चौधरी चरण सिंह: भारत रत्न और ख़िज़ां में बहार तलाशती सियासी अय्यारियों की जुगलबंदी

चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न का अलंकरण क़ाबिले-तारीफ़ है; लेकिन अगर उनके विचारों की लय पर सरकार अपने कदम उठाती तो बेहतर होता. सरकार से ज़्यादा यह दारोमदार रालोद के युवा नेता पर है कि वह अपने पुरखे और भारतीय सियासत के एक रोशनख़याल नेता के आदर्शों को लेकर कितना गंभीर है.

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चौधरी चरण सिंह. (फोटो: द वायर)

चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न क़ाबिले-तारीफ़ है; लेकिन अगर उनके विचारों की लय पर सरकार अपने कदम उठाती तो बेहतर होता. सरकार से ज़्यादा यह दारोमदार रालोद के युवा नेता पर है कि वह अपने पुरखे और भारतीय सियासत के एक रोशनख़याल नेता के आदर्शों को लेकर कितना गंभीर है.

चौधरी चरण सिंह. (फोटो: द वायर)

भारतीय राजनीतिक इतिहास में ऐसे बहुत से सियासी नूर हुए हैं, जिनसे मोहब्बत तो हर कोई जताता है; लेकिन उनके विचारों को जीवन में उतारने, मानने या लागू करने का मौक़ा आए तो वे उससे बड़ी सफ़ाई से बच निकलते हैं.

वह शायद फ़रहत एहसास का ही शेर है, जो इस संदर्भ में बहुत सटीक है: तुम्हें उससे मोहब्बत है तो हिम्मत क्यों नहीं करते, किसी दिन उसके दर पे रक़्स-ए-वहशत क्यों नहीं करते?

यह लोकसभा चुनावों से पहले का सियासी समय है और किसी हस्ती काे अपना तसव्वुर टूटने का ‘ज़र्रा-सा’ भी एहसास हो तो उसे ऐसे लोगों से भी बहुत सरोकार होने लगता है, जिनके विरोध में भले कितने ही आईने चूर किए हों और कितने ही चराग़ बुझाए हों.

किसान सड़कों पर दस्तक दे रहे हैं तो किसानों के हितों के लिए कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन भी याद आ जाते हैं और चौधरी चरण सिंह जैसी शख़्सियतों को निगाहे-नाज़ भी पर्दे उठा-उठाकर देखने लगती है. कभी जिन्हें सामने आने पर भी मुंह फेर लिया हो, वे आवाज़ पर आवाज़ देकर बुला रहे हैं तो कुछ वज़ह तो होगी.

भारतीय सियासत में चुनाव एक नए बसंत की बयार बनकर आते हैं. यह सियासत में ऐसे सुरूर लेकर आते हैं, जिसमें बुरे और अवांछित तक समझ लिए गए साये भी रश्के-हूर नज़र आने लगते हैं.

सियासी सुरूर और ग़ुरूर से लबरेज़ भाजपा नेता घोषणा कर चुके हैं कि वे लोकसभा में 370 सीटें तो अकेले और गठबंधन के तौर पर 400 जीतेंगे.

लेकिन जब पिछले ही चुनाव में देश के अधिकतर उत्तर भारतीय राज्यों में पूरी की पूरी सीटें जीत लेने का एहसास होता है तो सीटें घटने का अंदेशा भी होने लगता है, जो दिल डुबाने वाली शामे-फ़िराक़ लाने के लिए काफ़ी है.

यह चुनाैती साफ़ बताती है कि इस सियासी दल के दिल की तरफ़ दर्द की यलग़ार बहुत है और यही वज़ह है, जो चौधरी चरण सिंह की विरासत को अब भाजपा अपनी तरफ समेटने की तलबगार है.

सत्तारूढ़ दलों के ताक़तवर नेता जानते हैं कि सियासत बेवफ़ाओं का शहर है. इसमें फिर-फिर कर उसी बेवफ़ा सितमगर का ज़िक्र लबों पर आए तो हैरानी नहीं.

