किसी देश की संस्कृति की पहचान उसके सार्वजनिक स्थानों से हो जाती है. जिन जगहों पर हम जीवन व्यापार में दूसरों के साथ भागीदारी करते हैं, उनका स्वरूप कैसा है, इससे हमारे सौंदर्यबोध का भी पता चलता है. मानव की कोई भी निर्मिति सिर्फ़ उसके प्रयोजन तक ही सीमित नहीं रहती, वरन् कुछ और भी अर्थ लिए होती है. हमारे विद्यालय, हमारी सड़कें, उसके चौराहे, उन पर लगी मूर्तियां, मंदिर, विज्ञापन आदि उस संस्कृति की कहानी कहते हैं जिसका वे अंग हैं. संस्कृति का कोई पारखी इन्हें देखकर ही संस्कृति की आत्मा को पहचान लेता है.
यूरोप पर अज्ञेय के यात्रवृत्त ‘एक बूंद सहसा उछली’ में एक प्रसंग है, जहां रोम में मुसोलिनी के समय के स्थापत्य को देखते हुए अज्ञेय को पूर्वी बर्लिन में निर्मित ‘स्टालिन आली’ की याद आ जाती है और दोनों में असाधारण साम्य को देखकर वे सहसा चौंक जाते हैं. अज्ञेय लिखते हैं, ‘सर्वसत्तात्मक शासन में बड़प्पन पर बल देना अनिवार्य हो जाता है और चारित्रिक गहराई की विशिष्टता गौण हो जाती है. रोम में या इटली में, अन्यत्र मुसोलिनी द्वारा बनवाए गए चौगानों या उनके आसपास की इमारतों में बड़प्पन के सिवा सौंदर्य का कोई गुण नहीं था, यही बात मुझे ‘स्टालिन आली’ में भी दिखी.’ दोनों ही सर्वसत्तावादी शासकों की निर्मितियां हैं. दोनों स्थापत्य उसके शासकों के चरित्र को प्रकट कर देता है.
इस प्रसंग को पढ़कर मैं सोचता हूं कि संस्कृति के ऐसे बोध से संवलित कोई मनुष्य जब आज के भारत को देखेगा तो उसका निष्कर्ष क्या अज्ञेय से भिन्न होगा? भारत में विशालता का यह आडंबर उन्माद की हद तक पहुंच चुका है. भारत के पास सबसे बड़ा स्टेडियम है, सबसे ऊंचे फहराते ध्वज हैं, सबसे बड़ी प्रतिमा है. अगर इनकी विशालता हमें मुग्ध कर देती है तो इससे पता चलता है कि हमारा सौंदर्यबोध कितना भोथरा है! जो भीमकाय प्रतिमा हमने बनवाई है वो सुंदर भी है, यह कहने में संकोच होता है. और फिर वह है भी तो यंत्र निर्मित; उसमें मनुष्य की रचनाशीलता कहां हैं, मनुष्य की सजीव उंगलियों का स्पर्श कहां है! ऐसा नहीं है कि विश्व में ऐसी विशाल प्रतिमा किसी और देश में बन नहीं सकती, बात सिर्फ़ इतनी है की कोई देश मूर्खता का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करना चाहता, उसका उत्सव नहीं मनाता और ऐसी मूर्खता पर अपव्यय नहीं करना चाहता.
विशालता और भव्यता भी सुंदर होती है पर तभी जब वो मनुष्य की रचनात्मकता और जीवट को प्रकट करे. मिस्र के पिरामिड आज भी हमें सुखद आश्चर्य से भर देते हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि उनमें मनुष्य की रचनात्मकता और सृजनशीलता दिखती है. सभ्यता के आरंभिक दौर के ये निर्माण मनुष्य की असीम निर्माण क्षमता के प्रतीक हैं. इनमें मनुष्य का श्रम, उसके हाथों की सुघड़ता और कहीं कहीं बेढंगापन भी दिखता है.
अगर कोई इन्हें देखकर मतवालेपन में इससे विशाल पिरामिड अपने यहां बनवाने की ठान ले, तो आधुनिक यंत्र और तकनीक वैसा विशाल निर्माण कर तो सकते हैं पर वो निर्माण उन्माद और मूर्खता की ही अभिव्यक्ति होगा, रचनात्मकता की नहीं.
