अयोध्या में जब एक संन्यासी ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध डाला था महीनेभर तक डेरा

दयानंद सरस्वती कहते थे कि एक तो मूर्तिपूजा अधर्म है और दूसरा यह देश की एकता के लिए ख़तरनाक़ है.

स्वामी दयानंद सरस्वती, बैकग्राउंड में अयोध्या में सरयू नदी. (फोटो साभार: Wkipedia)

दयानंद सरस्वती कहते थे कि एक तो मूर्तिपूजा अधर्म है और दूसरा यह देश की एकता के लिए ख़तरनाक़ है.

स्वामी दयानंद सरस्वती, बैकग्राउंड में अयोध्या में सरयू नदी. (फोटो साभार: Wkipedia)

‘मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं, वह जंगम प्राणी है. निरंतर चलते रहना, देश-काल और संकीर्णताओं से परे होकर काम करना, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहना उसका कर्तव्य है. धैर्य, क्षमा, संयम, आंतरिक और बाह्य पवित्रता रखना, सत्कर्म में रत रहना, यथार्थ ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहना और सदैव से क्रोध से दूर रहकर मानवीयता के रास्ते पर चलना ही उसका धर्म है. जिसने इसे छोड़ा वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है.’

स्वामी दयानंद सरस्वती, पुनर्जागरण आंदोलन के एक प्रमुख साधु

 कई बार धर्म की बात करना धार्मिक होना नहीं होता है. धर्म कुछ और होता है और धर्म के नाम पर की जाने वाली बातें और उसके नाम से किए जाने वाले उपक्रम कुछ और मंतव्य लिए होते हैं. इसी तरह ईश्वर और ईश्वर के नाम पर जो कुछ हो रहा है, आवश्यक नहीं कि वह वास्तव में ईश्वर से संबंध रखता ही हो. पाखंडियों और पाखंड मत की लीला बहुत न्यारी है.

कुछ इस अंदाज़ में बोलते-गरजते-लरजते हुए फ़र्रूखाबाद, काशी, वाराणसी, जौनपुर आदि शहरों-कस्बों से होते हुए 52 साल का एक कद्दावर संन्यासी 18 अगस्त, 1876 को अयोध्या पहुंचा और सरयूबाग स्थित चौधरी गुरुचरणलाल के मंदिर में ठहरा. इस साधु ने अयोध्या के पंडितों को ललकारते हुए एक विज्ञापन प्रसारित किया, मूर्तिपूजा आदि कृत्य पौराणिक हैं और इनका ईश्वर भक्ति से कोई संबंध नहीं. अगर कोई मूर्तिपूजा को सही मानता है तो वह आकर शास्त्रार्थ करे.

इस संन्यासी की ललकार ने अयोध्या के पंडितों, मंदिरों के पुजारियों और अयोध्या के धार्मिक वातावरण में एक अपूर्व हलचल पैदा कर दी. उनका कहना था कि प्रभु भक्ति का मतलब है समस्त जीवों, प्राणियों, मनुष्यों और प्रकृति के समस्त उपपादों का संरक्षण. मानव समाज को नैतिक रूप से श्रेष्ठ बनाना और हर प्रकार के झूठ-पाखंड-चालाकियों आदि से मुक्त जीवन जीना. भविष्य की आहट को पहचानना और समूचे संसार को प्रेम करना और सत्य की राह पर चलना.

यह संन्यासी कोई और नहीं, स्वामी दयानंद सरस्वती थे.

दयानंद सरस्वती ने अपने तर्काें की तनी हुई प्रत्यंचा का आधार वेदों की ऋचाओं के सधे हुए धनुष को बनाया था. वे संस्कृत के असाधारण विद्वान थे और वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत की अर्थभिन्नता को साबित करते हुए रूढ़ियों पर ख़तरनाक़ प्रहार कर रहे थे.

‘नवजागरण के पुरोधा : दयानंद सरस्वती’ के लेखक और प्रसिद्ध विद्वान डॉ. भवानीलाल भारतीय बताते हैं, ‘कुछ वर्णनों के अनुसार ऐसा लग रहा था, अयोध्या के आकाश पर उन दिनों मानो कोई गरजता बादल ठहर गया था और वह पंडितों-बैरागियों और मंदिर प्रबंधकों पर बिजलियां गिरा रहा था.’

दयानंद की वाग्मिता से भयभीत अयाेध्या के पंडित और पुजारी इस नगरी के रईस राजा त्रिलोकीलाल के पास गए और सहायता मांगी. राजा त्रिलोकीलाल ने पंडितों से कहा कि स्वामी दिलचस्प साधु प्रतीत होते हैं और उनसे अवश्य ही शास्त्रार्थ करना चाहिए. स्वामी जी को संदेश भेजा गया कि वे अयोध्या नगर के भीतर आकर पंडितों से शास्त्रार्थ करें.

