अपने वक़्त में कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह जैसे नेता सामाजिक समानता की जिस लड़ाई में मुब्तिला थे, उसमें उनके लिए निजी मान-अपमान या विभूषणों का कोई प्रश्न कहीं था ही नहीं. चरण सिंह जब उपप्रधानमंत्री थे, तब सरकार ने न सिर्फ भारत रत्न, बल्कि सारे पद्म पुरस्कारों को ‘अवांछनीय’ क़रार देकर बंद कर दिया था.
भारत रत्न: सम्मान, सौदा या सियासत?… भारत रत्न देकर क्या पीएम मोदी चुनावी समीकरण साध रहे हैं?… भारत रत्न के पीछे कई क्या है राजनीति?… लोकसभा चुनावों पर इसका कैसा होगा असर?… कर्पूरी ठाकुर और लालकृष्ण आडवाणी को एक साथ भारत रत्न यानी मंदिर और मंडल की ओर साझा कदमताल… कांग्रेस का जात दांव, भाजपा का जाट दांव…इधर मिला सम्मान, उधर गठबंधन का ऐलान… भाजपा सांसद ने कहा, 1990 से पहले कई ऐसे लोगों को भारत रत्न मिला, जो उसके हकदार नहीं थे.
पिछले दिनों नरेंद्र मोदी सरकार ने दो किस्तों में पांच शख्सियतों को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित करने की घोषणाएं कीं तो मीडिया पर पहले से चले आ रहे अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रणों के बावजूद उसकी घोषणाओं के पीछे की नीयत का पता देने वाली ये सुर्खियां चर्चा में आईं.
एक बड़े हिंदी दैनिक ने तो एक कार्टून में उसके एक पात्र को यह कहते हुए भी छापा कि ‘मैं तो कहता हूं, सौ डेढ़ सौ भारत रत्न और आर्डर कर देते हैं, क्या पता कब जरूरत पड़ जाए’, जबकि एक पत्रकार ने यह कहकर इससे भी कहीं ज्यादा चुटीली टिप्पणी कर दी कि बाल ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल को भी भारत रत्न मिल जाता तो सुखबीर सिंह बादल और उद्धव ठाकरे को (नीतीश और जयंती की तरह पल्टी मारकर सत्ता पक्ष की ओर चले आने में) सहूलियत हो जाती.
इन कथनों व अभिव्यक्तियों में ज्यादातर का उद्देश्य भले ही प्रचारात्मक रहा हो, उन्होंने कई लोगों को 1962 में आई फिल्म ‘असली-नकली’ का वह लोकप्रिय गीत याद दिला दिया, जिसका मुखड़ा था: लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज हो कितना गहरा, दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा! स्वाभाविक ही, इन अभिव्यक्तियों का एक अर्थ इस प्रश्न तक भी ले जाता है कि जब देश के लोकतंत्र को धर्मराज्य (पढ़िए: अधर्म राज्य) से प्रतिस्थापित करने के लिए जानबूझकर खड़े किए जा रहे नाना बवंडर उसकी किसी भी संस्था या प्रतीक को नहीं बख्श रहे तो उसके दूसरे मानबिंदुओं या सम्मानों को ही क्यों कर बख्श देंगे?
बटलोई के चावल के रूप में इन भारत रत्नों में से सिर्फ दो -कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह- के मामलों पर ही केंद्रित करें तो यह सम्मान मिलने से खुद को खुशी से गदगद और सरकार या कि प्रधानमंत्री का कृतज्ञ जता रहे उनके तथाकथित समर्थकों व अनुयायियों की याद्दाश्त अपनी उस जनता की याद्दाश्त से भी कमजोर लगती है, जिसको लेकर अंग्रेजी में पब्लिक ‘मेमोरी इज शॉर्ट’ जैसी कहावत कही जाती है. अन्यथा उन्हें यह समझने में कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए थी कि सरकार द्वारा जिस बदनीयती से यह सम्मान घोषित किया गया है, उसके चलते ये दोनों नेता हमारे बीच होते तो उसे अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में कहें, तो चिमटे से छूना भी पसंद नहीं करते.
