अगर कर्पूरी ठाकुर जीवित होते तो मोदी सरकार के ख़िलाफ़ खड़े होते

कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष बताता है कि उनकी और भाजपा की राजनीति में ज़मीन-आसमान का अंतर है. मोदी सरकार का कोई भी नेता कर्पूरी ठाकुर की नैतिकता और ईमानदारी को अपनी जीवन में जगह नहीं देता है. मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न ज़रूर दिया है मगर इसका मक़सद केवल चुनावी हिसाब-किताब है.

कर्पूरी ठाकुर. (फोटो साभार: X/@IrfanUllahAns)

कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष बताता है कि उनकी और भाजपा की राजनीति में ज़मीन-आसमान का अंतर है. मोदी सरकार का कोई भी नेता कर्पूरी ठाकुर की नैतिकता और ईमानदारी को अपनी जीवन में जगह नहीं देता है. मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न ज़रूर दिया है मगर इसका मक़सद केवल चुनावी हिसाब-किताब है.

कर्पूरी ठाकुर. (फोटो साभार: X/@IrfanUllahAns)

अगर आप राजनीति को परखने की सबसे तार्किक और सही पैमाने बनाकर नेताओं को परखने की कोशिश करेंगे तो कर्पूरी ठाकुर केवल बिहार की राजनीति में ही नहीं बल्कि दुनियाभर की राजनीति में सबसे शानदार नेताओं के बीच में खड़े नजर आएंगे. इन्हीं कर्पूरी ठाकुर को मोदी सरकार ने मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया है.

भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है मगर समय-समय पर सत्ता में बैठी पार्टियों ने इसे भी अपने राजनीतिक दांवपेंच के लिए इस्तेमाल किया है. इसके एक नहीं बल्कि कई उदाहरण मौजूद है. मोदी सरकार ने भी भारत रत्न को अपनी प्रतीकात्मक राजनीति के तौर पर इस्तेमाल किया है. कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष बताता है कि कर्पूरी ठाकुर की राजनीति और भाजपा सरकार की राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है. मोदी सरकार का कोई भी नेता कर्पूरी ठाकुर की नैतिकता और ईमानदारी को अपनी जीवन में जगह नहीं देता है. ऐसे में भाजपा सरकार ने भारत रत्न देकर के कर्पूरी ठाकुर को सम्मान जरूर दिया है और उसकी सराहना भी जरूर होनी चाहिए. मगर इसके पीछे का मकसद केवल और केवल चुनावी हिसाब-किताब के सिवाय और कुछ भी नहीं है.

राजनीतिक दुनिया के नेताओं की सबसे बड़ी कमी यह होती है कि उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर होता है. मगर बिहार की राजनीतिक इतिहास में कर्पूरी ठाकुर एक ऐसे नेता के तौर पर मौजूद हैं, जिसकी कथनी और करनी में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. अगर मंचों से लेकर के विधानसभा के सदन में दिए गए भाषणों के शब्द समाजवादी विचार से लबरेज है तो कर्पूरी ठाकुर का एक व्यक्ति और एक नेता के तौर पर जीवन भी समाजवादी विचारों से सींचा हुआ है. उनके सामाजिक न्याय के विचार में केवल एक जाति नहीं है बल्कि पिछड़े हैं, अति पिछड़े हैं, औरतें हैं, मुस्लिम है और आर्थिक तौर पर कमजोर ऊंची जातियों के लोग भी शामिल हैं.

उन्होंने केवल सरकारी नौकरी में आरक्षण की बात नहीं की, बल्कि वे गरिमापूर्ण न्यूनतम मजदूरी और न्यूनतम वेतन का भी सवाल उठाते हैं. वह वंचित लोगों से केवल भावुकता के आधार पर नहीं जुड़े हैं बल्कि उसे देश दुनिया की तार्किक विचारों पर कसकर पेश करते हैं. उनकी कर्मठता ईमानदारी, पारदर्शिता, नेकनीयती उन्हें केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर के उन तमाम बेहतरीन नेताओं के बीच रखती हैं, जिन्होंने राजनीति की सार्थकता को जिया है.

कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी साल 1924 में बिहार के समस्तीपुर जिले के पीतौंझिया गांव के गरीब नाई परिवार के गांव में हुआ था. इस गांव में राजपूत जाति के लोगों की आबादी ज्यादा थी. नाई जाति बिहार में अति पिछड़ा वर्ग में आती है. कर्पूरी ठाकुर के पिता गोकुल ठाकुर भी नाई का काम ही करते थे. कर्पूरी का बचपन गाय चराने से शुरू हुआ और पिता की तरह ही नाई का पेशा भी सीखने लगे. उनके बचपन का दौर आजादी से पहले 1930 के आसपास का दौर है. जातिगत प्रथाओं ने समाज को बहुत गहरे से जकड़ा हुआ था, निचली मानी जाने वाली जातियों में पढ़ने-लिखने का कोई रिवाज नहीं था. न इन जातियों का रिश्ता पढ़ाई लिखाई से था और न ही वे अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर जोर देते थे.

कर्पूरी ठाकुर के साथ भी यही हुआ, लेकिन जिस तरह हर बुरे से बुरे दौर में मुट्ठी भर लोग चुपचाप अच्छे कामों में लगे रहते हैं, इस तरह से किसी अध्यापक ने जबरन उन्हें स्कूल में दाखिल किया. धीरे-धीरे कर्पूरी ठाकुर का पढ़ने में मन लग गया. हाईस्कूल के दौरान शहरी छात्रावास में रहते हुए उन्हें जीवन के नए अनुभव मिले. हाईस्कूल पास करके जब जीवन आगे बढ़ रहा था तो वह दौर भारत में स्वतंत्रता संघर्ष की अलख जगाने वाले लोगों की रायशुमारियोंं से गढ़ा जा रहा था. कई तरह की प्रगतिशील सामाजिक राजनीतिक विचार भारत को गढ़ने के लिए भारत के अग्रणी नेताओं के बीच तैयार हो रहे थे. धीरे-धीरे यह विचार ठोस शक्ल ले रहे थे. कर्पूरी ठाकुर भी सामाजिक राजनीतिक बदलाव के इन विचारों से खुद को अलग नहीं रख पाए.

उनकी राजनीतिक सक्रियता की शुरुआत कम्युनिस्ट विचारधारा से गढ़ी गई छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य बनने के साथ शुरू हुई. भाषण कला में माहिर थे, तो छात्र नेताओं के बीच उनकी धाक जमती चली गई है. भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की. समाजवादी विचारधाराओं से लबरेज नेता जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के साथ उनकी अच्छी संगत रही है.

राम मनोहर लोहिया को तो अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं. 1952 में जब पहली बार चुनाव हुआ तो पहले ही बार ही वह बिहार विधानसभा में समस्तीपुर के ताजपुर विधानसभा की सीट से विधायक बनकर पहुंचे. उसके बाद 1952 से लेकर 1988 तक जब तक वह दुनिया में रहे, तब तक वह बिहार विधानसभा में विधायक के तौर पर चुने जाते रहे. उन्होंने विधायक का चुनाव कभी नहीं हारा.

