क्या रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा ने भाजपा को असल में दिग्विजयी बढ़त दिला दी है?

संघ परिवार के ‘विशेषज्ञों’ के अलावा भक्त मीडिया के कई स्वयंभू विश्लेषक मंदिर मुद्दे पर भाजपा की दिग्विजय पक्की बताते हुए दावा कर रहे हैं कि देश के विभिन्न अंचलों के श्रद्धालुओं को ‘भव्य’ राम मंदिर व ‘दिव्य’ अयोध्या का दर्शन कराकर पार्टी लोकसभा चुनाव तक उन्हें अपना मुरीद बना लेगी. लेकिन यह पूरा सच नहीं है.

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अयोध्या में राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: facebook/@BJP4India)

संघ परिवार के ‘विशेषज्ञों’ के अलावा भक्त मीडिया के कई स्वयंभू विश्लेषक मंदिर मुद्दे पर भाजपा की दिग्विजय पक्की बताते हुए दावा कर रहे हैं कि देश के विभिन्न अंचलों के श्रद्धालुओं को ‘भव्य’ राम मंदिर व ‘दिव्य’ अयोध्या का दर्शन कराकर पार्टी लोकसभा चुनाव तक उन्हें अपना मुरीद बना लेगी. लेकिन यह पूरा सच नहीं है.

अयोध्या में राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: facebook/@BJP4India)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अयोध्या के अधबने मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा (जिसे कई विश्लेषक रामलला के बजाय मोदी की ‘प्रतिष्ठा’, हिंदू धर्मावतार/सम्राट के तौर पर उनके ‘अभिषेक’ की कोशिश और राजसत्ता, हिंदू-धर्मसत्ता व कॉरपोरेट के गठजोड़ के साथ हिंदू राष्ट्र की अघोषित ‘स्थापना’ की संज्ञा दे रहे हैं) के बाद ‘भावुक’ होकर ‘हमारे राम आ गए हैं’ कहने से गदगद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार ने बिना देर किए आगामी लोकसभा चुनावों से जुड़ा अपना मनोवैज्ञानिक युद्ध और तेज कर दिया है.

बारंबार यह कहते हुए कि राम राजनीति का नहीं आस्था का विषय हैं, चुनावी स्वार्थों के लिए उनका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल करता आया यह परिवार उनके नाम पर दशकों तक आग बोने और विवाद बढ़ाने के बाद प्रधानमंत्री के मुखारविंद से यह कहलाने में सफल हो गया है कि राम आग नहीं ऊर्जा और विवाद नहीं समाधान हैं, तो पूरी शक्ति से यह जताने पर उतर आया है कि उसकी दिग्विजय हो गई है.

यह वैसे ही है, जैसे 30 अक्टूबर, 1990 को उसके बुलाए कारसेवकों ने तमाम बंदिशें तोड़कर बाबरी मस्जिद पर कुछ देर के लिए भगवा फहरा दिया तो उसने मान लिया था कि उसकी ‘विजय’ हो गई है- इसी तरह छह दिसंबर, 1992 को उसे ढहा दिया तो इसे शौर्य का प्रदर्शन माना था. उस ‘विजय’ या शौर्य को अपनी चुनावी उपलब्धियों में बदलने के लिए उसने तब भी बड़ी-बडी दर्पोक्तियां की थीं. उसी तर्ज पर अब कह रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष उसकी राजनीतिक फ्रंट भाजपा को चार सौ सीटों के पार जाने से नहीं रोक पाएगा.

इस मनोवैज्ञानिक युद्ध का एकमात्र उद्देश्य चुनावी मुकाबले शुरू होने से पहले ही विपक्ष का ‘उत्साह’ ठंडा कर ‘वॉकओवर’ के लिए विवश कर देना है. संघ के महारथियों को मालूम है कि ऐसा हो जाए तो उसका परिवार आधी लड़ाई मुकाबले में उतरे बगैर ही जीत लेगा और बाकी आधी जीतना उसके बाएं हाथ का खेल हो जाएगा. उसकी सरकार ने ऐसे हालात इसीलिए तो पैदा कर रखे हैं कि पहले मीडिया से तो लड़ना पड़े, फिर चुनाव आयोग को भी ‘झेलना’ पड़े.

लेकिन क्या वाकई रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा ने भाजपा को दिग्विजयी बढ़त दिला दी है? उसकी कहें या समूचे संघ परिवार की राम व राम मंदिर की राजनीति से जुड़े तथ्य व चुनावी आंकडे़ इसका जवाब हां में नहीं देते. ‘वहीं’ राम मंदिर का मुद्दा इतना ही रामबाण होता तो भाजपा को केंद्र में अकेले अपने दम पर बहुमत की सीढ़ियां चढ़ने के लिए 2014 में मोदी के ‘महानायक अवतार’ तक की प्रतीक्षा न करनी पड़ती. तिस पर वह 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी लगातार दो जीतों को भी राम मंदिर मुद्दे की जीत नहीं बता सकती.

