जहां तक धार्मिक आस्थाओं की बात है, उन्हें यों भी समझ सकते हैं कि प्राय: सभी धार्मिक समूहों में ऐसी पवित्र पुस्तकें और बानियां हैं, जिन्हें परमेश्वरकृत ‘परम प्रामाणिक सत्य’ माना जाता है. इनमें आस्था इस सीमा तक जाती है कि उनमें जो कुछ भी कहा या लिखा गया है, वही संपूर्ण सत्य और ज्ञान है और जो उनमें नहीं है, वह न सत्य है, न ज्ञान.
आस्था, आस्था, आस्था, आस्था. अयोध्या में रामलला की बहुप्रचारित प्राण-प्रतिष्ठा के बहाने आजकल आस्थाओं का कुछ ऐसा कौआरोर मचा है (कहना चाहिए कि जान-बूझकर मचा दिया गया है) कि यह याद करना भी असुविधाजनक हो चला है कि मनुष्य के तौर पर हमारे पास विवेक नाम की भी एक शक्ति हुआ करती है और वही हमें सुमार्ग पर ले जाती है.
तभी तो रामचरितमानस की रचना में प्रवृत्त होते वक्त गोस्वामी तुलसीदास तक विनम्रतापूर्वक ‘कबित बिबेक एक नहिं मोरे. सत्य कहउं लिखि कागद कोरे’ लिखकर रामकथा के वर्णन में अपनी ‘लाचारी’ व्यक्त करते हुए मानते हैं कि उनकी रामकथा को ठीक से वही समझ पाएंगे जिनका विवेक विमल होगा- ‘सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्हके बिमल बिबेक.’
लेकिन हमारे निजी और सामाजिक जीवन के बडे़ हिस्से से विवेक की बेदखली और उसकी जगह प्रतिस्थापित आस्थाओं को अविवेक बरतने की खुली छूट का न यह पहला मामला है, न इसके अंतिम सिद्ध होने की ही उम्मीद है. अंतिम तो यह उसी स्थिति में हो सकता था, जब उक्त खुली छूट देने वाले उसे अनजाने में दे रहे होते.
यहां तो वे जो कुछ भी कर रहे हैं, पूरी तरह सोच-समझ और जान-बूझकर कर रहे हैं. उन्होंने अपनी निरंकुश आस्थाओं को इतनी छुई-मुई भी अनजाने में नहीं ही बनाया कि इसका अनुमान मुश्किल हो जाए कि कब किसके किस कृत्य से किस तरह आहत होकर वे कौन-सा वितंडा खड़ाकर देंगी.
उनके पैरोकार इस तथ्य से भी अनजान नहीं हैं कि वे अपने किसी भी रूप में विवेक का विलोम ही हुआ करती हैं और इसीलिए विवेकाधारित तर्कों-वितर्कों की बिना पर अपने परीक्षण की कोई गुंजाइश नहीं बचने देतीं – जो भी ऐसा करने चले फौरन उसे औकात याद दिलाने लग जाती हैं और ऐसा करने में न सत्य से कोई वास्ता रखती हैं, न प्रकाश से.
उनके पैरोकारों के यह मानने का तो खैर सवाल ही पैदा नहीं होता कि विश्व का समूचा इतिहास गवाह है कि वे अपने किसी भी रूप में सत्य-धर्म की राह रोककर अंधेरा ही फैलाती रही हैं. ऐसा अंधेरा, जो यथार्थ को दृष्टि से ओझलकर दसों दिशाओं व मार्गों को आच्छादित कर लेता है. इस तरह कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अपना रास्ता भूल जाते और इस सीमा तक जड़ताओं के शिकार हो जाते हैं कि अंधकार को ही प्रकाश समझने लगें.
ऐसे में उन्हें यह समझाने के जोखिम और बढ़ जाते हैं कि अंधकार का ‘सृजन’ आस्थाओं की प्रकृति में ही निहित होता है और वे आमतौर पर मिथ्या ज्ञानों, मिथ्या विश्वासों और अविवेक पर आधारित होती हैं. तभी तो ‘पुत्ररत्न की प्राप्ति’ या ‘स्वप्राण रक्षा’ के लिए पराये बालक या जीव की बलि देने और देवी या देवता को प्रसन्नकर मनोकामना पूरी करने के लिए अपनी जीभ काटकर चढ़ा देने जैसे कृत्यों तक ले जाती हैं.
