साक्षात्कार: मौत के साथ जीवन बिताने वाले वाराणसी के डोम समुदाय के लोगों पर पत्रकार राधिका अयंगर ने ‘फायर ऑन गैंजेस: लाइफ अमंग द डेड इन बनारस’ नाम की किताब लिखी है. उनका कहना है कि वे लोग भी जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं पर मुश्किलें ऐसी हैं कि उनकी ज़िंदगी अगले पहर की रोटी के संघर्ष में ही गुज़र रही है.
नई दिल्ली: हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, मृत्यु के बाद दाह संस्कार के लिए आग डोम ही देते हैं और तभी मोक्ष मिलता है. भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था में डोम समुदाय अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं. हालांकि, विडंबना यह भी है कि जिनके स्पर्श के बाद ही मोक्ष मिलने की धारणा है, उन्हें अन्यथा ‘अछूत’ समझा जाता है, जहां उनका छुआ खाने-पीने से परहेज़ बरता जाता है. राजनीति की बात करें, तो साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी से दूसरी बार नामांकन भरने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्तावकों में तत्कालीन डोम राजा जगदीश चौधरी (अब दिवंगत) भी शामिल थे, हालांकि इस घटना से आम डोम समुदाय के लिए कुछ बदला नहीं. आज भी यह समुदाय हाशिये पर जी रहा है और बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है. न उनकी कोई सामाजिक पहचान है न ही कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व.
जीवन-मृत्यु का शहर कहे जाने वाले वाराणसी में दो घाटों- मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर अंतिम संस्कार किए जाते हैं. मणिकर्णिका घाट के पास की ही बस्ती में डोम लोग रहते हैं. पत्रकार राधिका अयंगर ने मौत के साथ जीवन बिताने वाले इस समुदाय के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को उनकी किताब ‘फायर ऑन गैंजेस: लाइफ अमंग द डेड इन बनारस’ में दर्ज किया है. उनके इस समुदाय और किताब लिखने के अनुभव समेत उनसे विभिन्न पहलुओं पर हुई मीनाक्षी तिवारी की बातचीत.
आपका वाराणसी से कोई ख़ास कनेक्शन नहीं रहा है, आप एक अन्य राज्य में पली-बढ़ीं, विदेश में पढ़ाई हुई, फिर वाराणसी, उसमें भी डोम समुदाय को एक विषय के रूप में चुना, क्या वजह रही?
मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मास्टर ऑफ जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही थी, जब एक असाइनमेंट के तौर पर हमें एक थीसिस जमा करनी थी, जिसमें कोई विषय बताना था कि जिसके बारे में हम रिपोर्ट करना चाहेंगे. इसी सिलसिले में मैंने डोम समुदाय के बारे में एक आलेख पढ़ा और मेरी दिलचस्पी जगी कि उनके बारे में और अधिक जानूं. तो मैंने ढूंढना शुरू किया, पर उस समय मुझे उनके बारे में जो कुछ जानकारी मिली, वो बहुत सीमित थी, सिर्फ श्मशान घाट पर उनके काम के बारे में थी. मुझे और जानना था- उनकी ज़िंदगी के बाकी पहलुओं के बारे में… कि श्मशान घाट पर काम करने का क्या तजुर्बा होता है, वो लोग अपने मन में कैसा महसूस करते हैं, वो लगातार आग के क़रीब रहते हैं, काम के लिहाज़ से घाट जोखिम भरी जगह हैं, तो शारीरिक तौर पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है. वो रोज़मर्रा की इन परेशानियों से कैसे जूझते हैं. इसके अलावा मुझे बच्चों के बारे में जानना था कि क्या उन्हें अच्छी शिक्षा मिल रही है, क्या स्कूल उन्हें किसी तरह से तैयार कर पा रहे हैं, क्या बदलते माहौल, इंटरनेट वगैरह का उन पर कोई असर हो रहा है- और फिर समुदाय की महिलाएं- मुझे उनके बारे में जानना था. उनकी ज़िंदगी कैसी है, उनके क्या सपने हैं- क्या उन्हें घर से बाहर निकलने, अपनी रोज़ी-रोटी कमाने की आज़ादी है. मेरी जिज्ञासा यही सब जानने की थी लेकिन कहीं इस बारे में कुछ दर्ज नहीं था. यहीं से मेरी इस समुदाय के बारे में रिसर्च करने की इच्छा का जन्म हुआ.
