पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी और वकील विष्णु शंकर जैन ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की है. 1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल किए गए थे.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते शुक्रवार (9 फरवरी) को सवाल किया कि क्या संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवंबर 1949 को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है.
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने यह सवाल पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी और वकील विष्णु शंकर जैन से पूछा, जिन्होंने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग की है.
एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस दत्ता ने कहा, ‘शैक्षणिक उद्देश्य के लिए क्या एक प्रस्तावना जिसमें तारीख का उल्लेख किया गया है, को अपनाने की तारीख में बदलाव किए बिना बदला जा सकता है. अन्यथा, हां प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है. इसमें कोई समस्या नहीं है.’
स्वामी ने उत्तर दिया, ‘इस मामले में बिल्कुल यही प्रश्न है.’
जस्टिस दत्ता ने आगे कहा, ‘शायद यह एकमात्र प्रस्तावना है, जो मैंने देखी है, जो एक तारीख के साथ आती है. हम यह संविधान हमें अमुक तारीख को देते हैं. मूल रूप से ये दो शब्द (समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष) वहां नहीं थे.’
जैन ने कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना एक निश्चित तिथि के साथ आती है, इसलिए इसमें बिना चर्चा के संशोधन नहीं किया जा सकता. इस पर स्वामी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि 42वां संशोधन अधिनियम आपातकाल (1975-77) के दौरान पारित किया गया था.
शुरुआत में जस्टिस खन्ना ने स्वामी से कहा कि न्यायाधीशों को मामले की फाइलें सुबह ही मिल गई थीं और समय की कमी के कारण उन्होंने उन पर गौर नहीं किया. पीठ ने कहा कि मामले पर विस्तृत चर्चा की जरूरत है और दोनों याचिकाओं पर सुनवाई 29 अप्रैल के लिए टाल दी.
2 सितंबर, 2022 को शीर्ष अदालत ने सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका को एक अन्य लंबित मामले – बलराम सिंह और अन्य द्वारा दायर – के साथ सुनवाई के लिए टैग कर दिया था.
स्वामी और सिंह दोनों ने प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग की है.
1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल किए गए थे.
संशोधन ने प्रस्तावना में भारत के विवरण को ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’ से बदलकर ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ कर दिया.
स्वामी ने अपनी याचिका में तर्क दिया है कि प्रस्तावना को बदला, संशोधित या निरस्त नहीं किया जा सकता है.
मिंट की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने अपनी याचिका में कहा था कि आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से प्रस्तावना में डाले गए दो शब्द (समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष), 1973 में 13 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा प्रसिद्ध केशवानंद भारती फैसले में प्रतिपादित बुनियादी संरचना सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं, जिसके द्वारा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को संविधान की मूल विशेषताओं के साथ छेड़छाड़ करने से रोक दिया गया था.
स्वामी ने दलील दी, ‘संविधान निर्माताओं ने विशेष रूप से इन दो शब्दों को संविधान में शामिल करने को खारिज कर दिया था और आरोप लगाया था कि ये दो शब्द नागरिकों पर तब भी थोपे गए थे, जब संविधान निर्माताओं ने कभी भी लोकतांत्रिक शासन में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष अवधारणाओं को पेश करने का इरादा नहीं किया था.’
उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि प्रस्तावना में न केवल संविधान की आवश्यक विशेषताओं को दर्शाया गया है, बल्कि उन मूलभूत शर्तों को भी दर्शाया गया है, जिनके आधार पर एक एकीकृत समुदाय बनाने के लिए इसे अपनाया गया था.
राज्यसभा सांसद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) नेता बिनॉय विश्वम ने भी स्वामी की याचिका का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और कहा था कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ संविधान की अंतर्निहित और बुनियादी विशेषताएं हैं.
उन्होंने कहा था, ‘स्वामी द्वारा दायर याचिका का इरादा धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को पीछे छोड़कर भारतीय राजनीति पर स्वतंत्र लगाम लगाना है.’
विश्वम के आवेदन में कहा गया है, ‘स्वामी की याचिका पूरी तरह से कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इसमें कोई योग्यता नहीं है. यह अनुकरणीय लागत के साथ खारिज किए जाने योग्य है, क्योंकि यह भारत के संविधान में 42वें संशोधन को चुनौती देती है.’
सीपीआई सांसद बिनॉय विश्वम ने अपने आवेदन में कहा था कि जनहित याचिका के पीछे असली उद्देश्य राजनीतिक दलों को धर्म के नाम पर वोट मांगने की अनुमति देना है.