कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राम की महिमा है कि उनकी स्तुति में शामिल होकर हत्यारे-लुटेरे-जघन्य अपराधी अपने पाप धो लेंगे और राम-धवल होकर अपना अपराधिक जीवन जारी रखेंगे. राम की महिमा है कि उन्होंने इतना लंबा वनवास सहा, अनेक कष्ट उठाए जो यह तमाशा, अमर्यादित आचरण भी झेल लेंगे.
राम की महिमा है कि उनके मंदिर को कथित रूप से ध्वस्त कर एक मस्जिद ऐसे बनाई गई कि सर्वोच्च न्यायालय को मंदिर होने का कोई सुबूत नहीं मिला और उसने मस्जिद के ध्वंस को ग़ैरक़ानूनी घोषित करते हुए भी, वह जगह राम का भव्य मंदिर बनाने के लिए दे दी.
राम की महिमा है कि अब उस जगह बने-अधबने में उनकी मूर्ति की प्रतिष्ठा कोई धर्माचार्य नहीं, एक बेहद लोकप्रिय राजनेता करेंगे.
राम की महिमा है कि देश के चार सुप्रतिष्ठित धर्माचार्य, चार पीठों के शंकराचार्यों ने अधूरे मंदिर में एक राजनेता द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करने पर आपत्ति की है और इस भव्य समारोह में उपस्थित होने से मना कर दिया है.
राम की महिमा है कि शास्त्रों के हिसाब से पूस महीने में ऐसी प्राण प्रतिष्ठा अनुपयुक्त और अनिष्ठ होते हुए भी की जा रही है, स्वयं उनके जन्मदिन रामनवमी पर नहीं.
राम की महिमा है कि कई अख़बार और कई बड़े लोकप्रिय टीवी चैनल अभी से राम-ख़बर बन गए हैं और अगले लोकसभा चुनाव तक बने रहेंगे.
राम की महिमा है कि विपक्ष के अनेक नेताओं ने इस समारोह से, उसके पूरी तरह से राजनीतिक होने के कारण, उससे अपने को अलग कर लिया है.
राम की महिमा है कि इस समारोह का बॉयकाट करने वालों को मीडिया का एक बड़ा हिस्सा राम और सनातन धर्म का विरोधी बताने के अभियान में बहुत उत्साहित और सक्रिय होकर जुट गया है.
राम की महिमा है कि प्राण प्रतिष्ठा के दिन हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा उसे राम की वापसी और विजय के पर्व के रूप में दीये जलाकर मनाएगा.
राम की महिमा है कि संवैधानिक मर्यादाओं का पूरी तरह से उल्लंघन कर केंद्र और कई राज्य सरकारें मर्यादा पुरुषोत्तम का उत्सव मनाएंगे.
राम की महिमा है कि देश के न्यायालय यह सब होते हाथ पर हाथ धरे देखेंगे और कुछ नहीं करेंगे. हो सकता है कि कुछ न्यायाधीश इस समारोह में शामिल भी हों.
राम की महिमा है कि उनकी स्तुति में शामिल होकर हत्यारे-लुटेरे-जघन्य अपराधी-बलात्कारी आदि अपने पाप धो लेंगे और राम-धवल होकर अपना अपराधिक जीवन जारी रखेंगे.
राम की महिमा है कि उन्होंने इतना लंबा वनवास सहा, अनेक कष्ट-दुख उठाए जो यह सब तमाशा अमर्यादित आचरण आदि भी झेल लेंगे.
राम की महिमा है कि वे कहीं गए नहीं हैं, फिर भी वापस आएंगे.
राम की महिमा है कि रामराज्य का एकमात्र स्थपति मोहनदास करमचंद गांधी, जहां भी होगा, फिर कहेगा: ‘हे राम’! हो सकता है कि ढोल-मंजीरे, कीर्तन-स्तुति, मंत्रोच्चार के कुमुल कोलाहल में यह चीख़ स्वयं राम को सुनाई ही न दे!
