पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग दोनों स्तंभों के बीच टकराव की एक बड़ी वजह है.
नई दिल्ली: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव और न्यायिक सक्रियता पर छिड़ी बहसों के बीच पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्यायपालिका को एक लक्ष्मण रेखा खींचने की जरूरत पर जोर दिया है.
पूर्व अटार्नी जनरल ने कार्यपालिका और न्यायपालिका में हर दिन गहरे होते टकराव पर रोष प्रकट करते हुए आरोप लगाया कि पिछले तीन दशक में न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से परे जा चुकी है और उसे एक लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी.
रोहतगी ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को निष्प्रभावी करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश की भी आलोचना करते हुए इसे असंवैधानिक कहा. उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र के दोनों स्तंभों के बीच टकराव की एक बड़ी वजह है.
राज्यसभा टीवी को दिए इंटरव्यू में रोहतगी ने कहा कि क्या संसद कह सकती है कि हम मामलों पर फैसला करेंगे क्योंकि अदालतें लंबित मामलों की समस्या का समाधान नहीं कर सकतीं? सभी स्तंभों को एक दूसरे का सम्मान करना होगा और एक लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी.
राज्यसभा टीवी द्वारा जारी एक बयान के अनुसार उन्होंने कहा, एक तरह से ऐसे हालात नहीं बनने दिए जा सकते कि अदालतें सरकार चला रही हैं. रात 10 बजे के बाद संगीत बजा सकते हैं या नहीं, क्या इस बारे में अदालतों द्वारा निर्णय देना सही होगा? अदालतों को लक्ष्मण रेखी खींचनी होगी.
तीन साल के कार्यकाल के बाद गत जून में अटार्नी जनरल पद छोड़ने वाले रोहतगी ने जनहित याचिकाओं के लिए भी दिशानिर्देशों की वकालत की थी. उन्होंने दलील दी कि राजनीतिक और आर्थिक प्रतिद्वंद्विताओं की वजह से इनमें से अधिकतर प्रेरित होती हैं.
उन्होंने कहा कि पीआईएल एक हथियार है जिसका इस्तेमाल सावधानी से करना होगा. एनजेएसी को निष्प्रभावी करने के शीर्ष अदालत के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए रोहतगी ने कहा कि संसद और राज्य विधानसभाओं ने कानून पारित किया था और अदालत को इसे रद्द करने की कोई जरूरत नहीं थी. एनजेएसी में सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति में अधिकार दिया गया था.
उन्होंने तो यहां तक कहा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव की एक बड़ी वजह एनजेएसी है.
गौरतलब है कि बीते 26 नवंबर को संविधान दिवस के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी न्यायापालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र पर अपनी बातें रखीं थीं. सरकार का कहना है कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से परे जा रही है, जबकि न्यायपालिका का कहना है कि जहां नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा हो, वहां उसे हस्तक्षेप करने का अधिकार है.
बीते रविवार को आयोजित उक्त कार्यक्रम में विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आश्चर्य जताया था कि क्यों निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए न्यायपालिका उनपर और प्रधानमंत्री पर विश्वास नहीं करती है.
इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा था, एक-दूसरे के लिए सम्मान होना चाहिए और कोई भी शाखा सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती है.
विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने न्यायपालिका को विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत की याद दिलाई थी. उन्होंने कहा था कि शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत न्यायपालिका के लिए भी उतना ही बाध्यकारी है, जितना कार्यपालिका के लिए.
रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि शासन का काम उनके पास रहना चाहिए जो शासन करने के लिए निर्वाचित किए गए हों. जनहित याचिका शासन का विकल्प नहीं बन सकती है.
इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा था, एक-दूसरे के लिए परस्पर सम्मान होना चाहिए और लोकतंत्र की कोई भी संस्था सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती है.
इसके जवाब में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि उच्चतम न्यायालय संवैधानिक संप्रभुता में विश्वास करता है और उसका पालन करता है. उन्होंने कहा, मौलिक अधिकार संविधान के मूल मूल्यों में हैं और वे संविधान का मूल सिद्धांत हैं. एक स्वतंत्र न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ संतुलन स्थापित करने के लिए संविधान के अंतिम संरक्षक की शक्ति दी गई है ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि संबंधित सरकारें कानून के प्रावधान के अनुसार अपने दायरे के भीतर काम करें.
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकार के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता. नागरिकों का अधिकार सर्वोच्च होना चाहिए. न्यायमूर्ति मिश्रा ने यह भी कहा था, हमारी किसी भी तरह की नीति लाने में दिलचस्पी नहीं है, लेकिन जिस क्षण नीति बन गई, हमें इसकी व्याख्या करने और इसे लागू किया जाए यह देखने की अनुमति है.
इसके पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक अन्य कार्यक्रम में कहा था कि अदालतें कार्यपालिका का काम नहीं कर सकती हैं और दोनों की स्वतंत्रता को सख्ती से कायम करना होगा.
इस चर्चा पर सवालों का जवाब देते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा कि अगर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सार्वजनिक बहस नहीं होती है तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा क्योंकि दोनों के अपने-अपने अधिकार हैं.
दवे ने कहा, सरकार को अवश्य समझना चाहिए कि न्यायपालिका की एक भूमिका है और वे कार्यपालिका से निश्चित तौर पर सवाल पूछ सकते हैं और उसे जवाब देने से नहीं बचना चाहिए. न्यायपालिका को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
इससे पहले भी कई मौकों पर कार्यपालिका और न्यायपालिका ने एक-दूसरे से असहमति जताई है. कुछ महीने पहले तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि न्यायपालिका तभी हस्तक्षेप करती है जब कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने में विफल रहती है.
हालांकि, विधि विशेषज्ञों ने कहना है कि ऐसे गंभीर मुद्दे पर सार्वजनिक बहस से बचा जाना चाहिए और लोकतंत्र के हित में न तो न्यायपालिका को और न ही कार्यपालिका को एक-दूसरे के क्षेत्र में दखल देना चाहिए.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)