कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है. सामग्री की विविधता, उसका विस्मयकारी उपयोग चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है.
दिल्ली में अब हर वर्ष होनेवाला ‘इंडिया आर्ट फेयर’ क्रमश: सुप्रतिष्ठित, लोकप्रिय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त होता गया है. उसमें हर बार कई नए तरह के प्रोजेक्ट भी प्रस्तुत होते आए हैं. उसमें भाग लेने वाली, देशी-विदेशी आर्ट गैलरियों की संख्या भी बढ़ती गई है. मेला इतना बड़ा है और उसमें प्रायः सभी कुछ खड़े-खड़े और चलकर देखना पड़ता है कि मेरी जैसी बूढ़ी मंदगति से पूरा देख पाना अब मुमकिन नहीं रह गया है. फिर भी काफ़ी देख पाया और मेरे इस मत की पुष्टि हुई कि इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है और, सौभाग्य से, यह नवाचार ऐसे अनेक युवा कर रहे हैं जो छोटी जगहों से आते हैं.
सामग्री की विविधता और उसका विस्मयकारी उपयोग सचमुच चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है. ऐसा करना आसान नहीं होता. लेकिन संयोग से कम से कम ललित कला ने ऐसे ग्राहक और संग्राहक पा लिए हैं जो नवाचारी कला को प्रश्रय दे रहे हैं. इनमें से प्रायः कोई भी सरकारी नहीं है, न ही सरकार द्वारा पोषित कोई संस्थान.
ऐसी कला हमारे देखने को बदलती है- जिसे हम फेंके जाने वाली चीज़ समझते हैं, जो टूटी हुई बिखरी हुई है वह भी कला में विन्यस्त हो सकती है. यह भी कि हम उसे ध्यान या हिसाब में आमतौर पर नहीं लेते, पर हमारी चीज़ों की दुनिया, जिससे हम निरंतर घिरे हैं, कितनी विपुल है और उसके कला-उपयोग की कितनी सारी संभावनाएं हैं. कला उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करती है, उन्हें उनके संदर्भ से मुक्त कर नए संदर्भ में सजीव कर देती है. अंततः कला जीवन को घेरती है और स्वयं जीवन से घिरी होती है. कला है यह स्वयं जीवन का सत्यापन है.
यह बात ग़ौर करने की है कि सामग्री की यह विपुलता निरे कौशल का मामला नहीं है: उसमें एक तरह से अलक्षित को लक्षित के अहाते में लाकर सार्थक प्रतिरोध भी प्रगट होता है. जीवन का निपट रोज़मर्रापन भी, एक तरह से, नई सार्थकता पा लेता है. यह सब होता है कला की जटिल प्रक्रिया से. इन कलाकृतियों में जैसी प्रक्रिया और परिणति दोनों ही नज़र आते हैं: कई बार ये कलाकृतियां मुकम्मल नहीं लगतीं- वे प्रक्रिया में होती हैं और उनका अधूरापन मोहक लगता है.
यह भी देखा जा सकता है कि काफ़ी बड़ा और बढ़ता थोड़ा पैसे वाला चिकना-चुपड़ा वर्ग अब कला का रसग्राही या ग्राहक हो रहा है. यह मान्यता बढ़ रही है कि असली संपन्न वह है जिसके पास बड़ा सुसज्जित मकान भर नहीं, कुछ कलाकृतियां भी हों. इस स्थिति ने कला-बाज़ार काफ़ी बढ़ा दिया है. तथाकथित मास्टर्स याने मूर्धन्यों की कृतियों की क़ीमतें हर वर्ष तेज़ी से बढ़ रही है. कला में सच्ची सुरुचि और उसकी समझ अभी भी दुर्लभ है और बिरलों में होती है. पर कला देखने, गैलरियों में जाने, कला-मेला में सुंदर और अनूठा दिखने की आदत फैल रही है.
एक कलासंग्राहक ने निजी बातचीत में कहा कि तरह-तरह की सामग्री के उपयोग का एक कारण सर्जनात्मक नवाचार नहीं है, उस पर डिज़ाइन का बहुत प्रभाव बढ़ रहा है. अनेक ‘इंटीरियर डिज़ाइनर’ संपन्न घरों का अंतरंग सजाने के लिए कलावस्तुओं की मांग करते हैं और उस मांग के अनुरूप कुछ कलाकृतियां बन रही हैं जो चित्र और मूर्ति के बीच में संतुलित कृतियां हैं. वे इस तरह तीन आयाम पा लेती हैं और आधुनिक सजावट के काम की हैं.