फिर इस किताब की शुरुआत हुई, इसे लिखने में आठ साल लगे. मैंने 2015 में इसे लिखना शुरू किया था और 2023 की शुरुआत में मैंने इसे पूरा किया.
वाराणसी का लगभग हर पहलू भली प्रकार से दर्ज किया हुआ है- घाट, दुकानें, किस्से-कहानियां- यह टूरिज्म से लेकर राजनीति के केंद्र में है और रहा है, लेकिन डोम समुदाय के बारे में पर्याप्त बात नहीं हुई है. क्या लिखने वाले उदासीन रहे या कोई विशेषाधिकार वाली नज़र (Privileged gaze) जैसी बात लगती है.
डोम समुदाय के बारे में अकादमिक काम हुआ है लेकिन ये भी उनके श्मशान घाट पर किए जाने वाले काम तक ही सीमित है, उनके जीवन के बारे में बात नहीं हुई है. समुदाय के बारे में- इससे ताल्लुक रखने वाले पुरुषों, महिलाओं-बच्चों के बारे में विस्तार से कोई बात नहीं है. मुझे ऐसा लगता है कि ये इसलिए भी नजर नहीं आता कि प्रभावशाली जातियों के लोग उनके बारे में जानना भी नहीं चाहते हैं. उन्हें कोई खास फ़र्क़ भी नहीं पड़ता, जब तक श्मशान घाट पर काम करने के लिए कोई डोम मौजूद है, सब ठीक है.
और प्रिविलेज लेंस की बात तो है ही क्योंकि हम जैसे लोगों के लिए ये सुविधाजनक है कि उनके होने-न होने के प्रति उदासीन या तटस्थ बने रह सकें. ये बात है कि अंतिम संस्कार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन उसके इतर किसी को मतलब नहीं है कि वो क्या ज़िंदगी जी रहे हैं, किस हाल में रह रहे हैं, क्या मुश्किलें झेल रहे हैं. इसके अलावा मुझे लगता है कि प्रभुत्व रखने वाली जातियों के लोग अपनी ही दुनिया में रहते हैं, सब वैसे ही रहना चाहते हैं. हम जिस तरह के समाज में रहते हैं, उसमें फर्क या अंतर की बात ज़्यादा होती है – ‘हम बनाम वो’ चाहे जाति की बात हो, क्लास की बात हो जेंडर या धर्म की.
मैं यह बात भी जोड़ना चाहूंगी कि अकादमिक भी जो काम हुआ है, उसमें भी सिर्फ आदमियों की बात है, डोम महिलाओं की नहीं. बहुत सारी बातें हैं जो चौंकाती हैं- जैसे आप सोचिए कि उन्हें खाना पकाने के लिए जो लकड़ी मिल रही है वो श्मशान घाट की जली हुई लकड़ी ले जा रहे हैं. मुझे याद है कि मेरी किताब के मुख्य किरदारों में से एक भोला ने मुझे बताया था कि कई बार जब वो श्मशान से ऐसी लकड़ियां घर ले जाते थे तो उस पर मांस के टुकड़े चिपके हुए होते थे. ये भी सोचिए कि ये सब किसी बच्चे की मनोदशा पर कैसे असर करता होगा, अगर आप मौत को देखते हुए बड़े हो रहे हैं, जलते-पिघलते हुए शवों को देख रहे हैं, जो कोई देखने लायक चीज़ नहीं है, तो उसका आपने मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा! और डोम बच्चे, पांच-छह साल की उम्र वाले, जो गरीब परिवारों से हैं, वो इसी माहौल में काम करने को मजबूर हैं. मैंने अपनी किताब में ज़िक्र किया है कि कैसे ये छोटे बच्चे घाट पर आने वाले शवों से कफ़न उठाते हैं और बेहद कम पैसों में इसे उन दुकानदारों को देते हैं जो इन्हें धो-प्रेस करके दोबारा बेचते हैं. ये बच्चे छोटी उम्र से दिन-रात यही काम कर रहे हैं, ये उन्हें बहुत गहरे से प्रभावित कर रहा है और फिर इससे उबरने के लिए कच्ची उम्र से वो शराब और ड्रग्स लेने लगते हैं.