दरअसल, अपने वक्त में वे सामाजिक समानता की जिस लड़ाई में मुब्तिला थे, उसमें उनके निकट निजी मान-अपमान या विभूषणों का कोई प्रश्न या मुद्दा कहीं था ही नहीं. हो ही नहीं सकता था.
इसे यों समझ सकते हैं कि एक बार लंबी-चौड़ी कद काठी वाले चौधरी चरण सिंह बिहार स्थित कर्पूरी ठाकुर के यहां गए तो उनके जीर्ण-शीर्ण घर के अपेक्षाकृत नीचे दरवाजे से टकराकर उनके सिर व माथे पर चोट लग गई. इस पर उन्होंने कर्पूरी से घर बनवा देने का प्रस्ताव दिया तो कर्पूरी ने यह कहकर मना कर दिया कि अभी तो बिहार में बहुत से लोगों को अपने सिर छुपाने के लिए ऐसे घर भी मयस्सर नहीं हैं.
एक अन्य अवसर पर कर्पूरी के मुख्यमंत्री रहते उनके पिता सामंती अत्याचार के शिकार हुए और संबंधित जिलाधिकारी ने उनको खुश करने के लिए दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की बात कही तो उन्होंने उसे सामंती उत्पीड़न के शिकार दूसरे ऐसे परिवारों पर ज्यादा ध्यान देने की नसीहत दे डाली, जिनके घर का कोई शख्स मुख्यमंत्री नहीं है. फिर भी उन्हें सम्मान से ‘आह्लादित’ नीतीश इसे अपनी राजनीतिक पलटी के लिए इस्तेमाल करने तक जा पहुंचे हैं तो उनके आह्लाद की असलियत समझना कठिन नहीं है.
चौधरी चरण सिंह की बात करें, तो उनके पोते जयंत भी यही कह रहे हैं कि उनके बाबा को भारत रत्न की घोषणा ने उनका दिल जीत लिया है और वे समझ नहीं पा रहे कि अब किस मुंह से भाजपा से गठबंधन से इनकार करें. लेकिन सच पूछिए, तो उनकी इससे कहीं ज्यादा बड़ी मुश्किल यह है कि वे यह भी याद नहीं कर पा रहे कि चौधरी चरण सिंह ने 1977 में विपक्षी एकता की बिना पर उन दिनों तक केंद्र से कांग्रेस की असंभव मानी जाने वाली बेदखली को संभव कर दिखाया और जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार में उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री बने तो उस सरकार ने न सिर्फ भारत रत्न बल्कि सारे पद्म पुरस्कारों/सम्मानों को ‘अवांछनीय’ करार देकर बंद कर दिया था. सरकार का कहना था कि किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को इस तरह के तमगे बांटती फिरती रहना शोभा नहीं देता.
मोरारजी सरकार के इस दृष्टिकोण से चौधरी किस हद तक सहमत थे, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि बाद में उनके और मोरारजी के बीच मतभेद गहरा गए और उन्होंने उन पर नाना आरोप लगाते हुए उनकी सरकार गिरा दी, साथ ही कांग्रेस से समर्थन लेकर खुद प्रधानमंत्री बन गए तो भी उन पर यह आरोप नहीं लगाया कि उन्होंने भारत रत्न सम्मान बंद करने में मनमानी बरती और उनसे सलाह मशवरा नहीं किया.
इसलिए ये सम्मान और पुरस्कार दोबारा तभी शुरू हो पाए, जब लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में जनता पार्टी को हराकर इंदिरा गांधी और कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आईं.
निस्संदेह, यहां कहा जा सकता है कि इन पुरस्कारों व सम्मानों के बारे में मोरारजी सरकार की राय कांग्रेस की सरकारों द्वारा अनुचित या अनैतिक रूप से अपनों को उपकृत व अलंकृत करने की प्रतिक्रिया थी. लेकिन क्या इसके साथ यह भी कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इनके ‘विभूषितों’ के चयन में ऐसे मानदंड अपनाए हैं, जिनसे इनके बारे में राय पहले से बेहतर हो सके?