ग़ालिब तो दिल्ली की रूह पर कब का उतारकर गए थे कि फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं, फिर वही ज़िंदगी हमारी है. और अपने दिल को बस में न पाने वाले सियासतदानों ने ग़ालिब को झूठा साबित नहीं होने दिया और वक़्तनवक़्त साबित कर दिखाया कि उनकी ज़िंदगी और मौत तो उसी बेवफ़ा के हाथ है!

सत्ता से दूरियां अब कहां बर्दाश्त हो पाती हैं और हर घड़ी एक दश्त का एहसास कराती हैं. इसीलिए चुनावों की रुत कमज़ाेरों पर कुछ ज़्यादा ही क़हर बरपाती है और सियासी क्षत्रपों की आवारगियों की एक लहर-सी दौड़ने लगती है.

राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख जयंत चौधरी के इंडिया गठबंधन से एनडीए गठबंधन की ओर बढ़ते कदमों को लेकर सियासी ही नहीं, कुछ वैचारिक हलकों में भी चिंताएं दिखाई दे रही हैं कि भले यह दीवार मिट्‌टी की हो; लेकिन कहीं टूट न जाए.

लेकिन वे शायद इस सच को नहीं जानते कि राष्ट्रीय लोकदल के युवा नेता के ख़ून की रफ़्तार में बेचैनी बहुत है और यह युवा नेता इंडिया गठबंधन के शक्ति केंद्र की सांसें उखड़ जाने की आशंका से परेशान हैं.

संसद में जाने की उनकी बेचैन हसरतों ने उन्हें ही नहीं, उन जैसे जाने कितने ही दलों और नेताओं को गिरफ़्तार किया हुआ है.

हर नेता की सियासी आंखों में लुटी महफ़िलों की धूल उड़ रही है और हर कोई सत्ता में हिस्सेदारी की चाहत में अपने अतीत के ग़ुरूर को ख़ाक में मिलाने का मज़ा लेने के लिए तैयार है.

जयंत चौधरी का भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर जाना अगर ख़ता है तो यह ख़ता पहले भी हो चुकी है. हम इतिहास के पन्नों पर निगाहें डालें तो ऐसा बहुत कुछ है, जो अब भुला दिया गया है.

मोहब्बत में नयन मिलाना और धोखा खाना वाक़ई में धोखा खाना ही होता है; लेकिन कोई बार-बार नयन से नयन मिलाए, धोखा खाए और फिर कहे कि हां हम फिर से एक नया धोखा खाने के लिए नयन मिला रहे हैं तो यह नीतीश कुमार और एनडीए का गठबंधन भी हो सकता है. ऐसी कुछ और नज़ीर भी मिल ही जाएंगी.

चौधरी अजीत सिंह पहले वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे और बाद में मनमोहन सिंह सरकार में.

चौधरी चरण सिंह की बेटी और अजीत सिंह की बहन ज्ञानवती देवी 1996 में अलीगढ़ के ख़ैर से भाजपा की विधायक रह चुकी हैं. 1991 में इगलास और 1993 में चांदपुर से जनता दल की विधायक रह चुकीं ज्ञानवती को भाजपा के साथ जाने की जो जुस्तजू थी, वह हक़ीक़त में नहीं मिली.

भाजपा ने तब भी ज्ञानवती को अपने साथ सिर्फ़ इसलिए लिया था ताकि उत्तर प्रदेश की जाट बेल्ट में चौधरी चरण सिंह के सियासी आगोश से अपनी मुश्किलों के मोम को पिघलाकर क़ामयाबियां गढ़ सकें.

भाजपा की यह तदबीर काफी क़ामयाब भी रही और आज भी वह सियासी अक़्ल का पुरअसर वार इस तरह कर रही है कि उल्टी चाल में भी मज़ा दिखाई दे रहा है.

दरअसल, पूरा खेल पश्चिमी उप्र की 27 सीटों का तो है ही, किसान आंदोलन से मतदाताओं की नाराज़गी भी बड़ी बात है.