जब भी ऐसी कोई बात चलती है, पैरोकार उन्हें शुभ और अशुभ में बांटकर कहते हैं कि सारी आस्थाएं अनिष्टकारी नहीं होतीं. उनकी मानें तो बुद्धि-विवेक, कर्म और मानवीय सद्गुणों वगैरह में रखी जाने वाली आस्थाएं शुभ और तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और भेदभाव वगैरह में रखी जाने वाली आस्थाएं अशुभ होती हैं. लेकिन तर्क की कसौटी पर उनकी यह बात सही नहीं साबित होती.
चूंकि आस्थाएं अपनी मूल प्रवृत्ति में ही बंधनकारी होती है और सद्बुद्धि को बांधे रखकर विचारों को संकुचित करती व चेतन को जड़ बनाती रहती हैं, इसलिए शुभ बताई जाने वाली आस्थाएं भी कुछ वक्त ही शुभता का भ्रम बनाए रख पाती हैं. इसे यों समझ सकते हैं कि बुद्धि-विवेक, सन्मार्ग और सद्गुणों में आस्था रखने वाले व्यक्ति भी अपनी आस्थाओं के संदर्भ में विवेक का समुचित इस्तेमाल कर मिथ्या-ज्ञानों और मिथ्या-विश्वासों से नहीं बच पाते.
इसके चलते बदलते समय के साथ अवश्यंभावी परिवर्तनों के परिणामस्वरूप समाज में उत्पन्न नए कार्यसाधनों व परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आस्था पर आधारित उनके कार्य और विचार प्रासंगिक नहीं रह जाते तो भी परिवर्तनों को विकृति मानकर अपनी आस्थाओं से बंधे रह जाते हैं. तब उनकी शुभ आस्था भी खुद को अंधकार की जननी और दुर्गति की आधारशिला बनने से रोक नहीं पाती.
हां, मिथ्यामूलक और मिथ्यापोषक होने के कारण आस्थाएं व्यष्टि और समष्टि दोनों के लिए कलह, अशांति, निर्वीयता, आत्महीनता, प्रज्ञाहीनता, गतिहीनता, परमुखापेक्षिता व पतन की सौगातें लाती हैं. इसीलिए प्रज्ञावान, विवेकवान और सच्चा लोक कल्याण चाहने वाले मनीषी प्राचीनकाल से ही इनके पोषण के विरुद्ध मुहिमें चलाते और व्यक्ति, समूह व राष्ट्र को इनसे मुक्ति दिलाने के प्रयत्नों को सर्वश्रेष्ठ सामाजिक कर्तव्य बताते आए हैं, इनके बारम्बार संस्कृति, राष्ट्रवाद, नवजागरण और पुनर्जागरण जैसे आकर्षक खोल ओढ़ने के बावजूद.
जहां तक धार्मिक आस्थाओं की बात है, उन्हें यों भी समझ सकते हैं कि प्राय: सभी धार्मिक समूहों में ऐसी पवित्र पुस्तकें और बानियां (वाणियां) हैं, जिन्हें परमेश्वरकृत या परमेश के आदेशानुसार ईशज्ञानीकृत ‘परम प्रामाणिक सत्य’ माना जाता है.
इन पुस्तकों व बानियों में आस्था इस सीमा तक जाती है कि उनमें जो कुछ भी कहा या लिखा गया है, वही संपूर्ण सत्य और ज्ञान है और जो उनमें नहीं है, वह न सत्य है, न ज्ञान. उनके ‘सत्य’ को खारिज करना कौन कहे, उस पर संदेह करना तक गुनाह है.
मजे की बात यह कि ऐसी पुस्तकें व बानियां खुद को तो कालातीत, सनातन, अलौकिक और जानें क्या-क्या बताती हैं. अन्य सबको अप्रामाणिक मानती हैं और अपनी मान्यताओं व आदेशों के परस्पर-विरोधों व अंतर्विरोधों पर नजर नहीं डालतीं. इस सबके चलते झगड़े, फसाद और युद्ध आदि होते हैं तो उनकी बला से, तत्वचिंतन और ज्ञान की साधना पर अंकुश और कड़े होते हैं तो होते रहें.
क्या आश्चर्य कि उनसे प्रेरित आस्थाएं कभी किसी के कानों में पिघला शीशा डालने को धर्म मान लेती हैं, कभी किसी की जीभ काट लेने को कर्तव्य. कभी किसी गैलीलियो को आजीवन कारावास दिला देती हैं तो कभी किसी मंसूर को सूली पर लटका देती हैं.