मेले में इस बार आधुनिक थोड़ा कम हैं, समकालीन अधिक. फिर भी कुछ उल्लेखनीय और पहले सार्वजनिक रूप से न देखी गई कृतियां नज़र में आईं. इनमें रामकुमार, गणेश हलोई, रज़ा, सोमनाथ होर, शंख चौधरी, हिम्मत शाह के अलावा मांधवी पारेख, रामेश्वर बूटा, शिल्पा गुप्त, अनीता दुबे, मिठु सेन, मनीष पुष्कले, वीर मुंशी आदि हैं.
इस बार मुंबई के एक संस्थान ने कुछ कलाकारों की कलाकृतियों के बुने हुए प्रतिरूप तैयार किए हैं. अर्शिया लोखपड़वाला के निर्देशन में ये प्रतिरूप बहुत आकर्षक बने हैं और उनमें रज़ा, गुलाम मोहम्मद शेख, नीलिमा शेख और रणवीर कालेका के प्रतिरूप विशेष हैं. मूल कलाकृति को किसी दूसरे माध्यम जैसे सिरेमिक, प्रिंट आदि में पुनर्रचित करने की प्रथा रही है. रज़ा और अन्य के चित्रों को कालीनों में पुनर्रचा गया है. पर बुनाई में ये प्रतिरूप पहली ही बार संभव हुए हैं.
इस बार मेले में सूज़ा और रामकुमार पर कम से कम मेरा विशेष ध्यान गया क्योंकि दोनों मूर्धन्यों की जन्मशती इस वर्ष आ रही है.
ज्योतिवसना दिगंबरा
कन्नड़ की भक्त वचन कवि अक्क महादेवी की कविताओं से हम अपरिचित नहीं रहे हैं. अंग्रेज़ी के अलावा हिंदी में ही उनके कुछ भावानुवाद हुए हैं. सुभाष राय के अध्यवसाय और अनुशीलन से कन्नड़ प्रदेश में छानबीन और विशेषताओं से निरंतर संवाद कर ‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ शीर्षक से जो पुस्तक सेतु प्रकाशन से प्रकाशित की है वह इस अर्थ में अनूठी है कि उसमें लंबा वैचारिक विश्लेषण, मूल कन्नड़ कविताओं के यथासंभव गेय अनुवाद और कवि से प्रेरित छाया-कविताएं संकलित हैं.
किसी कवि द्वारा दूसरे किसी कवि का अनुवाद अच्छा और दिलचस्प तभी हो पाता है जब अनुवादक-कवि, सर्जनात्मक और वैचारिक स्तरों पर, दूसरे कवि को आत्मसात् कर पाता है. अनुवाद की प्रक्रिया, अपने उन्नत क्षणों में, आत्मसातीकरण भी होती है. तभी अनुवाद में चमक और गरमाहट विन्यस्त हो पाते हैं. यह सुखद है कि सुभाष राय ने अक्क महादेवी को अनूदित और आत्मसात् दोनों ही किया है.
एक ऐसे समय में हमारे इतिहास में विक्टोरियन मानसिकता के हस्तक्षेप का हम विलंबित उभार फिर अनुभव कर रहे हैं, महादेवी की कविता हमें अपनी परंपरा में संभव साहस का एक पाठ सिखाती है. उसकी आस्था की गहनता और उत्कटा, कामना और विकलता विलक्षण है. वह अपने समय में प्रतिरोध की और आज के अन्धभक्त समय में भी प्रतिरोध है.
महादेवी यह जिज्ञासा करने के बाद कि ‘रसविहीन पर्वत है/तो फिर पेड़ वहां/कैसे उगते हैं? सत्वहीन कोयला अगर है/ तो वह कैसे पिघला देता/ लोहे को भी’ वे एक कविता में कहती हैं:
जंगल में हर पेड़
मिला सब देने वाला
मिली झाड़ियां जीवन रस
भर देने वाली
पत्थर सारे पारस पत्थर
बन कर आए
सारी भूमि लगी
मुझको ज्यों तीरथ कोई
पानी सारा जैसे
अमृत जल हो सचमुच
मिले हिरण सब
स्वर्ण हिरण बन…
एक और कविता का आरम्भ होता है:
नील पर्वत शिखर पर आरूढ़
पहने चन्द्रमणि निज पांव में
तुरही बजाते दीर्घ सींगों की
ओ शिवा! कब
फोड़ पाऊंगी
समुन्नत स्तनों के घट
तुम्हारी देह पर…
अपनी दिगंबरता का एक तरह से औचित्य बताते हुए एक कविता में वे कहती हैं:
देह पर जो वस्त्र है, वह खींच सकते हो मगर
नग्नता को किस तरह
तन से उतारोगे?
शर्म जिसने फेंक दी
पहने खड़ी जो भोरधर्मी
ज्योति शिव की
अरे मूर्खों! क्या
ज़रूरत है उसे अब
वस्त्र की, आभूषणों की!
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)