कोशल में रात गहराती जा रही है!

आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है.

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अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर. (फोटो साभार: श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र)

आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है.

अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर. (फोटो साभार: श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र)

वैशाली के एक कवि हैं प्रणय कुमार. उनकी एक कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है- ‘चंद्रनाथ की स्मृति में’. प्रणय के ही शब्दों में कहें, तो इस कविता में ‘उत्तर आधुनिक युग की कथा है/जब पूरी दुनिया से साम्यवाद विदा हो रहा था’ और ‘आदमी अप्रासंगिक होता जा रहा था’. ऐसे कठिन समय में ‘आदमी गढ़ने का गुरुतर भार उठाए चंद्रनाथ’ एक सुबह ‘सड़क किनारे नाले में मरे पाए गए’ तो ‘एक बात लोगों को समझ में नहीं आई/कि उस पढे़-लिखे आदमी ने मरने के लिए/गंदा नाला ही क्यों चुना?’

अयोध्या की अपनी राममड़इया में बैठकर मैं जब भी यह कविता पढ़ता हूं, और बिना पढ़े नहीं रहा जाता तो पढ़ता ही हूं, मेरा मनोविज्ञान गड़बड़ा जाता है. फिर तो कभी कोशल व वैशाली गणराज्यों के पुराने रिश्तों पर सोचने और कभी सीता माता को याद करने लग जाता हूं. कभी यह कि कैसे कोशल की राजधानी अयोध्या सिर्फ राम की होकर रह गई, सीता की रंचमात्र भी नहीं हो पाई और कभी यह कि क्यों जनकपुर की कन्याएं अब अयोध्या में नहीं ब्याही जातीं?

लेकिन बार-बार अपने सिर के बाल नोंचकर भी समझ नहीं पाता कि चंद्रनाथ जैसे पढ़े-लिखे आदमी ने अपने मरने के लिए सड़क किनारे का गंदा नाला चुन भी लिया था तो मुझ पर ऐसी कौन-सी आफत आई हुई थी कि मैंने अपने जीने-मरने दोनों के लिए राम की अयोध्या को चुन लिया और जैसे इतना ही काफी न हो, इससे भी आगे जाकर उसे ‘सब कुछ सहने’ की जगह भी बन जाने दिया?

क्यों नहीं इस अंदेशे की गंभीरता को समय रहते महसूस कर लिया कि जिस अयोध्या में जानें कहां-कहां से अपनी-अपनी जिंदगियों से तरह-तरह से थके-हारे लोग विषय-वासनाओं से मुक्ति की लालसा लिए चले आते हैं, उसमें रहकर अपनी वासनाओं की तृप्ति की ‘माया’ फैलाना और ‘जीवन से मोक्ष’ की चाह लेकर वहां आए लोगों को ‘मोक्ष से जीवन’ की ओर घुमाने का ‘द्रविड़ प्राणायाम’ करना कितना दुष्कर होगा?

कोलकाता से पढ़-लिखकर अयोध्या आ बसे उर्दू के वयोवृद्ध कथाकार गुलाम मोहम्मद ने तो साफ-साफ मना भी किया था. समझाया था कि जिसे भी सच्चे मनुष्य का जीवन जीना हो, उसे सारे के सारे धर्मस्थलों व धर्मनगरियों से दूरी बनाकर रहना चाहिए. यह दूरी कम से कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि एक बार ‘ऊपर वाले को याद करने का काम’ निपट जाए तो अगली याद से पहले वहां जाना न हो! देवताओं के ‘बहुत नजदीक’ न जाने की परंपरा से चली आती मनाही भी याद ही थी! फिर भी?

कहीं से कोई उत्तर नहीं मिलता, न अंदर से और न ही बाहर से, तो लगता है कि मनोविज्ञान मेरा ही नहीं और भी बहुत से लोगों का गड़बड़ाया हुआ है, कमोवेश समूची अयोध्या का! ताज्जुब कि इस गड़बड़ाए हुए मनोविज्ञान पर अब किसी को कोई ताज्जुब नहीं होता!