साहित्य और आस्था
परंपरा और आधुनिक काल में भी बहुत-सा साहित्य आस्था से प्रेरित होकर लिखा गया है. पर, दूसरी ओर, बहुत सारा साहित्य आस्था से झगड़ते, उसे प्रश्नांकित करते, उससे विरक्त होकर भी लिखा गया है. दोनों को ही मान्यता और लोकप्रियता मिलती रही है. यह भी देखा जा सकता है कि कम से कम हमारे यहां आस्था में संशय का प्रवेश ऋग्वेद से ही हो गया था.
कई बार अलग-अलग आस्थाओं में द्वंद्व भी होता आया है, साहित्य के परिसर में. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आस्थाएं कई प्रकार की होती हैं- नैतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि. आधुनिक काल में हमने यह भी देखा है कि ज़रूरी नहीं है कि कई तरह की आस्थाओं के बीच सहअस्तित्व, परस्पर संवादशीलता हो. एक तरह की आस्था सब तरह की दूसरी आस्थाओं को अपवर्जित कर सकती है. जो उस आस्था-विशेष के पाले में हो वह स्वीकार्य है, जो नहीं हो वह अस्वीकार्य, लगभग शत्रु.
इन दिनों यह बात बार-बार दोहराई जा रही है कि राम आस्था का विषय हैं. इसमें संदेह नहीं कि राम एक बड़े जनसमुदाय की आस्था का विषय हैं. पर यह नहीं भूलना चाहिए कि वे साहित्य का विषय भी रहे हैं. ऐसे ऐतिहासिक तथ्य और तर्क जुटाए जा सकते हैं कि जिनसे यह प्रमाणित किया जा सके कि राम मुख्यतः और शायद प्रथमतः भी साहित्य से उपजे हैं.
यह तर्क भी अपनी जगह मौजूं होगा कि जो साहित्य से उपजा या उसका विषय हो उस पर स्वाभाविक रूप से साहित्य की आस्था होती ही है. यह कहना आपत्तिजनक माना जा सकता है कि साहित्य की अपनी संतान यानी राम पर आस्था अनिवार्य है. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य में राम के रूप और आशय बदलते रहते हैं: वाल्मीकि, भवभूति, कबीर, तुलसीदास, कंबन आदि और बौद्ध और जैन साहित्य में राम एक जैसे नहीं है और साहित्य के अपने न्याय से ऐसे हो भी नहीं सकते थे.
यह देख पाना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि साहित्य, आस्था और स्वयं राम अपरिवर्तनीय नहीं हैं, न रहे हैं. यही परिवर्तनशीलता उन्हें, एक अर्थ में, सनातन बनाती है. भवभूति के यहां अपनी लगभग भर्त्सना करते हुए कहते हैं, अपने ही हाथ से, कि जब यह निरपराध शंबूक का वध करते हुए नहीं कांपा तो सीता को गर्भवती होने के बावजूद वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ने भेजने पर क्यों कांप रहा है! तुलसीदास के राम अयोध्या में राज्याभिषेक हो जाने के बाद वहां के नागरिकों को संबोधित करते हुए आग्रह करते हैं कि अगर उनसे कुछ अनीति हो जाए तो वे उन्हें यानी राम को बिना भय के टोकें.
इस समय प्रश्नातीत निस्संशय, बाक़ी आस्थाओं को सिरे से अस्वीकार करती आस्था का जो सैलाब है उसमें जो डूबेगा वह ज़रूरी नहीं कि पार लगे. इस सैलाब से अलग रहकर बहुलता, संवाद और साहित्य की सृजनशील आस्था में बने रहना कठिन भले हो, ज़रूरी है. शायद यह राम की साहित्यिक-कलात्मक उपस्थिति के अधिक अनुरूप भी- रामोचित!