जयंत चौधरी भाजपा के साथ होते हैं तो उम्मीद है कि कुछ मुस्लिम मतदाता भी भुलावे में आ जाएं और इसका फायदा परोक्ष रूप से भाजपा को मिल जाए. ख़ासकर भाजपा की हार वाली सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, अमरोहा, मुरादाबाद, रामपुर, संभल और मैनपुरी जैसी सीटों पर.

इतना ही नहीं, भाजपा के वर्चस्व वाली सीटें भी इससे मज़बूत हो सकती हैं, जो कि होंगी ही. जैसे मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, बुलंदशहर, अलीगढ़, हाथरस, मथुरा, आगरा, फतेहपुर सीकरी, बरेली, पीलीभीत, शाहजहांपुर, कैराना, मेरठ, बागपत, गौतमबुद्धनगर, फिरोजाबाद, एटा, बदायूं और आंवला.

रालोद को उम्मीद हो सकती है कि जिस लोकसभा में पिछले दस साल से उसका कोई सदस्य नहीं पहुंचा, वहां भाजपा की मदद से इस बार वह न केवल चार सदस्यों को पहुंचा सकता है; बल्कि राज्यसभा और उत्तर प्रदेश सरकार में भी कुछ हिस्सेदारी मिल सकती है.

हम जब इतिहास के पन्नों पर निग़ाहें दौड़ाते हैं तो वहां साफ़ दर्ज़ है कि चौधरी चरण सिंह एक ज़मीनी नेता थे और वे कांग्रेस के भीतर रहकर भी पंडित जवाहरलाल नेहरू तक से क़रार और तक़रार कर लिया करते थे. वे ऐसे नेता थे, जो बीच दरिया के पूरा दरिया ही बदल सकते थे; लेकिन आजकल के नए सियासतदानों की हालत ये है कि उन्हें अपनी कश्ती को बदलना भी नहीं आता.

सूखे पत्ते की तरह अंधड़ में बेहुनरी से उड़ जाना अलग बात है और अपनी कम ताक़त के बावजूद पेचीदा राहाें के बीच मा’नी बदलना एक अच्छे सियासतदान होने की नज़ीर है. अब न तो चौधरी चरण सिंह जैसे नेता रहे हैं और न ही उनकी तामीर की हुई दुनिया बची है. वे जो दुनिया बनाने चले थे, वह गांधीवाद के मज़बूत नैतिक पायों पर खड़ी थी और अपने आपको सत्ता में लाने से अधिक आम किसानों, ग्रामीणों और मज़दूरों-मज़बूरों को ताक़त देने के लिए लगी रहती थी.

वे न केवल धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को जी रहे थे, वे समाजवाद, गांधीवाद और लोकशक्ति की नेमतों को भी ज़मीन पर उतारने में ईमानदारी से लगे रहते थे.

चौधरी चरण सिंह उस नेहरूवाद के ख़िलाफ़ भी सिर ताने रहे, जो परंपरागत कृषि और गांव-किसान की उपेक्षा करके औद्योगिक घरानों के साथ खड़े हो रहा था और वे उस सांप्रदायिक नज़रिये के ख़िलाफ़ तो और भी ताक़त से खड़े हुए, जो राजनीति में कामयाबी के लिए धर्म और जाति को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करता था.

जाति की बुराई को ख़त्म करने के लिए चौधरी चरण सिंह ने जो सूत्र दिए थे, वे नेहरू-युग में लागू हो जाते तो आज कदाचित गली-गली में फैली जातिवादी और धार्मिक रुझान वाली सियासत के मंज़र नज़र नहीं आते.

कभी चौधरी चरण सिंह ने लिखा था, हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता सबसे बड़ी आवश्यकता है और हम ऐसे किसी को भी राजनीति में कार्य करने की अनुमति नहीं दे सकते, जो सांप्रदायिक नजरिया रखता है. इसके लिए उन्होंने मुस्लिम लीग से लेकर सभी तरह के सांप्रदायिक दलों के बारे में बहुत खुलकर लिखा और पंडित जवाहरलाल नेहरू से इस बात के लिए नाराज़गी जताई कि वे इस तरह के दलों के प्रति नरम रुख रखते हैं. यह सब उनकी पुस्तक ‘भारत की भयावह आर्थिक स्थिति: कारण और निदान’ में बख़ूबी दर्ज़ है.

