कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिसे कोई रचना पढ़ते हुए कोई और रचना, अपना कोई अनुभव, कोई भूली-बिसरी याद न आए वह कम पढ़ रहा है. पाठ किसी शून्य में नहीं होता और न ही शून्य में ले जाता है.
हिंदी में पढ़ना-लिखना एक लोकप्रिय पद है; ग़नीमत है कि सभी जो पढ़ते हैं, लिखते नहीं हैं. साहित्य लिखने वाले कम ही होते हैं और आजकल सब कुछ तुरंत समझ में आने का जो माहौल है, उसमें साहित्य पढ़ते भी कम ही हैं. पर जो पढ़ते हैं वे सभी दूसरे पाठक होते हैं, क्योंकि अपनी रचना का पहला पाठक तो लेखक ही होता है. ऐसा पाठ सार्थक तभी होता है जब समझ में जतन से, संवेदना और स्मृति से किया जाए.
जिसे कोई रचना पढ़ते हुए कोई और रचना, अपना कोई अनुभव, कोई भूली-बिसरी याद न आए वह कम पढ़ रहा है. पाठ किसी शून्य में नहीं होता और न ही शून्य में ले जाता है. साहित्य तो वैसे भी शब्दतः संग-साथ की विधा है. पाठ के अलावा कुपाठ भी होते हैं. प्रेमचंद ने जब प्रसाद को गड़े मुर्दे न उखाड़ने की सलाह दी तो वे प्रसाद-साहित्य का कुपाठ कर रहे थे. नामवर सिंह लगभग पचास वर्ष अज्ञेय पर प्रहार कर शीत युद्ध की वाम राजनीति के तहत उनका कुपाठ भी कर रहे थे जिसे उन्होंने लगभग आधी सदी बाद बदला.
कई बार अल्पपाठ भी होता है: रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाव्य से अपनी अभिभूति में छायावाद और रीतिकाव्य का अल्पपाठ किया. रामविलास शर्मा ने एक पूरी पुस्तक लिखकर मुक्तिबोध की मार्क्सवादी आस्था को प्रश्नांकित किया और उन पर अस्तित्ववादी व्यक्तिवाद थोपा जो अल्पपाठ का उदाहरण है. स्वयं मुक्तिबोध ने प्रसाद की ‘कामयानी’ की दृष्टि को आनंदवाद में घटाकर प्रसाद-दृष्टि का सरलीकरण और इसलिए कितना ही सदाशय पर अल्पपाठ किया. किसी साहित्य-दृष्टि को किसी वाद में घटाना हमेशा अल्प पाठ है.
किसी भी समय में साहित्य का पाठ समाज में प्रचलित अन्य पढ़ने-समझने की आदतों से अछूता नहीं रहता. हमारे समय में हम अख़बार पढ़ते हैं, टेलीविजन देखते हैं, सार्वजनिक संवाद में भाषा का उपयोग देखते हैं और अक्सर इनका सामूहिक प्रभाव सारी अभिव्यक्ति को अभिधा में सरलीकृत कर देता है. हमें कैसी शिक्षा, किस भाषा में, कितनी मिली यह भी हमारे पढ़ने-समझने को प्रभावित करता है.
अगर ज़्यादातर अध्यापन रचना का मर्म खोलने और रचना का, भाषा आनंद ले सकने के लिए उत्साहित करने के बजाय यांत्रिक ढंग से कविता को उसके जड़े शाब्दिक अर्थों में, भाव पक्ष और विचार पक्ष आदि में घटा देता है तो यह सजग-संवेदनशील पाठ को असंभव बना देता है. समकालीन वैचारिक विमर्शों का भी घटाटोप कई बार सही पाठ से हमें रोकता है.
आलोचना प्रथमतः और अंततः पाठ ही होती है. अगर वह हमें किसी कृति या लेखक को ठीक से, बारीकी और संवेदना से, समझ और जतन से पढ़ने-समझने के लिए प्रेरित नहीं करती तो वह भी पाठ में बाधा बन जाती है. आज सतही धार्मिकता अगर हमें ‘रामचरित मानस’ से विरक्त कर ‘हनुमान चालीसा’ ही पढ़ने को उत्साहित कर रही है तो यह साहित्य के पाठ का भी संकट है.