समकालीन भारत की बात करें तो आजकल वे अपने विरोधियों के सिर या जीभ काट लेने की हद तक जा पहुंची हैं और इसके लिए भारी-भरकम इनाम घोषित करते भी नहीं डरतीं. याद कीजिए, 1992 में उन लोगों की आस्था भी धन्य हो गई थी, जो ध्वस्त बाबरी मस्जिद की एक भी ईंट अपने घर ले जाने में सफल हो गए थे.
ईश्वर या ‘अलौकिक कर्ता’ में रखी जाने वाली धार्मिक आस्थाएं भी कुछ कम गुल नहीं खिलातीं. थोड़े-बहुत विवेक का इस्तेमाल करने वाले तो ‘सबका मालिक एक’, ‘हम सभी एक ही परमपिता की संतान’ और ‘सारे धर्म एक ही ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग मार्ग’ जैसी उदात्त मान्यताओं तक पहुंच जाते हैं, लेकिन आस्थाओं के संसार में यह कहना भी नास्तिक या धर्मद्रोही होना है कि वास्तव में मानव ही संसार का कर्ता और संचालक है या कि प्राकृतिक सृष्टि अपने ढंग से गतिशील है और मनुष्य उसके गुण-धर्म को समझकर अपने अनुकूल संसार का सृजन करता है.
आस्थाओं के लिहाज से यह कहना भी ‘अपराध’ ही है कि संसार में जो कुछ भी अच्छा या बुरा है, वह मनुष्य की सक्रियताओं व व्यवस्थाओं का ही परिणाम है.
दूसरी ओर अलग-अलग आस्थाएं इस संसार के कर्ता या ईश्वर के अलग-अलग रूप और गुण-धर्म बताती हैं. कोई उसे संसार से बाहर मानती है तो कोई अंदर-बाहर दोनों. कोई अवतारवाद में विश्वास करती है तो कोई पैगंबरवाद में. किसी के अनुसार वह ‘एक और अद्वितीय’ है तो दूसरी बहुदेववाद की प्रतिष्ठापक है. आस्थाजनित इन मान्यताओं में टकराव फसादों का कारण बनता है तो भी विवेक की अनसुनी ही की जाती रहती है.
अंत में एक और बात. विवेक कहता है कि मनुष्योचित श्रेष्ठ कर्म वे हैं, जो अधिकांश मनुष्य समाज के भौतिक जीवन को सुख व शांतिमय बनाएं, जबकि गुण ऐसे कर्मों का कौशल. इनके विस्तृत दायरे में वे गुण भी आते हैं, जिन्हें हम मानवीय या नैतिक कहते हैं.
ऐसे में न्यायोचित यह है कि किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसके ऐसे गुणों, कर्मों और कौशलों के आधार पर तय किया जाए. लेकिन जाति व्यवस्था में आस्था उन्हें जातियों में बांटती और उन्हीं के आधार पर प्रतिष्ठित कराती है.
फलस्वरूप कर्म की अवहेलना करने वाले और कौशल से शून्य व्यक्ति निजी लाभ या जन्मांतर के कल्पित फलों के लिए सक्रिय रहते हुए अपनी तथाकथित जातीय उच्चता के चलते उच्च सामाजिक स्तर और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते और वास्तविक गुण-कर्म सम्पन्न व्यक्ति नीच या अछूत करार देकर अप्रतिष्ठित करार दिए जाते हैं.
तिस पर इस प्रवंचक व्यवस्था को इतना स्वीकारना भी गवारा नहीं होता कि कोई व्यक्ति अपने द्वारा चुना गया कर्म सहजता से कर पाए, इसके लिए उसे अनुकूल जीवन विधान यानी आहार-विहार के नियमों की आवश्यकता होती है और वह उसके भी आड़े आती रहती है.
सवाल है कि विवेक की इस बेदखली की दिशाहीनता हमारे भविष्य के साथ कैसा सलूक करेगी? खासकर जब खुद को रामभक्त कहने वाले अनेक सज्जन तुलसीदास की यह बात भी भुला बैठे हैं: तुलसी साथी विपति के विद्या विनय विवेक. साहस सुकृति सुसत्यव्रत रामभरोसो एक. बकौल रामधारी सिंह दिनकर, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है.’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)