चौधरी चरण सिंह संविधान सभा में 3 अप्रैल, 1948 को पारित एक संकल्प को उद्धृत करते हुए इस पुस्तक में लिखते हैं कि धर्म और राजनीति को अलग रखना ही देशहित में है.

यह संकल्प इस प्रकार था:

‘चूंकि लोकतंत्र को उचित रूप से चलाने और राष्ट्रीय एकता तथा भाईचारे के विकास के लिए आवश्यक है कि भारतीय जीवन से सांप्रदायिकता को समाप्त कर दिया जाए. अत: इस असेंबली का मत है कि किसी भी सांप्रदायिक संगठन को अपने संविधान द्वारा अथवा अपने अधिकारियों में से किसी अधिकारी और अपने विभागों में से किसी विभाग में विहित विवेकपूर्ण शक्ति के प्रयोग द्वारा धार्मिक कौम और जाति या इनमें से किसी आधार पर व्यक्तियों को सदस्य बना लेता है अथवा सहायता से अलग कर देता है तो उसे समुदाय की प्रामाणिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और शैक्षिक आवश्यकताओं के लिए उन कार्यकलापों को छोड़कर किन्हीं अन्य कार्यकलापों में लगने की अनुमति नहीं देनी चाहिए. और विधायकी तथा प्रशासकीय जैसी सभी कार्रवाइयां की जा सकती हैं, जो इन कार्यकलापों को रोकने के लिए आवश्यक हों.’

भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी ताक़त उसका लोकतंत्र रहा है. इसी जम्हूरियत से भारतीय सियासत का गुलशन महकता रहा है. इसे कई बार दहके हुए सहरा में बदलने की कोशिशें हुईं; लेकिन चौधरी चरण सिंह जैसे ज़मीनी नेताओं के साहसिक फ़ैसलों से ही यह गुलशन महकता रहा है. इसमें उनका जितना योगदान रहा है, वैसा योगदान नेहरूवादी वाग्विलास करने वालों का आज होता तो हालात ऐसे नहीं होते, जो आज दिखाई दे रहे हैं.

चौधरी चरण सिंह और उनके समकालीन नेताओं ने भीगे हुए तिनकों को शोलों का रूप देकर ही जम्हूरियत के इस गुलशन को बंजर बनने से रोक दिया था.

लेकिन राजनीति में आए नैतिक क्षरण और सत्तावादी रुझानों के कारण अब न ऊंचे इरादे के लोग ही निगाह में आते हैं और न ही ऊंची राहों पर काेई चलता हुआ ही दिखता है.

अभी कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न दिया गया है. इन दोनों नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन में कांग्रेस के साथ लंबी और अथक लड़ाइयां लड़ी थीं; लेकिन कांग्रेस के बाद अगर उस राजनीतिक संघर्ष के दौर में इन नेताओं की राहों में सबसे अधिक मुश्किलें अगर किसी ने खड़ी की थीं तो वे भाजपा या उसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ पृष्ठभूमि के नेता ही थे.

आज भाजपा सरकार चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न दे रही है और उनके पोते जयंत चौधरी इससे प्रफुल्लित हैं; लेकिन इतिहास के कुछ तथ्य ऐसे हैं कि वे सामने आएं तो उन्हें बेचैन बहुत करेंगे.

गैरकांग्रेसवाद की राजनीति करने वाले पुराने नेताओं का मानना है कि आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी आम चुनाव जीती तो चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार थे; लेकिन एक ख़ास खेमे के नेताओं ने उन्हें इस पद पर आसीन होने से रोक दिया. इनमें पूंजीवादी घरानों के समर्थक नेता तो थे ही, भारतीय जनसंघ पृष्ठभूमि के नेता भी अग्रणी थे.

जाने-माने लेखक विनय सीतापति ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘जुगलबंदी: बीजेपी बिफोर मोदी’ में बताया भी है कि भाजपा के प्रमुख नेताओं को कौन-सा औद्योगिक घराना सबसे अधिक पैसा देता था.

