रामोत्सव बनाम गणतंत्रोत्सव!

भारतीय गणतंत्र इस बात को भी भला कैसे भूलेगा कि इसके लिए प्रधानमंत्री ने ‘धर्माचार्य’ का चोला धारण कर लिया था और उनके ‘सिपहसालार’ उन्हें विष्णु का अवतार और प्राण-प्रतिष्ठा की तारीख को 1947 के 15 अगस्त जितनी महत्वपूर्ण बता रहे थे.

अयोध्या में राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

भारतीय गणतंत्र इस बात को भी भला कैसे भूलेगा कि इसके लिए प्रधानमंत्री ने ‘धर्माचार्य’ का चोला धारण कर लिया था और उनके ‘सिपहसालार’ उन्हें विष्णु का अवतार और प्राण-प्रतिष्ठा की तारीख को 1947 के 15 अगस्त जितनी महत्वपूर्ण बता रहे थे.

अयोध्या में राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

और दिन होते तो इन दिनों देश के अखबार गणतंत्र दिवस समारोह की तैयारियों की खबरों से भरे होते-न्यूज चैनल भी. वे बताते कि राजधानी दिल्ली को कड़ी सुरक्षा में जकड़ दिया गया है और धरती से लेकर आकाश तक चौकसी बरती जा रही है ताकि कोई विघ्नसंतोषी गणतंत्र दिवस की भव्य परेड में विघ्न न डाल सके. ऐसे विघ्न डालने का मंसूबा रखने वाले संदिग्धों की धर-पकड़ की खबरें भी वे लाते ही लाते. इसकी भी कि परेड में देश की शक्ति और समृद्धि के कैसे-कैसे नजारे दिखेंगे, किन-किन राज्यों की कौन-कौन-सी झांकियां प्रदर्शित की जाएंगी या किन-किन झांकियों को किन-किन कारणों से प्रदर्शित करने से मना कर दिया गया है और उन्हें लेकर कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.

लेकिन इस बार ‘फ़िज़ा’ बदली हुई है इसलिए ये पंक्तियां लिखने तक ऐसी खबरें भूले-भटके और कोने-अंतरों में भी जगह नहीं पा रहीं. खबरों के प्रवाह को अयोध्या की ओर मोड़ दिया गया है और बताया जा रहा है कि वहां राम आ रहे हैं. हालांकि जानकारों के मुताबिक चौदह वर्षों के वनवास से लौटने के बाद सरयू के गुप्तारघाट पर अंतर्ध्यान होने तक वे कभी उसे छोड़कर गए ही नहीं. गए होते तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इससे पहले भी अनेकानेक कैमरों के साथ उन्हें साष्टांग दंडवत करने अयोध्या क्यों आते?

यह भी कहा जा रहा है कि अपने घर में शान से विराजमान होने का उनका ‘पांच सौ सालों का इंतजार’ खत्म कर दिया गया है- अयोध्या को दुल्हन की तरह सजा और सुरक्षा के घेरे में जकड़कर. वहां एक प्रतिबंधित खालिस्तानी संगठन के तीन संदिग्ध पकड़े गए हैं, जो कथित रूप से उक्त इंतजार के खात्मे में बाधा डालने के फेर में थे.

इस सिलसिले में जो बातें बताने से परहेज बरता जा रहा है, उनमें एक यह भी है कि केंद्र और प्रदेश सरकारों को अधबने मंदिर में भगवान राम के अपने द्वारा संरक्षित प्राण-प्रतिष्ठा समारोह (जिसे ‘रामोत्सव’ और ‘राष्ट्र का उत्सव’ वगैरह भी कहा जा रहा है) को ‘अभूतपूर्व’ बनाने के लिए किसी भी संवैधानिक या लोकतांत्रिक मूल्य की अप्रतिष्ठा से परहेज नहीं रखा. उत्तर प्रदेश सरकार (जिसके मुखिया योगी आदित्यनाथ धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे संवैधानिक मूल्यों का मजाक उड़ाने का शायद ही कोई मौका हाथ से जाने देते हों) ने अपने अफसरों को निर्देशित कर प्रदेशभर के मंदिरों में सरकारी तौर पर रामायण पाठ और भजन-कीर्तन की ‘अभूतपूर्व’ व्यवस्था कराई.

