भोपाल गैस पीड़ितों को मदद देने में मध्य प्रदेश के अधिकारियों ने असंवेदनशीलता बरती: कोर्ट समिति

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी समिति ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट को सौंपी रिपोर्ट में गैस पीड़ितों के इलाज में बरती गई कई ख़ामियां दर्ज की हैं. इसने बताया है कि भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग द्वारा संचालित अस्पतालों में 1,247 स्वीकृत पदों में से 498 रिक्त हैं. सुपर स्पेशलिस्ट और विशेषज्ञों के ज़्यादातर पद ख़ाली हैं.

भोपाल स्थित शासकीय शाकिर अली खान गैस राहत अस्पताल. (फोटो: दीपक गोस्वामी/द वायर)

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी समिति ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट को सौंपी रिपोर्ट में गैस पीड़ितों के इलाज में बरती गई कई ख़ामियां दर्ज की हैं. इसने बताया है कि भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग द्वारा संचालित अस्पतालों में 1,247 स्वीकृत पदों में से 498 रिक्त हैं. सुपर स्पेशलिस्ट और विशेषज्ञों के ज़्यादातर पद ख़ाली हैं.

भोपाल स्थित शासकीय शाकिर अली खान गैस राहत अस्पताल. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

नई दिल्ली: भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए डॉक्टरों की कमी से लेकर उनके मेडिकल रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण न होने तक – सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त निगरानी समिति ने गैस पीड़ितों के इलाज में बरती जा रही ऐसी कई खामियां मध्य प्रदेश हाईकोर्ट को गिनाई हैं, जिसने तीन वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू कर दी है.

2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई भोपाल गैस त्रासदी में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के कीटनाशक संयंत्र से अत्यधिक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था, जिससे हजारों लोग मारे गए थे और लाखों लोग आज भी दीर्घकालिक प्रभावों से जूझ रहे हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, निगरानी पैनल ने अब पिछले कुछ वर्षों में पीड़ितों को प्रदान की जाने वाली स्वास्थ्य देखभाल में गंभीर खामियों को उजागर किया है. उदाहरण के लिए, भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग द्वारा संचालित अस्पतालों में 1,247 स्वीकृत पदों में से 498 रिक्तियां हैं. निगरानी समिति ने अपनी अनुपालन रिपोर्ट में इस पर प्रकाश डालते हुए इसे हाईकोर्ट को सौंप दिया है.

इसके अलावा, सुपर स्पेशलिस्ट के 27 पदों में से 20 रिक्त हैं. विशेषज्ञों के लिए आरक्षित 51 पदों में से 24 खाली थे.

ऐसा तब है जब सुप्रीम कोर्ट पहले भी इस पर प्रकाश डाल चुका है कि ‘अस्पतालों और संबद्ध विभागों में डॉक्टरों और सहायक कर्मचारियों की बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं’ और अधिकारियों को निर्देश दिया था कि वे ‘न केवल रिक्तियों को भरने के लिए उचित कदम उठाएं, बल्कि ऐसा बुनियादी ढांचा और सुविधाएं भी प्रदान करें जिससे डॉक्टर इस्तीफा देने के लिए मजबूर न हों.’

अपनी अनुपालन रिपोर्ट में निगरानी समिति ने कहा कि इस निर्देश का ‘इस हद तक अनुपालन नहीं किया गया कि राज्य सरकार के गैस राहत और पुनर्वास विभाग द्वारा संचालित सभी अस्पतालों में विशेषज्ञों/डॉक्टरों/कर्मचारियों की कमी है.’

इतना ही नहीं, अनुपालन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ‘जबकि 6 गैस राहत अस्पतालों को कम्प्यूटरीकृत किया गया है, लेकिन मेडिकल रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण नहीं किया गया है.’ इसके अलावा, 4.6 लाख पीड़ितों को स्वास्थ्य पुस्तिकाएं भी प्रदान नहीं की गई हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में ऐसा करने के लिए कहा था.

सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में निगरानी समिति का गठन किया था और 2012 में विशिष्ट निर्देश पारित किए थे. 2015 में पीड़ितों के कल्याण के लिए काम करने वाले संगठन, भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन, ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के समक्ष एक अवमानना याचका दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया गया है.

अंतत:, पिछले साल 20 दिसंबर को हाईकोर्ट ने कहा था: ‘साढ़े दस साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद उत्तरदाताओं ने निर्देशों का पालन करने में कोई तत्परता या ईमानदारी नहीं दिखाई है, जिसने गैस पीड़ितों को अधर में छोड़ दिया है.’

अदालत ने भोपाल गैस त्रासदी राहत तथा पुनर्वास विभाग के सचिव और राष्ट्रीय सूचना केंद्र के दो राज्य सूचना अधिकारियों समेत तीन वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू की, साथ ही कहा कि ‘उन्होंने अनुपालन की प्रक्रिया में टांग अड़ाते हुए जनहित याचिका की अवधारणा को निरर्थक बनाने के लिए अपने स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया.’

अदालत ने इसे गैस पीड़ितों के प्रति उत्तरदाताओं की असंवेदनशीलता करार दिया.