आजकल ऐसा कई बार सुनने को मिलता है कि अब कहां भेदभाव होता है, लेकिन आपने किताब में बताया है कि आज भी डोम समुदाय की महिलाएं किसी से गलती से स्पर्श कर जाएं तो उन्हें हिकारत झेलनी पड़ती है, वो अन्य जाति के लोगों के साथ सड़क पर नहीं चल सकतीं…
मैं भी सुनती रही हूं, बहुत से लोग कहते रहते हैं कि ये जाति, भेदभाव, छुआछूत अब देश में नहीं है. उन्हें सुनकर मैं सोचती हूं कि ये लोग कौन-सी काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं. जाति हमारे समाज की सच्चाई है, 21वीं सदी में भी.
मैंने मेरे तजुर्बे में देखा है. बनारस में जब मैं रिपोर्टिंग कर रही थी, तो फील्ड-वर्क के लिए चांद घाट से मणिकर्णिका घाट के बीच आना-जाना होता था, कई बार डोम समुदाय के बच्चे भी साथ आते थे. वो हमेशा एक गली में जाने से बचते थे. मैं समझ नहीं पाती थी, हम लंबे रास्ते से जाते थे, वो कहते थे- दीदी वो गली हमें पसंद नहीं है. बाद में एक दिन पता चला कि इस रास्ते में एक मंदिर है, जहां का एक पुजारी डोम बच्चों को मंदिर के आसपास देखते ही झिड़ककर भगा देता था. एक बच्चे के तौर पर जब लगातार आपको नीचा दिखाया जाएगा, मज़ाक उड़ाया जाएगा, अछूत बताया जाएगा, मंदिर से भगाया जाएगा तो दिमाग पर इसका क्या असर होगा?
ऐसे ही शुरुआत में जब मैं चांद घाट गई थी, तो एक उम्रदराज़ जोड़े से मिली, जिन्होंने नमस्ते के जवाब में हाथ जोड़कर कंधे झुकाकर जवाब दिया. ये मेरे लिए चौंकाने वाला अनुभव था. अभी कुछ दिनों पहले ही खबर आई थी कि एक ‘ऊंची’ जाति वाले शख्स ने दलित को इसलिए पीटा था कि उसने हाथ जोड़कर अभिवादन नहीं किया. तो ये सब उनके ज़ेहन में इस तरह बस चुका है कि भेदभाव तो होना ही है.
और शायद यहीं से वो संघर्ष शुरू होता है, जहां वो नहीं चाहते कि कोई उनकी पहचान जाने, मसलन भोला स्कूल-कॉलेज में इस बात को लेकर बेहद सावधान है कि किसी को मालूम न चले कि वो कहां से आता है…
हां, और ये इसलिए नहीं है कि वो खुद को लेकर शर्मिंदा है. वो डोम होने को लेकर गर्व करता है, उसकी पहचान को लेकर एक अभिमान है. लेकिन इसके साथ ही उसे यह डर भी है कि अगर वो किसी को अपने बैकग्राउंड के बारे में बताता है तो वो उससे दूरी बनाने लगेंगे, उसकी खिल्ली उड़ाएंगे, किसी तरह का बहिष्कार करेंगे, तो उसे लगता है कि उसे खुद को बचाने की ज़रूरत है, इसलिए वो उसकी जाति, उसकी पहचान छिपाता है. उसका मानना है कि इसी तरह वो ज़िंदगी में आगे बढ़ सकता है. वरना लोग उसे आगे बढ़ने ही नहीं देंगे. और भारत के इतिहास में इस बात के कितने ही उदाहरण हैं. शिक्षा की ही बात कर लें, अभी पिछले पांच-दस सालों में ही कितने उदाहरण हैं- रोहित वेमुला, पायल तड़वी उनके जैसे कई. भेदभाव हर जगह, हर क्षेत्र में है.
तो एक तरह से एक चक्र है जो चल रहा है- डोम समुदाय के लोग खासकर- जो श्रमिक डोम हैं वो गरीबी में ही जीने को मजबूर रहते हैं, पीढ़ियां बदलती हैं लेकिन ज़िंदगियों में कोई बदलाव नहीं आता, क्या वजह लगती है?
मुझे लगता है कि इसकी दो वजहें हैं. एक क़िस्सा बताती हूं- किताब में मैंने जिन अमेरिकी शख्स का ज़िक्र किया है, जो भोला समेत चार डोम बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना चाहते हैं, उन्होंने मुझे बताया कि जब वो इन बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में किसी सरकारी कर्मचारी से बात कर रहे थे, तो उसने पलटकर कहा- मुर्दा कौन जलाएगा फिर? ये कर्मचारी इन बच्चों को पढ़ाए जाने के खिलाफ था.