भारतीय लिखते हैं, ‘इस प्रस्ताव में एक चालाकी थी. उनका अभिप्राय था कि यदि स्वामी जी यहां आकर शास्त्रार्थ करेंगे तो शास्त्र चर्चा में चाहे उन्हें पराजित नहीं किया जा सके, धींगामुश्ती और हुल्लड़बाजी से उन्हें पराजित करना सुकर होगा.’

भारतीय के अनुसार, स्वामी जी अयोध्या के उद्दंड वैरागी समुदाय तथा महंत मंडल के अभिप्राय को समझ गए थे. उन्होंने इसके जवाब में स्पष्ट किया कि यदि पंडित लोग शास्त्रार्थ के लिए उत्सुक हैं तो उनके निवास स्थान सरयूबाग में ही आ जाएं. शास्त्रार्थ वहीं उचित होगा, अन्यत्र नहीं.

यह एक साधु का अस्थायी निवास था और अयोध्या की प्रसिद्ध जगह थी. लेकिन कोई भी पंडित शास्त्रार्थ के लिए स्वामी जी के स्थान पर नहीं आया.

स्वामी जी अयोध्या में 27 सितंबर, 1876 तक रुके. वे इस दौरान मंदिर-मूर्तिपूजा, अवतारवाद और तरह-तरह के पाखंडों का विरोध करते हुए धर्म के भीतर आ चुकी बुराइयों को एक-एक कर गिनाते रहे और अयोध्या की पौराणिक धमनियों में एक बेचैनी पैदा करते रहे.

इस संन्यासी ने देखा कि अयोध्या में साधुओं और संन्यासियों की बहुत बड़ी संख्या है. इस पर उन्होंने प्रसिद्ध उक्ति रमता जोगी, बहता पानी निर्मला  का अर्थ समझाया और कहा कि सच्चे साधु या संन्यासी को कभी भी एक जगह पर सदा के लिए नहीं रुकना चाहिए. जैसे पानी एक जगह रुक जाने से सड़ जाता है, वैसे ही साधु भी एक जगह ठिकाना बना लेने से जड़ हो जाता है. और धर्म का ध्येय ही है, जड़ता से मुक्ति.

वे समझाते, एक जगह रुकने से जड़ता आती है, जड़ता दुराचार को जन्म देती है, पक्षपाती बनाती है और इस सबसे मन की शांति नष्ट होती है और जिसका मन शांत नहीं, उसकी आत्मा योगी नहीं. और जिसकी आत्मा योगी नहीं, वह संन्यासी का बाना पहनकर भी संन्यासी नहीं. वह पक्का स्वार्थी और पक्षपाती है.

इस संन्यासी ने कई प्रवचनों में ललकार कर कहा, जो अविद्या में खेल रहे हैं, अपने को धीर और पंडित मानते हैं, वे बाकी लोगों को भी दुर्दशा की राह पर धकेल रहे हैं.

स्वामी जी ने कहा, मिथ्या प्रपंचों में पड़े हुए लोगों ने मूर्तिपूजा के माध्यम से अपना जाल फैलाया हुआ है और इससे हमारे देश और समाज की अधोगति हो रही है. ये लोग स्वार्थ के लिए भोले-भाले लोगों को फंसाकर अपना प्रयोजन साधते हैं. ये संन्यास आश्रमी नहीं, ये स्वार्थाश्रमी तो पक्के हैं.

उन्होंने धर्म के क्षेत्र में आई बुराइयों, पाप, पलायन और अराजकता पर बार-बार प्रहार किया और धर्म की नगरी की राहों में ऐसी उथल-पुथल पैदा की कि लोग रात के अंधकार में बिजली की कौंध महसूस करने लगे. इससे पहले शायद ही कभी किसी साधु ने इस तरह इस शहर के पंडितों को मूर्तिपूजा और मंदिरवाद के ख़िलाफ़ चुनौती देने का दुस्साहस किया था.

इसी शहर में कुछ साधुओं ने सहज जिज्ञासा में दयानंद सरस्वती से निराकार के बजाय साकार में मन और हृदय के लगने का बड़ा तर्क मूर्तिपूजा और मंदिरों के समर्थन में दिया तो दयानंद ने मूर्तिपूजा और मंदिरवाद को लेकर 15 बड़ी बुराइयों की एक सूची उन्हें थमा दी, जो उनके बेहद विवादास्पद ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 11वें अध्याय में दी गई है.

इस संन्यासी ने जड़ता के काले पत्थरों पर चेतना की झिलमिलाती तरलता से भीगा उद्घोष किया और दो ख़तरनाक़ बातें कहीं, जो उन लोगों ने आज से 148 साल पहले जाने कैसे बर्दाश्त की होंगी. एक तो यह कि मूर्तिपूजा अधर्म है और दूसरा यह देश की एकता के लिए ख़तरनाक़ है.