दिवंगत शलभ श्रीराम सिंह, युयुत्सावाद के प्रवर्तक हिंदी कवि, कहते थे कि ताज्जुब तो तब होता जब अयोध्या में खेले गए ढेर सारे गर्हित खेलों के बावजूद यह मनोविज्ञान बिगड़ने से बच जाता और पीछे छूटे जा रहे सपने अपने आगे-आगे चल रही चिंताओं की छाती पर चढ़कर उनसे पुराना हिसाब-किताब निपटा लेते! पूछा था उन्होंने भी कि जब कोशल में रात गहराती जा रही है, तुम खुद को अंधेरे के जाये तमाम निरर्थक उद्वेलनों और धर्म व राजनीति की चक्कियों में निर्दोषों की पिसाई के भयावह शोर में गुम करने पर क्यों तुले हो?

लेकिन क्या करूं, बिगड़ा मनोविज्ञान भी भूलने की इजाजत नहीं देता कि तब यह सीख, कि दीये की सबसे ज्यादा जरूरत वहीं होती है, जहां अंधेरा सबसे घना हो, भारी पड़ी थी. लेकिन आज जब अनवरत लुटती-पिटती अयोध्या ‘वहीं’ भव्य मंदिर निर्माण की ‘साक्षी’ बन रही है, न उसमें कोई राम नजर आता है, न अश्वघोष और उसके उत्सवों में दीपावली तक इस कदर सरकारी हो चली है कि उसकी कोई सुबह ही नजर नहीं आती तो सबसे ज्यादा खीझ इस बात को लेकर होती है कि दीये की तरह निरंतर जलना लगभग असंभव हो चला है और सीली हुई तीलियों का साजिशन सब-कुछ जलाना देखने की मजबूरी ही जीवन बन गई है!

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आगे कौन-कौन से गुल खिलाएगी यह मजबूरी और इसकी कोख से और क्या-क्या निकलेगा? एक दिन यों ही सोचने लगा तो जवाब अयोध्या के चर्चित अल्पसंख्यक नेता खालिक अहमद खां के पास से आया. उन्होंने बताया कि 1992 में भी हम सबका ऐसी ही मजबूरी से सामना हुआ था.

अलबत्ता, उसका सबसे ज्यादा कहर अल्पसंख्यक समुदाय पर टूटा था. 6 दिसंबर को उसके कई सौ घर व दुकानें फूंक दी गई थीं और कोई डेढ़ दर्जन लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था. इस समुदाय के लिए इससे ज्यादा खराब कुछ हो ही नहीं सकता था. लेकिन अपनी उत्कट जिजीविषा के चलते वह फिर उठ खड़ा हुआ. जल्दी ही उसके कच्चे, फूस व खपरैल और टाट के पर्दे वाले घर पक्के हो गए और उनमें लकड़ी के बजाय लोहे के दरवाजे लग गए.

कैसे संभव हुआ यह सब? समुदाय की आय के साधन तो महज रामनामी बुनना-छापना, खड़ाऊं बनाना, कपड़े सिलना, इक्के या टेंपो चलाना, फूलों की खेती करना और मंदिरों के लिए फूल मालाएं तैयार करना भर थे (अभी भी वही हैं) और उसके उपद्रव पीड़ितों को मिली सरकारी मुआवजे की राशि भी बहुत नहीं थी.

खालिक ने बताया-यह चमत्कार जीवन के प्रति समुदाय के सकारात्मक सोच ने किया. इस सोच से ही उसके लोग यह सिद्ध कर पाए कि मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है! घृणा की सारी राजनीति के बावजूद उन्होंने आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत किया. और हां, यह सब आईएसआई के पैसे से नहीं हुआ, जैसा कि घृणा के पैरोकार कहते हैं.

तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाए कि सरकारों द्वारा प्रायोजित सारी चमक-दमक और विकास के बावजूद अयोध्या की त्रासदियों का सबसे बड़ा शिकार उसका वह समुदाय ही हुआ है, जिसके धर्म का नाम ले लेकर प्रायः आसमान सिर पर उठाया जाता रहा है?

खालिक का जवाब था- हां, यह पूरी तरह सच है और इस सिलसिले में एक दृष्टिकोण यह भी है कि अल्पसंख्यकों का जीवनस्तर थोड़ा बेहतर इसलिए हुआ है क्योंकि उनके सामने अपनी जिंदगी को नए सिरे से परिभाषित करने की चुनौती थी. दरअसल , इस चुनौती से निपटने में उनके वे कामधंधे सहयोगी सिद्ध हुए, जो आमतौर पर अयोध्या के लोगों की ऐसी जरूरतें पूरी करने से जुड़े रहे हैं, जिनमें कभी किसी भी तरह की कटौती संभव नहीं.

