले ही चंपत राय ने संन्यासियों, शैवों और शाक्तों के ही नाम लिए, अघोषित रूप से यह मंदिर कई और हस्तियों व समुदायों का नहीं है. मसलन, भगवान राम की जीवनसंगिनी सीता का, पितृसत्ता के खेल के चलते अयोध्या भी जिनकी नहीं ही है. बहुचर्चित धारावाहिक ‘रामायण’ में सीता की भूमिका निभा चुकी दीपिका चिखलिया को प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का निमंत्रण मिला तो उन्होंने इसे लेकर अपना दुख भी जताया. यह कहकर कि ठीक है कि मंदिर में भगवान राम का बालस्वरूप है, लेकिन अच्छा होता अगर कि वे अकेले न होते. माता-सीता को कहीं तो जगह दी जाती.

लेकिन ट्रस्ट के लिए सीता के साथ ही वे अनामंत्रित अयोध्यावासी भी बेगाने ही हैं, जिनको ‘अपने राम’ की प्राण-प्रतिष्ठा के वक्त अपने घर में रहकर टीवी पर उसे देखने या पूजा-अर्चना के लिए आस-पास के मंदिरों में जाने, आतिशबाजी करने, दीपावली व उत्सव मनाने को कह दिया गया है?

1990 में जिन कारसेवकों ने लाठी-गोली खाईं और जिन्हें ‘शहीद’ करार देकर उनकी ‘शहादत’ के वीडियो दिखा-दिखाकर वोट बटोरे जाते रहे, बकौल चंपत राय अभी उनके सम्मान की कोई योजना भी नहीं है. उनके अनुसार भरत का देश बलिदानियों का देश है ओर जो शहीद हुए अपनी अंतःप्रेरणा से हुए. सैनिक बलिदान होते हैं तो दस-बीस साल बाद सोचा जाता है कि उनके लिए कुछ कर दिया जाए. उनकी स्मृति में एक स्तंभ बना दिया जाता है, जिनके नाम याद रहते हैं किसके सम्मान में क्या किया गया, जोड़ने में गलती हो जाती है.

इतना कहते-कहते वे खुद भी जोड़ने में गलती कर बैठे: कारसेवकों की ‘शहादत’ के दस-बीस नहीं 33 वर्ष हो चले हैं. उनकी इस गलती को लेकर भी लोगों की अलग-अलग राय है. कुछ लोग कहते हैं कि आदमी ज्यादा खुश हो जाए तो ऐसे जोड़-घटाव भूल ही जाता है, जबकि कुछ और लोग कहते हैं कि तनावग्रस्तता में भी ऐसी गलती होती है.

ऐसा कहने वाले भी हैं कि चंपत राय की जमात को देश की एकता व सौहार्द के लिए काम करने का अभ्यास तो पहले भी नहीं था, अब हिंदू एकता भी उसके साधे नहीं सध रही.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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