राजस्थान का सुरेंद्र पाल सिंह टीटी प्रकरण 76 साल पहले संविधान सभा में उठे सवाल याद दिलाता है

राजस्थान विधानसभा की श्रीकरणपुर सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने अपने उम्मीदवार को जीत से पहले मंत्री बना दिया था. बाद में उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी ने हरा दिया. 1948 में संविधान सभा में सवाल उठा था कि क्या विधायकों, सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद फिर निर्वाचन प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए.

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(फोटो साभार: पीआईबी/पिक्साबे)

राजस्थान विधानसभा की श्रीकरणपुर सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने अपने उम्मीदवार को जीत से पहले मंत्री बना दिया था. बाद में उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी ने हरा दिया. 1948 में संविधान सभा में सवाल उठा था कि क्या विधायकों, सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद फिर निर्वाचन प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए.

(फोटो साभार: पीआईबी/पिक्साबे)

राजस्थान की श्रीकरणपुर सीट से हारे भाजपा के मंत्री सुरेंद्र पाल सिंह टीटी प्रकरण ने छिहत्तर साल पहले भारतीय संविधान सभा में उठे कुछ अहम सवालों की यादें ताज़ा कर दी हैं.

बात है 30 दिसंबर, 1948 की. भारत की संविधान सभा में संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 60, 61 तथा 62 पर बहस चल रही थी और मूलत: गुजराती; लेकिन संविधान सभा में बिहार से आने वाले सदस्य प्रोफेसर केटी शाह ने कई ऐसे सवाल उठा दिए कि डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को उनके तर्कों को काटने के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ीं.

प्राे. शाह का सवाल था कि क्या विधायकों और सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल करते ही फिर से मतदाताओं के बीच जाकर नई निर्वाचन प्रक्रिया के माध्यम से विश्वास मत हासिल नहीं करना चाहिए?

उनका तर्क था कि हो सकता है, जिस सांसद या विधायक को सत्तारूढ़ दल के प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपनी सरकार में मंत्री बनाने के लिए उपयुक्त पाएं, मतदाता की कसौटियों पर वह इस पद के काबिल न हो.

प्रो. शाह ने कहा, मंत्री नियुक्त होने के बाद लोकसभा या विधानसभा के निर्वाचित सदस्य को कम से कम संबंधित सदन के भीतर तो विश्वास-मत हासिल करना ही चाहिए.

इसका अर्थ यह है कि सरकार बनने के बाद जैसे ही सदन में विश्वास मत हासिल करने की औपचारिकता पूरी की जाती है, ठीक वैसे ही हर मंत्री को भी उस सदन से विश्वास मत हासिल करना चाहिए.

प्रो. शाह ने एक संशोधन रखा, ‘मंत्रिपरिषद में प्रत्येक परिवर्तन होने पर तथा विशेषतया प्रधान-मंत्रि-पदधारी के बदलने पर प्रधानमंत्री (विकल्पत: राष्ट्रपति) यथास्थिति नए मंत्री को संसद की लोकसभा में प्रस्तुत करेंगे और उस निकाय से उस नियुक्त मंत्री के प्रति विश्वास का प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए कहेंगे. किसी विशिष्ट मंत्री के संबंध में विरोधी मत प्रकट होने की स्थिति में वह मंत्री उसी समय से पदच्युत हो जाएगा और कोई नया मंत्री नियुक्त किया जाएगा.’

यह बहस बहुत लंबी चली और इसमें एचवी कामत, तजम्मुल हुसैन, महावीर त्यागी, राजबहादुर, काज़ी सैयद करीमुद्दीन, के. संतानम्, लक्ष्मीनारायण साहू, मोहम्मद ताहिर जैसे कितने ही विद्वानों ने हिस्सा लिया और भारत के संविधान को बेहतरीन बनाने तथा मंत्रियों की नियुक्तियों को लेकर कई नए नैतिक मापदंड लागू करने पर ज़ोर दिया, ताकि देश की हर सरकार में मंत्रियों की नैतिक आभा दीप्तिमान रहे.

प्रो. केटी शाह के सवालों पर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा, ‘यह सच है कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल के प्रारंभिक इतिहास में प्रत्येक व्यक्ति के लिए चाहे वह वह संसद का सदस्य ही हो, यदि वह मंत्री नियुक्त किया जाता था तो यह आवश्यक था कि वह संसद से अपना त्यागपत्र दे दे और फिर से चुनाव लड़े; क्योंकि यह समझा जाता था कि मंत्रिपद पर नियुक्त हो जाने के पश्चात वह व्यक्ति बादशाह के प्रभाव के अधीन हो सकता है और ऐसे काम कर सकता है, जो लोकहित के पक्ष में नहीं हों.’