हम स्थापत्य और संस्कृति के रिश्ते की बात कर रहे थे. स्थापत्य संस्कृति का सबसे मूर्त अंग होता है. भारत में एक ऐसा ही निर्माण जो 22 जनवरी को पूरा हो रहा है, वह अयोध्या का राम मंदिर है. कल कोई यात्री जब भारत को देखने आएगा, तो यह मंदिर हमारी संस्कृति के बारे में उसे क्या बतलाएगा? जब वो इसके इतिहास को जानेगा तो हमारी संस्कृति की कैसी छवि उसके मन पर अंकित होगी?
अज्ञेय ने लिखा है, ‘संस्कृति का पौधा ऐसी भूमि पर पनपता है जो सबकी साझा होती है.’ पर जिस भूमि पर यह मंदिर बन रहा है वह भूमि तो सबकी साझा नहीं है. इसे तो फ़रेब से हथियाया गया है.
यह मंदिर जिस रक्तरंजित इतिहास की परिणति है उस पर खूब लिखा जा चुका है. इस पूरे अभियान को जिन लोगों ने ध्यान से देखा है वे बताते हैं कि यह पूरा अभियान हिंसा, झूठ, फ़रेब, प्रपंच और धूर्तता का अभियान रहा है. इसमें शामिल लोगों में किसी ने कभी किसी बात की ज़िम्मेदारी नहीं ली. रथ यात्रा जहां-जहां से गुजरी वहां खून की लकीर खींचती गई तो उसमें लाल कृष्ण आडवाणी की ज़िम्मेदारी नहीं, कारसेवकों की भीड़ ने खूंरेजी की तो उसके लिए मुरलीमनोहर जोशी ज़िम्मेदार नहीं, उन्मादी भीड़ ने मस्जिद गिरा दी तो उसके लिए अटल बिहारी वाजपेयी ज़िम्मेदार नहीं.
इसके बावजूद इस अभियान को चलाने वाले हिंदू जनता को यह यक़ीन दिलाने में कामयाब हो गए कि यह अभियान हिंदू जनता का अभियान था और अयोध्या में राम मंदिर देखने की चाह हिंदू मन में अरसे से थी. अगर हिंदू जनता को यह यक़ीन दिलाया जा सकता है कि यह मंदिर उसकी चिर संचित अभिलाषा को पूरा करता है तो इसका अर्थ है कि हिंदू मन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह कब्जा हो चुका है.
अब उसे यह भी कहा जा सकता है कि वो 22 जनवरी को दीपावली मनाए. ऐसा कहने वालों को यक़ीन है की हिंदू जनता इस बात को मान लेगी. इसका अर्थ है कि हिंदू धर्म अब एक केंद्रीय शक्ति के निर्देशों से संचालित होगा और वह संचालक शक्ति होगी भाजपा और संघ.
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हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर अपनी पुस्तक में लिखा है कि इस्लाम के आगमन ने भारतवर्ष के सम्मुख एक अभूतपूर्व चुनौती पेश की थी. इस्लाम एक संगठित मज़हब था और ऐसे संगठित संप्रदाय से इस देश के लोगों का सामना अब तक नहीं हुआ था. इसकी प्रतिक्रिया में हिंदू धर्म को बहुत कुछ बदलना पड़ा.
‘ऐसा जान पड़ता है कि भारतीय मनीषियों को अब एक संघबद्ध धर्म के पालन की ज़रूरत महसूस हुई. इस्लाम के आने से पूर्व इस जनसमूह का कोई नाम तक नहीं था. अब उसका नाम ‘हिंदू’ पड़ा.’ विचारों और परंपरा प्राप्त भिन्न-भिन्न मतों में से सर्वसम्मत मत निकलने का काम शुरू हुआ जिससे ‘श्राद्ध विवाह की एक ही रीति-नीति प्रचलित हो सके, उत्सव-समारोह का एक ही विधान तैयार हो सके.’
शास्त्रों की छानबीन करके उनसे सामान्य तत्त्व खोजे गए और निबंध-ग्रंथों की रचना हुई. द्विवेदी जी ने लिखा है ‘जिस बात को आजकल ‘हिंदू सोलिडेरिटी’ कहते हैं उसका प्रथम भित्ति स्थापन इन निबंध ग्रंथों के द्वारा ही हुआ.’