फेदेरीको गार्सिया लोर्का
रज़ा की एक चिंता यह भी थी कि हिंदी में कई विषयों में अच्छी पुस्तकों की कमी है. विशेषतः कलाओं और विचार आदि को लेकर. वे चाहते थे कि हमें कुछ पहल करनी चाहिए. 2016 में साढ़े चौरानवे वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद रज़ा फाउंडेशन ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए हिंदी में कुछ नए किस्म की पुस्तकें प्रकाशित करने की पहल रज़ा पुस्तक माला के रूप में की है, जिनमें कुछ अप्राप्य पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन भी शामिल है. उनमें गांधी, संस्कृति-चिंतन, संवाद, भारतीय भाषाओं से विशेषतः कला-चिंतन के हिंदी अनुवाद, कविता आदि की पुस्तकें शामिल की जा रही हैं.
1960 के आसपास जब हमारी पीढ़ी के कई युवा कवियों ने हिंदी कविता के क्षेत्र में प्रवेश किया तो उस समय जो प्रभाव-मंडल उन पर छाया हुआ था उनमें फेदेरीको गार्सिया लोर्का भी थे. यह लोर्का का अक्सर अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से पहला हिंदी-प्रवेश भी था. उस समय प्रभाव और प्रेरणा के दो ध्रुवांत हमारे सामने थे: बौद्धिक सघनता और ऊर्जा, प्रश्नवाचकता और आध्यात्मिक बेचैनी से भरपूर अंग्रेज़ी कवि टीएस एलियट और उच्छल ऐन्द्रियता, उत्कट स्थानीयता और जिजीविषा से संपन्न लोर्का.
एलियट तब कह रहे थे कि ‘मैं कुछ नहीं को कुछ नहीं से जोड़ सकता’और लोर्का की मुद्रा थी कि ‘सब कुछ सब कुछ से जुड़ा हुआ है’. हमें यह समझ में आया था कि एलियट कविता लिख रहे हैं, लोर्का कविता ‘गा’रहे हैं. टूटे-बिखरेपन के बरअक्स लोर्का के यहां तादात्म्य पर ज़ोर था-1918 में लिखी उनकी एक कविता का समापन इन पंक्तियों से होता है:
दिल में महसूस हो रहा है आज
तारों का एक विचित्र कंपन
और सभी गुलाब इतने सफेद
जितना कि मेरा दर्द.
1920 की एक कविता में वे आह्वान करते हैं:
गाओ कि वह चीज़ों
और हवाओं की आत्मा में बसे
और आखिर में सुस्ताए
शाश्वत हृदय के उल्लास में.
लोर्का निश्चय ही गीति-कवि थे पर उनके यहां गीति का वितान इस कदर समावेशी और विशाल है कि उसमें जीवन, प्रकृति, वस्तु-जगत,जातीय स्मृतियां, स्थानीय चरित्र आदि सब जगह पाते हैं. यह, एक तरह से, गीति का महाकाव्यात्मक विस्तार है. उनकी अनेक अभिव्यक्तियां उनके अप्रत्याशित रूपक गढ़ने की अपार क्षमता और कल्पनाशीलता का साक्ष्य हैं:
‘उदास सोता’, ‘सन्नाटे की मकड़ी’, ‘प्यार का क्षत-विक्षत ठूंठ, ‘स्वर्ग तो एक देहात’, ‘गिटार का सुबकना’, ‘सूर्योदय के जाम’, ‘दीर्घ अंडाकार चीख’, ‘धुंध का सफेद सांप’, ‘स्फटिक और पत्थर की भूलभुलैया’,’हवा की तलैया’,’चुंबनों की झड़ी’, ‘समुद्र का फीका पारा’, ‘हवा कोहरे का एक फूल’, ‘हवा की धूसर बांहें’,’झींगुर की पोशाक’,’आ पहुंचा चांद लोहार के ठीहे पर’, ‘कुत्तों का दिगंत’, ‘मरणांतक चांदी का लहसुन’, ‘रोशनियों का कोलाहल’, ‘हिंस्र नीली सिहरन’,’सिक्कों के गुस्सैल झुंड’, ‘कानूनी कीचड़’,’बर्फ का पसीना’,’संखिया की घंटियां’,’घाव जैसे कई सूरज’, ‘शांत बादलों का घोड़ा’,’सपनों का बदरंग मैदान’,’नदी जैसा विलाप’,’हाथीदांत से अक्षर’,’सेब की नींद’,’गोश्त और सपने की चारदीवारी’, ‘सांसों का एकमात्र गुलाब’, ‘बर्फ की गर्म आवाज़’.