2014 में देशवासियों ने अन्ना हजारे के कथित भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के कारण कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के प्रति बढ़ती गई एंटी-इनकंबेंसी के बीच मोदी के विकास के महानायकत्व और तथाकथित गुजरात मॉडल पर भरोसा करके वोट दिया था. तब मोदी अपनी ‘परिवर्तित छवि’ को लेकर इतने सतर्क थे कि अयोध्या की देहरी तक भी नहीं आए थे. इसी तरह 2019 में वे अपनी हारी हुई बाजी को जीत में बदलने में कामयाब हो गए तो उसके पीछे पुलवामा कांड था, अयोध्या कांड नहीं.

गौरतलब है कि 2014 में उनके विरोधी कह रहे थे कि वे ‘भाजपा के परंपरागत कट्टरपंथी’ और ‘विकास के अप्रतिबद्ध आकांक्षी’ दोनों मतदाता समूहों को एक साथ नहीं साध पाएंगे, लेकिन उन्होंने सफलतापूर्वक वैसा कर दिखाया था. लेकिन उसके दस साल बाद अपने गुजरात माॅडल की हवा निकलती देखने, विकास के आकांक्षियों की मुरादें पूरी न कर पाने और देश का विदेशी कर्ज बेतहाशा बढ़ा देने के बाद राजनीतिक एजेंडा बदलकर वे राम मंदिर की शरण में चले गए हैं तो उनकी दिग्विजय का रट्टा मार रहा भक्त मीडिया उन्हें समझने नहीं दे रहा कि अटल के वक्त राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाने के लिए भाजपा ने इस मुद्दे को अपनी सत्ताकांक्षा के लिए ‘हानिकारक’ मान लिया और विवश होकर ठंडे बस्ते में डाल दिया था.

तब कहा जाता था कि भाजपा इस मुद्दे को जितना निचोड़ सकती थी, निचोड़ चुकी है और उसे उसमें आगे के लिए कोई नई संभावना नहीं दिख रही. यह तथ्य इस अर्थ में अभी भी अपरिवर्तित है कि इस मुद्दे की सीमाएं राम मंदिर आंदोलन के सुनहरे दिनों में ही उजागर हो गई थीं और उन्होंने भाजपा की सीमा भी तय कर दी थी. इसीलिए उसकी बिना पर मतदाताओं को बहुत गुस्सा दिलाकर भी भाजपा केंद्र में अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई थी-1990-92 की ‘विजय’ व ‘शौर्य’ के बूते भी नहीं.

1990 में बहुप्रचारित कारसेवा के बहाने बाबरी मस्जिद पर हमले रोकने के लिए उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार ने कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग करा दी, तो मारे गए कारसेवकों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बता और उनके वीडियो दिखाकर भरपूर माहौल बनाने के बावजूद 1991 में एक साथ हुए लोकसभा व विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत मिल पाया था, जहां उसने कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. तब उसने अपनी विफलता का सारा ठीकरा राजीव गांधी की हत्या से कांग्रेस के प्रति उपजी सहानुभूति लहर पर फोड़ा था.

1992 में छह दिसंबर को उसने अपनी कल्याण सरकार दांव पर लगाकर बाबरी मस्जिद ध्वस्त करा दी तो अगले विधानसभा चुनाव में उसको वापस नहीं ला पाई, क्योंकि ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्री राम’ का दौर आ गया. फिर 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में तेरह दिन की अल्पमत सरकार चलाकर भी वह अपनी राजनीतिक अस्पृश्यता खत्म नहीं कर पाई थी और विवश होकर ‘वहीं’ राम मंदिर का मुद्दा ही छोड़ दिया था.

अब संघ परिवार के ‘विशेषज्ञों’ के अलावा भक्त मीडिया के कई स्वयंभू विश्लेषक भी इस सबको भुलाकर उसी मुद्दे पर भाजपा की दिग्विजय पक्की बता रहे हैं तो दावा कर रहे हैं कि देश के विभिन्न अंचलों के श्रद्धालुओं को ‘भव्य’ राम मंदिर व ‘दिव्य’ अयोध्या का दर्शन कराकर वह लोकसभा चुनाव तक उन्हें अपना मुरीद बना लेगी.

इससे पहले ‘अक्षत वितरण’ से वह इसकी शुरुआत कर चुकी है. ये विशेषज्ञ व विश्लेषक जानबूझकर याद नहीं रखना चाहते कि संघ परिवार का ऐसे नाना प्रकार के टोटकों का पुराना इतिहास है- कभी वह उनका नाम पादुकापूजन रखता रहा है और कभी शिलापूजन. लेकिन अयोध्या आकर वापस जाने वाली भारी भीड़ें उसे कभी मंजिल तक नहीं दिला सकी हैं.