मुंबई में कविता-समारोह
पोएट्रीवाला प्रकाशन, अभिधा नंतर और मराठी कवि हेमंत दिवटे ने मिलकर मुंबई में एक अंतरराष्ट्रीय कविता समारोह पिछले दिनों आयोजित किया. उसमें मराठी, हिंदी, अंग्रेज़ी, बांगला, कन्नड़ आदि के भारतीय कवियों के अलावा क्यूबा, ग्रीस, मैक्सिको, क्रोएशिया आदि कई देशों के कवि शामिल हुए. ‘कविता और स्वतंत्रता’ विषय पर उद्घाटन वक्तव्य देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया.
मैंने समापन तो किया यह कहकर कि ‘हालांकि दुनिया इन दिनों हर दिन पिछले से ज़्यादा अंधेरी होती जाती है, हम भाग्यवान हैं कि हम मनुष्य के रूप में बचे हुए हैं, कवि के रूप में सक्रिय हैं, कि हम अभी भी रच सकते, कल्पना कर सकते, जीवन और सचाई को प्रश्नांकित कर सकते और उनका उत्सव मना सकते हैं और बावजूद इसके कि स्वतंत्रता पर निरंतर तेज़ हमले हो रहे हैं, हम अब तक स्वतंत्र हैं’.
कविता और स्वतंत्रता का रिश्ता जटिल है, रहा है. कविता के लिए स्वतंत्रता स्थिति भी है और आकांक्षा भी. कविता को स्वतंत्रता चाहिए कि कवि जैसा चाहें कैसा लिख सकें, अपने संसार-बोध को पूरी जटिलता और सूक्ष्मता में व्यक्त-विन्यस्त कर सकें, मानवीय स्थिति और समय की विडंबनाओं-तनावों-अंतर्विरोधों का अन्वेषण कर सकें और मानवीय संकट के बारे में साहस-कल्पना-अंतःकरण से लिख सकें. ऐसी स्वतंत्रता आदर्श है पर वह लगभग कहीं भी पूरी तरह से मिलती नहीं है.
स्वतंत्रताएं कई तरह की हैं और कई बार वे एक-दूसरे से तालमेल रखने के बजाय वे एक-दूसरे को बाधित-खंडित कर सकती हैं. किसी समाज में हो सकता है राजनीतिक और क़ानूनी स्वतंत्रता तो हो पर आर्थिक स्वतंत्रता नहीं और कहीं आर्थिक स्वतंत्रता हो सकती है, सख़्त राजनीतिक बंधनों के साथ. यह भी हुआ ही है कि कई स्वतंत्रताएं हों पर आध्यात्मिक स्वतंत्रता या मुक्त चिंतन की स्वतंत्रता न हो. कविता इन स्थितियों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती.
हमारे समय में, ऐसा लगता है, कविता की स्वतंत्रता को कम करने, घटाने, सीमित करने की शक्तियां स्वतंत्रता को बनाए-बचाए रखने और बढ़ाने की शक्तियों से कहीं अधिक सक्रिय-सबल हैं. हमने यह भी देखा है कि जिन समाजों में राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता नहीं रही है, वहां कविता ने एक तरह की आध्यात्मिक स्वतंत्रता रची और उस पर इसरार कर प्रतिरोध किया है.
एक तरह से, बिना किसी के द्वारा नियुक्त या अधिकृत किए गए, अराजक ढंग से, कवि और लेखक स्वतंत्रता की पहरेदार और गवाह बनते रहे हैं. यह उन्हें अक्सर अवज्ञाकारी नागरिक बना देता है. कविता हर स्थिति में अपना स्वराज खोजती, स्थापित करती है और अपनी कल्पना में, सारे अड़ंगों के रहते, स्वतंत्र रहती है.
भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान कवि-लेखकों ने कविता और साहित्य में स्वतंत्रचेता होकर लिखा. उन्होंने जनमानस में, इस तरह, स्वतंत्रता की अलख जगाई. जैसे पानी अंततः कोई न कोई रास्ता बहने का, रिसने का बना ही लेता है, कविता भी स्वतंत्रता के लिए कोई न कोई रास्ता खोज लेती है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)