लोर्का कई तरह से आवाजाही के कवि हैं. स्वप्न, यथार्थ और संभावना के बीच अबाध और अविराम आवाजाही के कवि. जिजीविषा और नश्वरता के बीच आवाजाही. उनकी कविताओं में कई बार जड़ वस्तुएं कोई ऐसी भंगिमा या विशेषण पा लेती हैं कि वे सजीव हो उठती और एक तरह की मानवीय ऊष्मा से दीप्त हो जाती हैं. अनेक विशेषण या संज्ञाएं जो मानवीय संबंधों से उपजती हैं लोर्का उन्हें प्रकृति और वस्तु-जगत को हस्तांतरित कर देते हैं. रूहान और रूमान के बीच का द्वैत लोर्का के यहां ध्वस्त हो जाता है: दोनों के बीच ऐसी लगभग स्वाभाविक आवाजाही है कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम रूहानियत के अहाते में हैं और कब रूमानियत के घेरे में.
लोर्का ने गीति के कई प्रकारों का उपयोग अपनी कविता में किया. उन्होंने बिरहा, कसीदा, गज़ल जैसे कई प्रकार आज़माए. वे अपनी मातृभूमि के आंदालुसिआई जीवन में इतने रसे-बसे थे जैसे वे उस जीवन की लय से बिल्कुल तदात्म, एकाकार हो गए थे. वे अपनी मातृभूमि की लय में विलीन होगए कवि थे. जैसे वह ज़मीन लोर्का के यहां अपने सभी छंदों में गाती थी- सिर्फ अपनी कथा नहीं, बल्कि उद्दाम प्रेम, निर्लज्ज वासना, अपरिपक्व यौवन, हिंसा और मृत्यु के गान.
लोर्का की कविता के आकाश में ब्रह्मांड, संसार, पृथ्वी, नक्षत्र आदि सब ऐसे रहते हैं जैसे किसी घर में परिवार के सदस्य. इसी घर के पड़ोस में युद्ध है, मृत्यु टहलती रहती है, विनाश उझकता है, कच्चा-हरा प्रेम नज़र आता है.
अगर एलियट अकालपक्व लगते थे तो लोर्का सदा युवा. यह और बात है कि जब उनकी हत्या हुई वे युवा थे. उन्हें जीवन छोटा मिला पर उसकी काव्य-विपुलता विस्मयकारी है. उन्होंने कविता के साथ कई नाटक भी लिखे. उनमें से अनेक भारत की विभिन्न भाषाओं में अनूदित होकर खेले जाते रहे हैं. लोर्का की भारतीय उपस्थिति सिर्फ कविता में नहीं, बल्कि रंगमंच में भी रही है.
यह कहना उपयुक्त है कि लोर्काई संवेदना और ऐन्द्रियता भारतीय संवेदना के बहुत अनुकूल लगती है: जैसा हमारे यहां वैसा ही लोर्का के यहां हमें अप्रत्याशित का रमणीय मिलता और अभिभूत करता है. प्रभाती नौटियाल इस्पहानी भाषा के प्रतिष्ठित विशेषज्ञ और अनुवादक हैं. उन्होंने सीधे मूल भाषा से हिंदी में लोर्का की पचहत्तर कविताओं का अनुवाद कर, एक तरह से, हिंदी कविता को समृद्ध किया है और एक अनोखे कवि को हिंदी में गृहस्थ किया है. उनके अनुवाद, एक बार फिर, हमें दुर्लभ रस, संवेदना और आवेग की महान कविता का आस्वादन करने का अवसर देते हैं.
रज़ा पुस्तक माला में इस द्विभाषी संचयन का प्रकाशन हिंदी और अनुवाद के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना है. पुस्तक सेतु प्रकाशन से ‘सांड़ से युद्ध और मौत’ नाम से प्रकाशित हो रही है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकर हैं.)