इसके विपरीत अयोध्या के संत-महंत और गृहस्थ ज्यादातर श्रद्धालुओं से होने वाली आय पर ही निर्भर करते हैं, जो इस दौर के बेवजह के हड़बोंगों से ऊपर-नीचे होती रही है. 1986 से 1992 तक और उसके बाद भी अयोध्या जैसी अव्यवस्था की साक्षी बनी, उसने नगरी के रामकोट के सबसे समृद्ध इलाके के दर्जनों मंदिरों का वैभव ही खत्म कर डाला. अलबत्ता, अब भव्य राम मंदिर बन रहा है और 22 जनवरी को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद वह खुलेगा तो…!

मैंने बीच में ही उन्हें टोका- सारे देश से श्रद्धालु और पर्यटक अयोध्या आएंगे और उसके संतों-महंतों की झोली भर जाएंगे! यही कहना चाहते हैं न? लेकिन मुझे लगता है कि झोली सिर्फ भव्य राम मंदिर वालों की भरेगी, जो पहले से ही कुछ ज्यादा भरी हुई है. श्रद्धालुओं का ज्यादातर चढ़ावा उधर का ही रुख करेगा और दूसरे ज्यादातर मंदिरों के इंतजार ही हाथ आएगा.

खालिक मेरी बात को टालते हुए से बोले- मैं दूसरी बात कहता हूं. अयोध्या में मंदिर मस्जिद का सिर्फ एक ही झगड़ा था, जो निपट गया. मगर मंदिरों पर कब्जेदारी के अनगिनत झगड़े हैं. उनको लेकर खूंरेजी होती रहती है. एक-एक मंदिर के चार-चार दावेदार हैं और वे इस छोटी-सी बात पर भी सहमत नहीं होते कि मंदिरों का अंदर नहीं तो बाहर-बाहर ही ठीक से रंग-रोगन करा दिया जाए. सो, गिरते-पड़ते व उजाड़ होते मठ-मंदिर उसकी पहचान बन गए हैं और उनके लिए सरकारी सहायता व अनुदान ऊंट के मुंह में जीरा सिद्ध हो रहे हैं.

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खालिक चले गए तो मैं अयोध्या की दूसरी विडंबनाओं पर सोचने लगा, जिनके कारण उसके दोनों पांवों में चक्कियां बंधी हुई हैं. एक में राजनीति की और दूसरे में धर्म की. इनसे छुटकारा न पाने के कारण न वह अपने प्रगतिशील मूल्यों को बचा पा रही है, न समृद्धि की ओर बढ़ पा रही है. अलबत्ता, सरकारी खजाने से अपने नाम पर हो रहा भारी अपव्यय देखने को अभिशप्त है.

एक विडंबना यह भी कि कहा जाता है कि अयोध्या और राम सबके हैं- लेकिन वैसे ही, जैसे सारे देशवासी मनुष्य हैं पर उनके वर्ण, वर्ग और जातियां अलग-अलग हैं. अयोध्या में प्रायः हर जाति के अलग-अलग मंदिर हैं और सबके अपने-अपने राम. पिछड़ी और दलित जातियों ने कभी अपने अलग मंदिर इसलिए बनाए होंगे कि वे वहां स्वतंत्रतापूर्वक पूजा-पाठ कर सकें. अब प्रायः सारे मंदिरों में इतनी ‘उदारता’ देखी जा सकती है कि मेले-ठेले या भीड़ के रेले में कोई भी किसी भी मंदिर में प्रवेश कर सकता है. वहां कोई उसकी जाति नहीं पूछता. लेकिन मंदिरों के इर्द-गिर्द झाडू लगाने वाला कोई दलित उस तरह अपनी पहचान जताकर सहजता से अंदर नहीं जा सकता.

हां, मंदिर किसी भी जाति के लोगों का हो, पुजारी आमतौर पर ब्राह्मण ही हो सकता है. दूसरी जाति का व्यक्ति महंत होने के बावजूद पुजापे की पात्रता नहीं हासिल कर सकता. कहते हैं कि दूसरी जाति का पुजारी होने पर मंदिर का चढ़ावा घट जाता है. क्योंकि श्रद्धालु ब्राह्मण पुजारी के पैर छूकर आशीर्वाद लेने को ज्यादा पुण्यप्रद मानते हैं.