पहली वजह यही है कि समाज खुद नहीं चाहता कि डोम बच्चे इस काम को छोड़कर बाहर निकलें. ये एकदम जानी-परखी बात है, सब जानते हैं, सब जगह होता है. दूसरा पहलू ये भी है कि समुदाय के अंदर भी लोग ऐसा ही सोचते हैं. मैंने जब उनमें से कइयों से बात की, तो वो ये मानते हैं कि वही मोक्ष दिला सकते हैं, शिव ने केवल उन्हें ही ये वरदान दिया है. उनमें से एक में मुझसे कहा- चाहे राजा हो या फ़कीर, अंत में चौधरी जी के पैर पकड़ने ही पकड़ने हैं. तो वो जो काम करते हैं, उससे एक ग़ुरूर, एक तरह के अभिमान की भावना जुड़ी हुई है और ये इसलिए है क्योंकि वो समाज में अपने अस्तित्व का औचित्य बताना चाहते हैं. वो समाज जो इससे इतर उनसे दूरी बरतता है, अछूत मानता है, इज़्ज़त नहीं करता.
बात यही है कि एक तो समाज नहीं चाहता कि वो जिंदगी में सफल हों, जो हमने भोला के मामले में देखा. उसने कॉलेज में अपनी पहचान छुपाई क्योंकि उसे लगता है कि अगर किसी को, किसी शिक्षक को भी इस बारे में पता चलेगा तो वो उसकी राह में किसी तरह रोड़ा अटकाएंगे. बाकी डोम समुदाय यही समझता है कि वो भगवान का दिया फ़र्ज़ निभा रहा है.
तो क्या ऐसा कह सकते हैं कि डोम इसी तरह से संतुष्ट है या उन्हें किसी से कोई आशा ही नहीं है, वो बस ऐसे ही जीते चले जा रहे हैं.
वो ऐसे जी रहे क्योंकि उनके पास कोई और रास्ता नहीं है. अगर आप उस बस्ती में रह रहे हैं, जहां वो लोग रहते हैं वहां हालात बहुत मुश्किल हैं. जैसा मैंने किताब में बताया है कि जिन बच्चों की पढ़ाई शुरू हुई वो जब कोविड लॉकडाउन में वापस घर आए तो वहां पढ़ाई कर पाना बहुत मुश्किल था. एक कमरे का घर है, जिसमें आठ-दस लोग रह रहे हैं, मां-बाप बच्चों को किसी काम से भेज रहे हैं- तो वहां के लोगों की ज़िंदगी में पढ़ाई-लिखाई प्राथमिकता नहीं है. घरवाले बच्चों को स्कूल से निकालकर मणिकर्णिका घाट भेज रहे हैं काम करने के लिए क्योंकि घर में चूल्हा जलना चाहिए. प्राथमिकता पैसा कमाना है क्योंकि उससे घर चलेगा.
वो भी जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वो कभी ऐसा कर पाएंगे. भोला इकलौता ऐसा शख्स रहा, जिसने किसी की नहीं सुनी, किसी को भी उसके आगे बढ़ने के रास्ते में नहीं आने दिया. लेकिन सब ऐसा नहीं कर सकते.
डोम महिलाओं की बात करते हैं. पूरा बनारस ‘विकास’ के रास्ते पर बढ़ गया है, पर चांद घाट की महिलाएं कहीं बहुत पीछे रह गई हैं, जहां उनके पास सुविधा की छोड़िए, सिर बिना ढके बाहर निकलने की आज़ादी तक नहीं है.
देखिए, यह एक रूढ़िवादी समुदाय है तो पैट्रिआर्की (patriarchy) तो है ही. उस पर वो जातिगत भेदभाव, लैंगिक पूर्वाग्रहों और गरीबी के साथ जी रही हैं. मैं एक महिला से मिली थी, जो भीषण गर्मी के मौसम में बेहद छोटे-से एक कमरे के घर में बिना बिजली के खाना बना रही थीं. मैंने जब उनसे कहा कि काम निबटाकर वो घर के बाहर चलें तो उन्होंने बताया कि उनके पति से इस बात की इजाज़त नहीं मिली हुई है. यानी वो अपनी मर्ज़ी से घर के बाहर कदम तक नहीं रख सकती हैं. फिर अगर उन्हें कहीं बाहर जाना है तो सिर ढकना होगा. उन्हें ये पसंद नहीं है लेकिन करना पड़ता है. अब उनके लिए यह सामान्य हो गया है. लेकिन अब बदलाव आ रहा है. मैंने किताब में जिक्र किया है कि कैसे भोला अब जिस शहर में नौकरी कर रहा है, वहां अपनी तीन भतीजियों को लेकर गया है. ये उस समुदाय के लिए बहुत बड़ी बात है जो 12-13 की उम्र में अपनी बेटियों के बाहर आने-जाने को रोक देता है, उनकी शादी के बारे में सोचने लगता है. पहली बार वो लड़कियां घर-गृहस्थी के बजाय अपने भविष्य के बारे में सोच रही हैं, ऐसी जिंदगी जिसके केंद्र में वो ख़ुद हैं, बाकी लोग नहीं.