डॉ. आंबेडकर ने प्रो. शाह के संशोधन को बिल्कुल अनावश्यक बताया और कहा कि ये बहुत अव्यावहारिक और अनावश्यक हैं.

अलबत्ता, डॉ. आंबेडकर ने यह अवश्य कहा कि यदि प्रधानमंत्री (या मुख्यमंत्री) अपनी सरकार में किसी ऐसे मंत्री को नियुक्त करता है, जिसे विधानमंडल काबिल नहीं समझता हो तो उसके ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव रखकर और पारित कर उसे हटाया भी जा सकता है. यह एक मंत्री को लेकर भी हो सकता है और पूर्ण मंत्रिमंडल को लेकर भी.

मंत्रियों के प्रति मतदाताओं के अविश्वास को लेकर बहुत चिंताएं जताई गईं तो अंतत: डॉ. आंबेडकर ने कहा, हम प्रधानमंत्री (या मुख्यमंत्री), विधानमंडल और जनता पर विश्वास रखें कि वह जनता जो अधिकतर मंत्रियों के तथा मंत्रिमंडल के कार्यों की देखभाल रखती है, वह यह देखे कि इस प्रकार का अशोभनीय कार्य दोनों में से कोई भी नहीं कर सके. मैं समझता हूं कि यह एक ऐसा काम है, जिसे सम्मानपूर्वक प्रधानमंत्री (या मुख्यमंत्री) तथा विधानमंडल की सद्भावना पर छोड़ा जा सकता है और सामान्य जनता उनकी देखरेख करेगी ही.

लेकिन इसी बात को पूरा करते हुए जब आंबेडकर कह रहे थे, ‘इसलिए मैं कहता हूं कि ये संशोधन अनावश्यक है’ तो संभवत: वे यह कल्पना भी नहीं कर रहे थे कि कभी सांसद बृजभूषण शरण सिंह जैसे विवादित नेता भी सामने आएंगे और उनकी तरफ आंख मूंद ली जाएगी. अलबत्ता, जनता टीटी के मामले में सरकार के फ़ैसले को दुरुस्त कर सकती है.

और यह सोचना वाक़ई दिलचस्प होगा कि सरकार में बनाए गए मंत्रियों (भले वे केंद्र सरकार के हों या राज्य सरकारों के) के पुन: निर्वाचन के माध्यम से जनता से नया जनादेश लिया जाए, जैसी कि प्रो. केटी शाह जैसे संविधानविदों की सलाह थी कि मंत्री बना दिए जाने के बावजूद अंतत: जनता ही तय करे कि क्या ये वाक़ई मंत्री बनाए जाने के क़ाबिल हैं या नहीं तो जनता शायद और भी चौंकाने वाले फ़ैसले दे.

कौन थे केटी शाह?

केटी शाह अर्थशास्त्र के ज्ञाता तो थे ही, वे प्रख्यात विधिवेत्ता थे और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के छात्र रहे थे. वे इतने अधिक प्रतिभाशाली माने गए कि उन्हें ‘ग्रेज़ इन’ की सदस्यता मिली हुई थी. राष्ट्रप्रति पद के लिए हुए चुनाव में शाह ने ही राजेंद्र प्रसाद को चुनौती दी थी.

शाह ने संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को बरकरार रखने के लिए संविधान सभा में ही काफी बहस की थी. भारतीय संविधान में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया. शाह ने संविधान के अनुच्छेद 1 में धर्मनिरपेक्ष, संघीय और समाजवादी शब्द जोड़ने के लिए दो बार संशोधन प्रस्तुत किए थे.

क्या था श्रीकरणपुर और टीटी का मामला?

राजस्थान विधानसभा के चुनावों की प्रक्रिया के दौरान एक अद्भुत राजनीतिक घटना हुई. प्रदेश के गंगानगर जिले के श्रीकरणपुर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के उम्मीदवार गुरमीत सिंह कुन्नर का निधन हो गया, तो मतदान टल गया.

इस बीच 200 में से 199 सीटों के चुनाव हुए, जिनमें भाजपा को 115 सीटों पर जीत के साथ बहुमत मिला और कांग्रेस 69 सीटें लेकर सरकार गंवा बैठी.

श्रीकरणपुर सीट पर कांग्रेस ने गुरमीत सिंह कुन्नर के बेटे रुपिंदर पाल सिंह कुन्नर को नए सिरे से उम्मीदवार घोषित किया तो भाजपा उम्मीदवार सुरेंद्र पाल सिंह टीटी की जीत को सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन से पहले ही मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने उन्हें मंत्री बना दिया.

लेकिन मंत्री बनाने के बावजूद इलाके के लोगों ने उन्हें पराजित कर दिया और सत्तारूढ़ भाजपा की ऐतिहासिक पैंतरेबाज़ी नहीं चल सकी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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