आज के दौर के नेता अगर वह लगातार चुनाव जीत रहे हैं तो लोक कल्याण से ज्यादा उनके पीछे धनबल काम करता है. मीडिया में लगातार चमकाई जाने वाली उनकी छवि काम करती है. जिस पार्टी के पक्ष में चुनावी हवा चलती है, उस पार्टी के पक्ष में अपनी राजनीति को बेच देने की बेईमान नियत काम करती है. इन सब को हटा दिया जाए तो शायद ही कोई ऐसा नेता दिखे जो केवल और केवल अपने काम के बलबूते पर लगातार चुनाव जीत रहा हो. मगर कर्पूरी ठाकुर एक वंचित समुदाय से आने के बावजूद लगातार चुनाव जीतते थे. अपने वैचारिक सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. जहां तक पैसे की बात है तो उसकी कहानी यह है कि जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा तो उनके बैंक खाते में एक भी पैसा नहीं था, कोई पक्का मकान तक नहीं था. लोगों ने चंदा दिया मकान बनवाने के लिए, उसे उन्होंने स्कूल बनवाने में लगा दिया. इस तरह का व्यक्ति अगर अपनी पूरी जिंदगी विधायक का एक भी चुनाव नहीं हारा तो इसका एक हीअर्थ है कि वह वास्तव में जनता के लिए जननायक थे.

बिहार विधानसभा में तो वह जीवन भर जाते रहे, मगर बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर वह दो बार चुने गए. दोनों बार के उनके कार्यकाल का समय मिला दिया जाए तो वह 3 साल से कम का बनता है. मगर महज इन 3 सालों में उनकी सरकारी नीतियां ऐसी रही, जिन्होंने गजब की छाप छोड़ी है. दो बार उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा, जिसमें वे एक बार जीते और एक बार हार गए.

साल 1977 में छपे इकोनॉमिक एंड पॉलीटिकल वीकली के एक लेख में जिक्र है कि एक व्यक्ति, जिसने कमजोर और संख्या के लिहाज से महत्वहीन जाति से होने के बावजूद अपना राजनीतिक एजेंडा चलाया, वह बिहार जैसे जाति-ग्रस्त सामंती राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है, सीधे शब्दों में कहें तो, यह अकल्पनीय था.

‘नीतीश कुमार द राइज ऑफ बिहार’ नाम की किताब में लेखक अरुण सिन्हा लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन में सबसे बड़े रोड़े के तौर पर उस दौर के यादव जाति से आने वाले नेता रहे. उस दौर में भी तकरीबन 11% आबादी के साथ यादव जाति संख्या के लिहाज से बिहार में सबसे बड़ी जाति थी. अन्य पिछड़ा वर्ग में यादव जाति संख्या के लिहाज से मजबूत जाति थी तो संभव था कि उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन के बीच टकराहट हो.

अरुण सिन्हा अपनी किताब में लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर ने यादव नेताओं के सामने एक बार कहा था कि आप लोग गरीब लोगों को प्रतिनिधित्व देने में रुचि नहीं रखते हैं.

बात अब उनके राजनीतिक योगदान की. मंडल कमीशन के आरक्षण देने के बहुत पहले कर्पूरी ठाकुर ने साल 1977 में मुंगेरीलाल आयोग के अनुशंसाओं को मानते हुए सरकारी नौकरियों में 26% आरक्षण की व्यवस्था की थी. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले आरक्षण से अलग यह कोटा था. इस 26% के कोटे में पिछड़ा वर्ग अति पिछड़ा वर्ग सभी जातियों से आने वाली औरतें पिछड़े वर्ग के मुस्लिम और ऊंची जातियों के आर्थिक तौर पर गरीब लोग सबको शामिल किया गया था.

मतलब कर्पूरी के दौर में सामाजिक न्याय के औजार के तौर पर जिस आरक्षण का इस्तेमाल किया जाता था उसमें समाज का हर एक वर्ग शामिल था. 1977 के समय के हिसाब से देखा जाए, तो यह बहुत बड़ा कदम था.

बिहार जैसे जातिवादी समाज में इसे सहर्ष स्वीकार कैसे कर लिया जाता? तो ऊंची जातियों ने इसका भीषण विरोध किया. बहुत ही गंदी-गंदी और अश्लील गालियां कर्पूरी ठाकुर को सुनने को मिली. गूगल करेंगे तो वह गालियां सुनने को मिल जाएंगे.

उनके बारे में विस्तार से जानने के लिए नीचे दिए वीडियो पर क्लिक करें.