यहां द्विवेदी जी से असहमत हुआ जा सकता है. मध्यकाल में यह प्रतिक्रिया इतने बड़े पैमाने पर संभव नहीं थी. एक तो आधुनिक युग की तरह भिन्न-भिन्न प्रदेशों की जनता का आपसी संपर्क इतना नहीं था और दूसरा आज की तरह पहचान का बोध इतना तीव्र नहीं था. फिर इस्लाम से भारतवर्ष का संपर्क भी एक ही ढंग से नहीं हुआ. द्विवेदी जी 10वीं-11वीं शताब्दी की बात कर रहे है, जबकि इस्लाम भारत में 7वीं शती में ही पहुंच चुका था.
इस्लाम के आगमन से पूर्व ‘हिंदू धर्म’ में आचारों और परंपराओं की जिस विविधता की बात द्विवेदी जी ने कही है वो बहुत कुछ अंग्रेजों के आने तक भी बनी हुई थी. यह बात स्थापित हो चुकी है कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारे धर्म को वर्तमान स्वरूप मिला और इसके लिए ‘हिंदू’ नाम व्यापक रूप से चलन में आया. पर जिस अभूतपूर्व चुनौती की बात द्विवेदी जी इस्लाम के संदर्भ में कर रहे थे, वो चुनौती वास्तव में अब हिंदू धर्म के सामने है.
पहली बार हिंदू धर्म को एक केंद्रीकृत रूप दिया जा रहा है. अब उसका सूत्र एक राजनीतिक दल के हाथ में होगा. अब हिंदू आस्थाओं का, प्रतीकों का और पर्वों का निर्धारण एक राजनीतिक दल करेगा, और हिंदू समाज बस उसके निर्देशों का पालन करेगा. अभी भले हमें इसका एहसास न हो, पर इससे हमारे धर्म का स्वरूप पूरी तरह बदल जाएगा. हिंदू जनता सिर्फ़ राजनीतिक लाभ का साधन बनकर रह जाएगी.
विडंबना यह है कि हिंदू जनता को इसका बोध ही नहीं हैं. हम जानते ही हैं कि पिछले वर्षों में ऐसे त्योहार मनाए जाने लगे हैं या त्योहार इस ढंग से मनाए जाने लगे जिनमें आक्रामकता और हिंसा का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है. वरना हममें से कितनों के घर में परशुराम जयंती मनाई जाती थी, जबकि आज पूरे शहर को इसके बैनरों से पाट दिया जाता है, कब रामनवमी के दिन फरसे और तलवार लहराती भीड़ जुलूस निकालती थी और लोगों में दहशत पैदा कर देती थी, कब उसमें बजने वाला संगीत, अगर उसे संगीत कह सकें, कान के पर्दे फाड़े डालता था. कब ऐसा होता था कि हिंदुओं के जश्न का दिन मुसलमानों के लिए दहशत का दिन बन जाए, और ऐसा करने से हिंदुओं को एक विकृत ख़ुशी मिले.
उत्सव ही तो धर्मों में सबसे पवित्र होते हैं, अगर उनका ही स्वरूप इतना विकृत कर दिया जाए, तो इससे ज़्यादा क्षति धर्म की क्या होगी?
परंपरा में तो सभी प्रकार के तत्त्व होते हैं. पर क्या ग्रहणशील है और क्या त्याज्य इसका बोध जीवित संस्कृतियों को होता है. परशुराम भी हमारी परंपरा में विष्णु के अवतार माने जाते हैं पर हिंदू परंपरा उन्हें पूज्य भी मानती रही हो इसका तो प्रमाण नहीं.
कोई जनसमुदाय अगर अपनी संस्कृति के ऐसे विरूपण पर क्रोधित न हो, उसे रोकने का संगठित प्रयास न करे, उल्टा इस विरूपण के अभियान में बढ़-चढ़कर भाग ले तो संस्कृति का उसका बोध मर चुका है. और यह बहुत चिंताजनक है, क्योंकि प्राण उसमें फूंके जा सकते हैं जिसमें श्वांस शेष हो, मुर्दे की सांसे फिर नहीं लौटाई जा सकतीं.