देश का शायद ही कोई जागरूक नागरिक गणतंत्र दिवस के उत्सव पर इस सबको तरजीह देने के पीछे की इन सरकारों व सत्ताधीशों की मंशा से अनजान हो या उसे न समझता हो. यह और बात है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के साथ विपक्ष को भी असहाय या वास्तविक विपक्ष की भूमिका निभाने से वंचित कर दिए जाने के कारण उसे प्रतिकार की कोई राह दिखाई न दे रही हो.

ऐसे में स्वाभाविक ही यह कल्पना भी डराती है कि यह देश (जो अब तक खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता आया है- लोकतंत्र के अतंरराष्ट्रीय सूचकांकों में उसके लंगड़ाने लग जाने और कई जानकारों की राय में धर्मतंत्र (पढ़िए: अधर्मतंत्र) में बदल जाने के बावजूद) अगले दो-ढाई महीनों में ही होने जा रहे लोकसभा चुनाव में अपने लोकतंत्र की सलामती का फैसला कर पाया तो आगामी इतिहास में हमारे गणतंत्र को धर्म (फिर अधर्म ही पढ़िए) तंत्र से प्रतिस्थापित करने की इन विकट कोशिशों को किस रूप में याद किया जाएगा?

यहां जवाब तक पहुंचने की आसानी के लिए एक और सवाल से गुजर लेते हैं: अगर देश का फैसला इसके उलट हुआ और ‘अधर्म तंत्र’ के अलमबरदारों की मंशा फूलने-फलने का एक और मौका पा गई तो? बताने की जरूरत नहीं कि तब उनके ‘योद्धाओं’ की वैसी और विरुदावलियां गाई जाएंगी जैसी इस दिनों उनकी गाई जा रही हैं. जिन्होंने सजा के डर से अदालतों के समक्ष बाबरी-मस्जिद के विध्वंस में अपनी कतई कोई भूमिका स्वीकार नहीं की और अब अपने मुंह मियां मिट्ठू बने ‘रामलला को उनका घर दिलाने के लिए’ कारसेवा समेत राम मंदिर निर्माण के नाना संघर्षों में अपनी ‘वीरता की गौरव-गाथा’ का बयान करते फिर रहे हैं.

यकीनन, तब इसका भी बखान किया जाएगा कि कैसे एक-एक करके उन्होंने देश के लोकतंत्र और संविधान का शिकार किया. आश्चर्य नहीं कि तब उन अंदेशों को संभावनाओं के रूप में याद किया जाने लगे, जो इससे देश और देशवासियों के समक्ष पैदा हुए हैं.

लेकिन लोकतंत्र की सलामती का फैसला हुआ तो हमारे गणतंत्र को भुलाए नहीं भूलेगा कि यह कोई संयोग नहीं कि अर्धनिर्मित मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए गणतंत्र दिवस और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती से ऐन पहले का ‘मुहूर्त’ निकलवाया गया और शंकराचार्यों के ऐतराज़ के बावजूद उसे बदलना गवारा नहीं किया गया. वैसे ही, जैसे 2020 में मंदिर के लिए भूमिपूजन हेतु 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस से पहले पांच अगस्त की तारीख का चुनाव संयोग नहीं था.

इन सभी चुनावों के पीछे उन्हें चुनने वाले सत्ताधीशों (जो सत्ता में आए तो लोकतंत्र का लाभ उठाकर और संविधान की शपथ लेकर थे, लेकिन उनके प्रति अपनी निष्ठा को लेकर कतई गंभीर नहीं थे.) की यह ‘बुद्धिमत्ता’ थी कि आगे से हर साल स्वतंत्रता दिवस से पहले भूमिपूजन की और गणतंत्र दिवस से पहले प्राण-प्रतिष्ठा की तारीखें आएं और अपने जश्न से सराबोर करती उन्हें मुंह चिढ़ाती हुई निकल जाएं.

गणतंत्र इस बात को भी भला कैसे भूलेगा कि इसके लिए प्रधानमंत्री ने ‘धर्माचार्य’ का चोला धारण कर लिया था और उनके ‘सिपहसालार’ उन्हें विष्णु का अवतार और प्राण-प्रतिष्ठा की तारीख को 1947 के 15 अगस्त जितनी महत्वपूर्ण बता रहे थे.