बीते कुछ समय से जाति राजनीतिक चर्चाओं, बहस-मुबाहिसों का महत्वपूर्ण हिस्सा बनी है. इसमें डोम समुदाय को कहां पाती हैं? उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व, समाज में उनकी हिस्सेदारी, उनकी बात करने वाला, उनके स्थानीय मुद्दे उठाने वाला कोई नहीं है.
वाराणसी में बहुत कुछ नया हो रहा है, तो इसे लेकर कुछ लोग नाराज़ हैं, कुछ खुश हैं, बदलावों को स्वीकार रहे हैं कि कुछ नया हो रहा है. जब दिवंगत डोम राजा जगदीश चौधरी को पद्मश्री से नवाज़ा गया, तो उनके बेटे ओम चौधरी उनकी तरफ से अवॉर्ड लेने गए और कहा कि अच्छा है कि डोमों को भी पहचान मिल रही है. मैंने एक डोम महिला से इसके बारे में पूछा तो उनका कहना था कि ये सब बहुत अच्छा है, लेकिन जिस ‘विकास’ की बात कर रहे हैं, वो हम तक नहीं आया है..
मैं उसी बस्ती की बात करूंगी जहां मैं गई हूं, जिनसे मैंने बात की है. बस्ती में बहुत सारी परेशानियां हैं, जो इस तरह के इलाकों में होती हैं, पानी की किल्लत, रहने को पर्याप्त जगह नहीं है, शौचालय नहीं है, वगैरह. योजनाएं हैं लेकिन लोगों को योजना या स्कीम के बारे में जानकारी ही नहीं है. उन्हें अगर मालूम भी है, तो उनके पास जरूरी रिकॉर्ड, या पूरे दस्तावेज नहीं हैं. मैंने उनसे पूछा था कि क्या उनके पास कोई एक्टिविस्ट या ऐसा कोई है जो उनके मुद्दे को उठाता ही, उनकी लड़ाई लड़ता हो, तो मुझे जवाब मिला कि लोग अपने ही जीवन में इतने खपे हुए हैं कि उनके पास किसी और चीज़ के लिए, इकट्ठा होकर लड़ने के लिए समय नहीं है. रोज़ कुआं खोदकर रोज़ पानी पीने वाली स्थिति है, तो उनकी चिंता हमेशा ये है कि अगले पहर खाना मिल पाएगा कि नहीं. ये बहुत मुश्किल स्थिति है.
क्या डोम राजा का कॉन्सेप्ट एक समुदाय के तौर पर लोगों को कोई फायदा दे पा रहा है?
नहीं, ऐसा नहीं है. यही बात मुझे उस महिला ने कही कि आप डोम राजा को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित कर रहे हैं, वो सही है लेकिन उससे एक समुदाय के तौर पर डोमों को उससे कोई मदद नहीं मिल रही है, जो समाज के सबसे निचले पायदान पर जी रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि 2024 के आम चुनाव के बाद कोई बदलाव आ सकता है लेकिन ऐसी ख़बरें भी हैं कि उनकी बस्ती तोड़ी जा सकती है, तो एक तरह डर भी है उनमें.
हिंदू धर्म में अमूमन महिलाएं श्मशान घाट पर नहीं जाती हैं, आपकी रिपोर्टिंग के इतने लंबे समय में क्या आपका महिला होना कोई बाधा बना?