चिंताजनक बात यह भी है कि इस विरूपण को रोकने का कोई भी प्रयास हमारे भीतर से नहीं हो रहा. हिंदू जानता तक धर्म की कोई दूसरी समझ नहीं पहुंच रही, इसलिए वह भाजपा और संघ द्वारा प्रचारित धर्म को ही वास्तविक हिंदू धर्म समझे तो आश्चर्य नहीं. भारत इस स्तिथि से निकल पाएगा की नहीं, कह नहीं सकते. वर्तमान में हिंदुओं की मदहोशी को देखकर तो निराशा ही होती है.
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पर मानव इतिहास को देखने पर कुछ आस बंधती है, बस हमें अपने प्रयास बंद नहीं करने चाहिए. मानवता का इतिहास बर्बरता से सभ्यता के सरल रेखीय विकास का इतिहास नहीं है, बल्कि इसमें सभ्यता के विकास क्रम में बर्बरता के दौर बराबर आते रहे हैं, और कई बार सबसे भीषण बर्बरता सबसे सभ्य समाजों ने देखी है. पिछली सदी के दो महायुद्ध इसको प्रमाणित करते हैं.
इतिहास में भी ऐसे दौर आए हैं जब लगता था जनता नैतिक विवेक से बिल्कुल शून्य हो चुकी है, पर फिर वह यह बोध हासिल भी करती है, और इस बोध को हासिल करना ही होता है, क्योंकि बिना नैतिक बोध के मनुष्य ख़ुद को परिभाषित ही नहीं कर सकता. रवींद्रनाथ ने नैतिकता को मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार कहा है, क्योंकि ‘वह इस अद्भुत सत्य पर आधारित है कि मानव उतना ही अधिक सच्चा साबित होता है जितना अधिक वह दूसरों में स्वयं को अनुभूत करता है.’
यह बात रवींद्रनाथ ने ‘राष्ट्रवाद’ नाम की अपनी पुस्तक में कही है. राष्ट्रवाद पर शोधार्थियों के साथ एक कक्षा होने वाली थी, उसमें हमसे रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ पढ़कर आने को कहा गया था, इस पुस्तक में बहुत से अंश ऐसे हैं जो मानो आज के भारत का रूपक हों, पर उसका एक अनुच्छेद मुझे बहुत मार्मिक लगा.
‘भारत में राष्ट्रवाद’ नाम के तीसरे अध्याय में टैगोर ने लिखा है, ‘मानव इतिहास में आतिशबाजी के कुछ ऐसे युग भी आते हैं, जो अपनी शक्ति व गति से हमें चकित कर देते हैं. ये न केवल हमारे साधारण घरेलू दीपकों की हंसी उड़ाते हैं बल्कि अनंत नक्षत्रों का भी मज़ाक उड़ाते हैं. लेकिन इस भड़काऊ दिखावे के आगे हमें अपने दीपकों को निरस्त कर देने की इच्छा मन में नहीं आने देनी चाहिए. हमें इस अपमान को धैर्यपूर्वक सहना होगा और यह समझना होगा कि इस आतिशबाजी में आकर्षण तो है पर यह स्थाई नहीं है क्योंकि इसकी अति ज्वलनशीलता ही इसकी शक्ति और अंततः इसके बुझ जाने का भी कारण होती है. यह किसी लाभ व उत्पादन के बजाय अपनी ऊर्जा तथा सारे को ही भारी मात्रा में खर्च कर रही है.’
अभी हमारा देश ऐसी ही आतिशबाजी के युग में जी रहा है. इस आतिशबाजी को स्थाई समझकर बहुत लोग इसमें शामिल भी हो गए हैं, शायद उन्हें अभी वह मोहक लगती है या उनकी प्रवृत्ति ही ऐसी थी बस संकोचवश अब तक इसे छुपा रखा था. पर आज से कुछ वर्ष बाद जब हमारे समय का मूल्यांकन होगा तो देखा जाएगा कि हम भी इस आतिशबाजी में शामिल हो गए थे या उस विवेक को बचाकर रख पाए थे, जिसकी अपेक्षा रवींद्रनाथ ने हमसे की थी. इन दो पक्षों में हमारा पक्ष कौन-सा हो इसका निर्णय इतना कठिन तो नहीं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं.)