इस बात को भी याद किया ही जाएगा कि जब विपक्ष लाचार हो गया था, शंकराचार्य विपक्ष की भूमिका में उतर आए थे. वे कह रहे थे कि राजनीति करने वाले सत्ताधीशों को ऐसे धर्म-कर्म को धर्माधीशों के लिए छोड़ देना और अपनी राजनीति में ही व्यस्त रहना चाहिए. लेकिन लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेने वाले प्रधानमंत्री को उन्हें कान देना गवारा नहीं था. उनको अरसे से जलते मणिपुर के उन नागरिकों की फिक्र भी नहीं थी, जो खूंरेजी के कारण जान की खैर नहीं मना पा रहे थे.

उनकी ओर से लापरवाह बने रहकर वे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की इन काव्यपंक्तियों को झुठलाने में लगे थे: इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा/ कुछ भी नहीं है/ न ईश्वर/ न ज्ञान/ न चुनाव.

इतना ही नहीं, वे पतित-पावन और समदर्शी कहलाने वाले भगवान राम के प्रति भक्ति-भाव के थोथे प्रदर्शन के बीच उनके मूल्यों व आदर्शों की भी हेठी ही कर रहे थे. दरअसल, उन्हें ऐसे कामों में महारत हासिल थी. वे बिना घोषित किए इमरजेंसी जैसे हालात पैदा कर सकते थे तो बिना घोषित किए हिंदू राष्ट्र जैसी स्थितियां क्यों नहीं पैदा कर सकते थे, ताकि उनका बहुसंख्यकवाद खुला खेल सके?

गणतंत्र यह भी याद रखेगा कि इस दौर में उनके बहुसंख्यकवादी खेल के अनेक खिलाड़ी व समर्थक ऐसे खुश थे, जैसे उन्होंने बुद्धिमत्ता और चालाकी का फर्क मिटा देने का लक्ष्य पा लिया हो. कई बार उनकी खुशी में शिकार करके खुश शिकारी की छवि दिखाई देती थी. वे यह तो चाहते थे कि सारे देशवासी उनकी खुशी में शामिल हों और जब वे कहें तब दीपावली मनाने लग जाएं, लेकिन उनकी खुशियों के लिए अपना दिल बड़ा नहीं करना चाहते थे. ऐसे ‘कष्ट’ उठाने को भी तैयार नहीं थे, जिससे उनकी खुशी हवा के झोंकों के साथ आने वाली खुशबू की तरह फैले.

वह प्रदूषण और संड़ांध की तरह ही फैलने लगती, तब भी वे यही चाहते थे कि वह फैलती चली जाए. डर, दहशत, अविश्वास और अफवाह की तरह फैले तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था. कई बार लगता था कि वे इसलिए खुश हैं कि उन्होंने महात्मा गांधी को हरा दिया है, तुलसीदास को हरा दिया है. उनकी उम्मीदें भी उफनाकर अपने तटों को तोड़ती नदी की तरह कम, बजबजाती नालियों की तरह ज्यादा उफनाती लगती थीं.

हां, गणतंत्र को यह भी याद रहेगा कि उनके साथ बहुत से ऐसे लोग भी खुश थे, जिनका दिल रो रहा था, लेकिन डरे हुए थे कि उन्होंने राजा का बाजा नहीं बजाया तो कौन जानें क्या हो जाए! इनमें अयोध्या के वे हजारों परिवार भी थे, जिनके घर, दुकानें व प्रतिष्ठान बेदर्दी से उसके विकास की बलि चढ़ा दिए गए थे. वे परिवार भी जिनके घर का कोई न कोई विकासजनित दुर्घटनाओं का शिकार हो गया था. वे इसलिए खुश थे कि जल में रहकर मगर से बैरनहीं कर सकते थे. क्योंकि उनका ऐसे ‘राजाओं’ से साबका पड़ गया था, जिनकी विजय भी उन्हें विनम्र नहीं बना पा रही थी. वे विजय के बाद भी अकड़े हुए थे और इस शर्म को महसूस नहीं कर पाते थे कि इसके बावजूद कोई न कोई पूछ ही लेता था कि राम को ले आए हैं, तो विजय माल्या और नीरव मोदी को क्यों नहीं ला रहे?

कहते हैं कि इतिहास बहुत निर्दय होता है, लेकिन वह इन ‘राजाओं’ के प्रति निर्दय होगा या सदय, यह जानने के लिए अभी इंतजार करना होगा. देश के भविष्यविधाताओं (मतदाताओं) ने उसे उनके प्रति सदय बनाने का फैसला किया तो कह नहीं सकते कि वे आगे भी भाग्यविधाता बने रह पायेंगे या आखिरी बार देश के भविष्य का फैसला कर चुके होंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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