मंडल कमंडल के संघर्ष के दौरान अयोध्या के अन्य पिछड़ी जातियों के कई महंतों ने अलग लाइन लेकर अपनी पहचान बनाई और सवर्णाें का वर्चस्व तोड़ते नजर आए थे, लेकिन पिछड़ी जाति के महंत युगलकिशोर शरण शास्त्री की मानें, तो मंदिर आंदोलन का सारा लाभ सवर्ण महंतों के खाते में ही गया. बड़े महंत और बड़े हो गए और जो छोटे थे, उनके लिए अपनी स्थिति बनाए रखना कठिन हो गया.

प्रसंगवश, मोटे तौर पर संत-महंतों की दो कोटियां हैं. एक सूत्र यानी यज्ञोपवीतधारी और दूसरी माला या कंठीधारी. सूत्रधारी का मतलब ब्राह्मण और कंठीधारी का मतलब अन्य पिछड़ी जातियों का. लेकिन महिलाओं के लिए इनमें से किसी भी कोटि में कोई जगह नहीं है. पूरे अयोध्या में एक भी महिला महंत नहीं है.

लक्ष्मण किलाधीश सीतारामशरण की शिष्या डॉ. सुनीता शास्त्री, जो पहले करपात्री जी की शिष्या थीं, वाल्मीकि रामायण की गंभीर अध्येता होने के बावजूद उत्तराधिकार में महंती नहीं पा सकीं. इसीलिए लोग बार-बार कहते हैं कि अयेाध्या बस राम की होकर रह गई, सीता की भी नहीं हुई.

इकलौता माईबाड़ा ही इसका अपवाद है, जहां जमाने या संतों-महंतों की सताई हुई स्त्रियों की अपनी सत्ता है. माईबाड़ा में बदले हुए देश व समाज का असर साफ दिखता है. वहां अब नई ‘माइयां’ कम आती हैं. पहले वे बिहार और नेपाल वगैरह तक से आती थीं. शायद यह महिला सशक्तिकरण और सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाओं का असर है कि उन्हें अपना घर छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती. हिंदू उत्तराधिकार कानून में बदलाव और वृद्धा व विधवा पेंशन की भी इसमें भूमिका बताई जाती है.

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कहना जरूरी है कि आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है. पहले कहा जाता था कि हिंदू-मुसलमानों के बर्तन अलग हैं पर दिल एक है. अब बर्तन तो ज्यादा अलग नहीं रहे पर दिल ज्यादा दूर होते लगते हैं. इस नगरी के सपने इसलिए भी पीछे छूट रहे हैं कि गश खाते-खाते वह यह समझने में नाकाम हो गई है कि उसके सपने क्या हों? देश के लिए क्या हों और अपने लिए क्या?

भरपूर राजनीतिक व धार्मिक धूर्तताओें के बीच एकमात्र हिंदुत्व की केंद्र होना उसे रास नहीं आता और उसके बहुधर्मी रूप के दुश्मन थकने को नहीं आ रहे. अपनी धरती पर आने वाले श्रद्धालुओं को वैशाली के ही एक कवि के शब्दों में यह ‘बताने’ और ‘ठगने’ की विडंबना से वह फिर भी मुक्त नहीं हो पाती कि-

हां, यहीं रहता था/ वह बाबा/ जिसने अपनी किशोरावस्था में/गुरु से ब्रह्मचर्य का उपदेश सुनकर/खुरपी से अपना शिश्न काट कर/फेंक दिया था./हां, यहीं रहता था /वह बाबा, जिसकी वृद्धावस्था में/ उच्छिन्न शिश्न का प्रदर्शन/ उसके जीविकोपार्जन का/ एकमात्र साधन रह गया था

नंदकिशोर नवल अपनी इस कविता के अंत में पूछते हैं- यह जीव पर ब्रह्म की विजय है या ब्रह्म पर जीव की?

लेकिन मेरे पास उन्हें देने के लिए कोई जवाब नहीं है. आपके पास है क्या? नहीं? तो आप ही बताइए, मैं अपने कोशल की इस लंबी होती जा रही रात का क्या करूं? कैसे सहूं इसे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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