दयानंद ने ये बातें आज कही होतीं तो शायद उनकी लिंचिंग ही कर दी जाती! हालांकि तब भी उन्हें मूर्तिपूजा समर्थकों ने 24 बार विष देकर मारने की कोशिश की थी और अंतत: एक मूर्तिपूजक ब्राह्मण ने शीशा मिला दूध पिलाकर उन्हें मृत्यु की गोद में सुला दिया था.

लेकिन वे सदा ही निडर होकर कभी अयोध्या तो कभी वाराणसी और कभी हरिद्वार तो कभी पुष्कर में पंडितों को ललकारते रहे और गिनाते रहे कि मूर्तिपूजा और मंदिरवाद कितना ख़राब है.

उन्होंने मूर्तिपूजा की 15 बुराइयां गिनाईं:

एक, मूर्तिपूजा करना धर्म नहीं, अधर्म है.

दो, करोड़ाें रुपये मंदिरों में व्यय करते हैं और प्रमाद फैलाते हैं, लेकिन लोकोपकार का कोई काम नहीं करते.

तीन, मंदिर व्यभिचार और लड़ाई-बखेड़े के केंद्र बन गए हैं. इसके पक्ष में उन्होंने उदाहरण भी दिए.

चार, इसी को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आधार मानकर पुरुर्षार्थ रहित होकर मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवाते हैं.

पांच, ये ऐक्यमत को नष्ट करके, परस्पर विरुद्ध चलकर और आपस में फूट बढ़ाकर देश को क्षति पहुंचाते हैं.

छह, यह भाग्यवाद को बढ़ावा देकर मनुष्य के पुरुषार्थ की चेतना को कुंद करते हैं.

सात, यह ईश्वर की सच्ची भावना के प्रतिकूल है और सत्य के विनाश का मार्ग है.

आठ, धन और धर्म को नष्ट करने और परमार्थ के प्रतिकूल कामों को बढ़ाना है.

नवां, पुजारियों के पास अथाह धन आता है और वे इस पैसे का दुरुपयोग करते हैं.

दसवां, यह ईश्वर और माता-िपता की सच्ची सेवा के लिहाज से एक कृतघ्नता है.

ग्यारहवां, मूर्तियों का संरक्षण कर पाना, उस क्षेत्र की सुरक्षा और स्वच्छता रखना बहुत मुश्किल काम है.

बारहवां, प्रेम, आनंद और अध्यात्म के सच्चे मूल्यों से दूर होना है.

तेरहवां, आपकी एकता को क्षति पहुंचाना है, क्योंकि जाने कितने ही देवता हैं और उनकी मूर्तियां होती हैं.

चौदहवां, जड़ का ध्यान करने से अंत:करण में जड़ता आती है.

पंद्रहवां, परमपिता ने प्रकृति, फूल, प्राकृतिक चीज़ें इस सृष्टि में संरक्षण के लिए सहेजी हैं. लेकिन मूर्तियों और मंदिरों के कारण हर दिन असंख्य अकूत फूलों का विनाश हम देखते हैं.

दयानंद सरस्वती के इन तर्कों का बहुत विराेध हुआ और उन पर जान की बन आई. लेकिन वे निर्भीकता से पूरे देश में घूमते हुए पौराणिकवािदयों को ललकारते रहे.

उन्हें जाने कितनी ही बार प्रलोभन दिए गए कि वे मूर्तिपूजा का विरोध बंद कर दें तो उन्हें वैभवशाली मंदिर सौंपे जा सकते हैं. लेकिन इस साधु ने कहा, तुम मेरे कानों में शीशा ही क्यों न उंड़ेल दो, मेरी आवाज़ लाेगों तक पहुंचने से नहीं रुकेगी.

और उस विद्राेह के स्वागत में जाने कितनी ही आत्माएं ठिठकीं और धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंडों के अपराधबोध से मुक्त होकर देश में आधुनिक शिक्षा और एक नई जीवनशैली का सूत्रपात किया.

उस ब्रिटिश शासन व्यवस्था में यह साधु उस परित्यक्त वसंत को लाने में सफल रहा, जिसकी बयार में कितने ही विवेकवादी क्रांतिकारियों ने जन्म लिया और इस देश को एक ललछौंही दीप्ति से युक्त चेतना का नया सूरज दिया. उस सूरज की रोशनी ने एक सेतु बनाया, जो प्राचीन भारत की विवेकवादी सोच को एक नए वैज्ञानिक और विवेकशील युग के आकाश में नए हिमकणों की बारिश में बदल दिया था.

लेकिन यह क्या कि आज उनके बहुत से अनुयायी उसी राह पर हैं, जिसे यह संन्यासी कभी अधर्म, जड़ता की राह और देश की एकता के लिए ख़तरा करार दे चुका था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)