फिर इस बार ही वे भीड़ें उसकी मोदी सरकार के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी का विकल्प कैसे बन जाएंगी? खासकर जब वे 1990-92 की कारसेवकों की भीड़ों की तरह क्रुद्ध नहीं होंगी. अयोध्या में उनके क्रुद्ध होने का अब कोई कारण ही नहीं बचा है. तिस पर वे इस तथ्य से भी वाकिफ होंगी कि मंदिर निर्माण का मोदी से ज्यादा श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को है. मोदी तो अपनी बारी पर कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने से आगा-पीछा करते रहे थे.

निस्संदेह, जैसा कि उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डाॅ. रामबहादुर वर्मा कहते हैं, ‘संघ परिवार के लिए ये भीड़ें मनोवैज्ञानिक युद्ध का हथियार होंगी ही होंगी और वह उनमें अपने स्वयंसेवकों व कार्यकर्ताओं को उनकी पहचानें अदल-बदलकर आगे किए ही रखेगा. फिर भी उसके लिए इन भीड़ों के श्रद्धालुओं वाले हिस्सों को 1990-92 जितना अविवेकी बनाकर चुनावी लाभ उठाना मुश्किल होगा.’

अयोध्या आए साधुओं के एक झुंड का इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में यह कहना भी इसी का संकेत है कि ‘हम न मोदी के हैं, न योगी के, हम तो अपने राम के हैं.’ छत्तीसगढ़ से अयोध्या आया एक श्रद्धालु डॉक्यूमेंटेशन के लिए वहां पहुंची एक टीम से कह सकता है कि मंदिर तो अभी पूरा बना ही नहीं है, यह देखकर उसका उसमें जाने का मन ही नहीं हो रहा और वह समझ गया है कि सब चुनावी खेल है, तो दूसरे श्रद्धालु यह बात क्यों नहीं समझेंगे?

डाॅ. वर्मा के अनुसार अपने विरोध को देश, हिंदुओं या राम का विरोध बनाकर प्रचारित करने की मोदी की चालाकी भी इस बार काम नहीं आने वाली, क्योंकि विपक्ष उसे लेकर सचेत है और उसने साफ कर दिया है कि वह राम या राम मंदिर के नहीं, राम के नाम पर उनके, देश के लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों व आदर्शों से मोदी के पतित होने के विरुद्ध है, जो मंदिर-मस्जिद विवाद के खात्मे के बाद भी उसे खत्म नहीं होने देना चाहती.

डाॅ. वर्मा कहते हैं कि भक्त मीडिया प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को कितना भी सफल बताए, वह संघ परिवार को अभीष्ट ‘हिंदू एकता’ को नहीं साध पाया है. श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय के इस कथन कि मंदिर तो केवल रामानंदी संप्रदाय का है, संन्यासियों, शैवों व शाक्तों का नहीं और शंकराचार्यों द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के बहिष्कार की गूंज बहुत देर तक और बहुत दूर-दूर तक सुुनी जाने वाली है.

डाॅ. वर्मा यह भी याद दिलाते हैं कि 2020 में पांच अगस्त को मोदी द्वारा मंदिर निर्माण लिए भूमिपूजन के वक्त रामलला को साष्टांग दंडवत के बाद 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए तो भी भाजपा की ऐसी ही दिग्विजय के सपने देखे गए थे, लेकिन उसकी पचास से ज्यादा सीटें घट गई थीं. यहां तक कि अयोध्या में भी समाजवादी पार्टी ने उसकी पांच में से दो सीटें छीन ली थीं. बाद में अयोध्या नगर निगम के चुनाव में भाजपा राम मंदिर से सटे अभिरामदास वॉर्ड में अपना पार्षद नहीं चुनवा पाई. इस हिंदू बहुल वॉर्ड से इस्लाम धर्मावलंबी निर्दलीय प्रत्याशी सुल्तान अंसारी जीत गए थे.

डाॅ. वर्मा की मानें, तो भाजपा स्वयं भी इस दिग्विजय को लेकर आश्वस्त नहीं है और महज उसका दिखावा कर रही है. आश्वस्त होती तो बिहार में नीतीश के पालाबदल के फेर में नहीं पड़ती, राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा से चिंतित होकर उसमें अड़ंगे न लगाती और उत्तर में संभावित नुकसान की भरपाई के लिए मोदी दक्षिण भारत से चुनाव लड़ने की संभावनाएं न टटोलते.

वे कहते हैं कि ‘इंडिया’ गठबंधन बिखर भी जाए, जिसका बड़ा प्रचार किया जा रहा है तो भाजपा को खास मदद नहीं मिलने वाली क्योंकि उसमें भी कुछ कम अंतर्कलह नहीं है और उसके राजग का हाल भी बुरा ही है. नीतीश उसके साथ गए भी तो चिराग पासवान इंडिया में लौट आएंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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