हां, बिल्कुल. जो भी मणिकर्णिका घाट गया है, वो जानता है कि वहां अधिकांश आदमी ही होते हैं, लकड़ीवाले, सामग्री बेचने वाले, शवयात्री, गुजरने वाले शख्स के रिश्तेदार, सभी पुरुष ही होते हैं तो ऐसे में कोई महिला एक हाथ में डिक्टाफोन, एक हाथ में नोटबुक और गले में कैमरा डाले वहां दिखेगी तो उस पर ध्यान जाना लाज़मी है. और शुरुआत में मुझे यह महसूस होता था कि लगातार नज़रें मुझ पर बनी हुई हैं. मुझे इसे लेकर सामान्य होने में काफी समय लगा था.
जब मैंने घाट पर काम करने वाले डोम पुरुषों से बात करनी चाही तो वे भी सहज नहीं थे. पहली बात कि मैं बाहर वाली थी, एक आउटसाइडर जो उनकी ज़िंदगी के बारे में सवाल-जवाब कर रही थी. दूसरा कि मैं एक महिला हूं. उन्हें इस बात का अभ्यास नहीं था कि कोई महिला आए और उनसे सवाल पूछे. इस मुश्किल से निपटने में काफी मेहनत लगी. मैं बार-बार जाती रही तो उन्हें मुझ पर भरोसा हुआ. (हंसते हुए) लेकिन फिर भी एक शख्स था, जिसे हमेशा लगता रहा कि मैं कोई अंडरकवर पुलिसवाली हूं और वो मुझे देखते ही भाग जाता था.
आप उस दुनिया से बेहद अलग दुनिया से आती हैं, तो किताब लिखते समय आपने इस बात का कितना ध्यान रखा कि आप उनके हालात, उनके माहौल को लेकर जजमेंटल न हों, उस पर कोई बात आपकी राय (कमेंट) जैसी न लगे.
जैसा मैंने किताब में भी लिखा है कि मैं इस बात को बहुत अच्छे-से समझ रही थी कि मैं एक प्रिविलेज क्लास, जाति से आती हूं और इसका मैंने अपनी रिपोर्टिंग और लेखन में भी ख़ास ख़याल रखा है. मैंने अपनी संपादक से भी इसे लेकर बात की थी. हमें पत्रकारिता में सिखाया जाता है कि किसी की कहानी बताते हुए अपनी राय नहीं जोड़नी चाहिए और मैंने इस बात का ध्यान रखा. मैंने अपने नज़रिये से लिखा है, लेकिन सिर्फ वहां, जहां मेरे अनुभव को जोड़ने की ज़रूरत थी. मेरा मकसद था कि उनकी ज़िंदगी दर्ज हो, मैंने उन्हें ध्यान से सुना.कितनी भी गहन रिसर्च कर ली जाए उनके जिए हुए अनुभव की जगह रिसर्च नहीं ले सकती, तो मैं उसी को दर्ज कर रही थी.
आपकी की किताब कहीं-कहीं 2015 में आई फिल्म ‘मसान की याद दिलाती है, आपने किताब के अंत में फिल्म में नायक का किरदार निभाने वाले अभिनेता का भी शुक्रिया अदा किया है. क्या किताब और फिल्म में कोई कनेक्शन है?
ये एक बड़ी दिलचस्प बात है कि जिस किसी के ज़ेहन में डोम समाज से जुड़ी कोई याद है वो इसी फिल्म की है. लेकिन ये बहुत महत्वपूर्ण फिल्म है. मेरी रिपोर्टिंग के समय मैंने चांद घाट के कुछ बच्चों (जिनका किताब में जिक्र है) को अपने गेस्ट हाउस में लाकर ये फिल्म दिखाई थी. मैं चाहती थी कि वो इसे देखें.उस समय तक उन्हें पता भी नहीं था कि उनके समुदाय पर कोई फिल्म भी बनी है, तो वो बहुत उत्साहित थे. लेकिन जब उन्होंने इसे देख लिया तो कहा कि फिल्म अच्छी है, लेकिन हमारी ज़िंदगी इससे बहुत अलग है. तब उनकी उम्र कम थी लेकिन अगर आप किताब पढ़ेंगे तो मालूम चलेगा कि आज की तारीख में उनमें से दो की ज़िंदगी करीब-करीब वैसी ही राह पर गई, जैसी फिल्म के किरदार दीपक की थी. बाकी अपनी रिसर्च के हिस्से के रूप में मैंने अभिनेता विकी कौशल का इंटरव्यू किया था कि उनका श्मशान घाट पर काम करने का क्या अनुभव रहा. लेकिन ये सब रिसर्च का छोटा हिस्सा था, मैंने इसके अलावा काफी अलग-अलग आलेख, शोध वगैरह से जानकारियां जुटाई थीं.