नहीं, उसने इनके चुनावी दुरुपयोग के रास्ते विभूषितों के अनुयायियों, समर्थकों व परिजनों को जिस तरह ‘लाभार्थी’ बना डाला है, उससे विभूषितों की इन्हें पाने की पात्रता का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है और इनकी प्रतिष्ठा अपने न्यूनतम स्तर पर चली गई है.
ऐसे में जयंत के गदगद होने का कारण अगर यह है कि चौधरी चरण सिंह के पौत्र होने के बावजूद वे भारत रत्न या पद्म पुरस्कारों के बारे में उनके इस दृष्टिकोण से नावाकिफ हैं या उसे भूल गए हैं तो उन्हें इस आधार पर भी कोई रियायत नहीं दी जा सकती कि 1977 में दिवंगत चौधरी की सहभागिता वाली सरकार ने उक्त दृष्टिकोण अपनाया, तो वे पैदा ही नहीं हुए थे. जयंत का जन्म तो 27 दिसंबर, 1978 को अमेरिका के टेक्सास स्थित डलास में हुआ और उसके बाद अपनी राजनीतिक सक्रियता से पहले वे अरसे तक विदेश में ही रहे.
जहां भी और जैसे भी रहे हों और जो कुछ भी करते रहे हों, अगर आज वे इस तथ्य के बावजूद कि वंश व विरासत की राजनीति को आम तौर पर अच्छा नहीं माना जाता, अपने बाबा और पिता दोनों की विरासत की राजनीति कर रहे हैं, तो उन्हें उस विरासत से ठीक से नहीं तो मोटे तौर पर तो परिचित होना ही चाहिए. वे परिचित नहीं हैं, इसीलिए जब वे कहते हैं कि सरकार ने उनके बाबा को भारत रत्न देकर उनका दिल जीत लिया तो कोई उनका मजाक उड़ाते हुए इसे ‘दल जीत लिया’ या ‘डील जीत ली’ बताता है और कोई यह कि उन्होंने चौधरी चरण सिंह की विरासत को डुबो दिया है.
काश, जयंत समझते कि इस सिलसिले में भावी इतिहास जहां यह दर्ज करेगा कि अपनी वापसी की चिंता में डूबी मोदी सरकार ने चुनावी वर्ष में उनके बाबा को सदाशयता से नहीं, एक सौदेबाजी के तहत भारत रत्न से नवाजा था तो यह भी दर्ज करेगा कि उनके पोते व परिजनों ने उनके विचारों की कद्र न करके सहर्ष इस सौदेबाजी का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया था.
क्या यह बहुत कुछ वैसा ही कलंक नहीं होगा जैसा मोरारजी देसाई की सरकार गिराकर, जिस कांग्रेस के खिलाफ चुनकर गए थे, उसी के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने और संसद का मुंह न देख पाने को लेकर चौधरी चरण सिंह पर लगा आ रहा है?
अगर हां तो क्या यह इस सम्मान की उस ‘पवित्रता’ से नए खेल जैसा नहीं होगा, जिसे बनाए रखने के लिए व्यवस्था की गई है कि इससे विभूषित कोई भी व्यक्ति इसे अपने नाम से पहले या उसके अंत में नहीं जोड़ सकेगा. वह अपने बायोडाटा, लेटर हेड या विजिटिंग कार्ड पर इसे सिर्फ इस रूप में दर्शा सकेगा कि राष्ट्रपति ने उसे भारत रत्न से विभूषित कर रखा है या वह भारत रत्न का प्राप्तकर्ता है. वैसे यह भी एक खेल ही है कि किसी एक साल में अधिकतम तीन शख्सियतों को भारत रत्न देने की व्यवस्था का उल्लंघन कर मोदी सरकार ने इस चुनाव वर्ष में पांच-पांच भारत रत्न बना डाले हैं.
ऐसे में सच पूछिए तो जयंत के समक्ष बड़ा सवाल यह नहीं है कि वे किस मुंह से भाजपा से गठबंधन से इनकार करें, वह दरअसल यह है कि चौधरी चरण सिंह सपने में मिल जाएं तो कौन-सा मुंह लेकर उनके सामने जाएं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)