पुराने नेता बताते रहे हैं कि जनता पार्टी की सरकार बनने लगी तो चौधरी चरण सिंह की काट के लिए औद्योगिक घरानों के समर्थकों ने एक कूटनीति के तौर पर जगजीवन राम का नाम आगे कर दिया.

वे जानते थे कि जगजीवन राम के मामले में जयप्रकाश नारायण का वीटो हर हाल में आएगा. और जब जगजीवन राम का नाम आया तो जेपी ने यह कहकर आपत्ति जता दी कि इसी नेता ने तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कैबिनेट में रहते हुए आपातकाल लगाने का प्रस्ताव रखा था.

आख़िर ऐसा करने वाले को जनता पार्टी की सरकार का प्रधानमंत्री कैसे बनाया जा सकता है? और इसके बाद ही मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने ही राहें आसान हुईं.

इससे भारतीय जनसंघ खेमे के नेताओं सहित वे सभी प्रसन्न थे, जो नहीं चाहते थे कि किसान पृष्ठभूमि का कोई नेता देश की बागडोर अपने हाथ में ले.

यह वह दौर था, जब किसानों की राजनीति करने वाले चौधरी चरण सिंह जैसे नेता देशभर के किसान वर्ग में जज़्बों की एक आग सी दहकाए हुए थे और इससे बेचैन औद्योगिक घराने घबराए हुए थे.

मोरारजी भाई देसाई के प्रधानमंत्री बनते ही इन घरानों की आंखों में एक चांद-सा चमक गया.

पक्के गांधीवादी और कट्‌टर आर्यसमाजी चौधरी चरण सिंह न तो अमेरिकापरस्त थे, न भारतीय पूंजीपतियों के पिट्‌ठू और न ही पुरातनपंथी और मूर्तिपूजा सहित नाना अंधविश्वासों पर टिके हिंदुत्ववादी शक्ति समूहों के.

चौधरी चरण सिंह सुधारवादी और आदर्शवादी संस्कारों में पले-बढ़े थे. उन्हें खरीदने की कोई सोच भी नहीं सकता था. चौधरी चरण सिंह सीधे-सच्चे ग्रामीण संस्कृति की उपज थे. उनके लिए मंदिर नहीं, स्कूल-अस्पताल और वैज्ञानिक चेतना के केंद्र ज़रूरी थे. उनके लिए ज़रूरी थे किसानों की उपज के दाम और आम मज़दूरों-शिल्पियों-कारीगरों के लिए श्रेष्ठतम पारिश्रमिक.

‘भारत की भयावह आर्थिक स्थिति: कारण और निदान’ के प्रारंभिक पन्नों पर ही चौधरी चरण सिंह ने भारतीय मज़दूरों को मिलने वाली मज़दूरी पर जो तथ्य दिए हैं, वे जाने कितनी ख़ुशबू छलकाते हैं.

चरण सिंह लिखते हैं, 1895 के ब्रिटिशकाल में मज़दूरी की जो दरें प्रचलित थीं, वे जहांगीरकालीन (नवंबर 1605 से अक्टूबर 1627) दरों का एक चौथाई मूल्य ही था.

चौधरी चरण सिंह ने पारंपरिक उद्योगों को मज़बूत करने की वक़ालत करते हुए कहा था कि हमारे देश की आर्थिक स्थिति इनकी बदहाली के कारण ही ख़राब हुई है. यह पतन वास्तविक मज़दूरी की दरों में गिरावट के कारण हुआ.

चौधरी चरण सिंह ने उत्तर-पश्चिमी प्रांत में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान जिला बरेली में विभिन्न वर्गों के कामगारों ख़ासकर कृषि मज़दूरों, चरवाहों, दर्जियों, मिस्त्रियों आदि की मज़दूरी को लेकर लिखा कि इनको वही पैसा मिल रहा है, जो 1826 में मिल रहा था, जबकि इन दोनों काल के मध्यांतर में कीमतों में काफी वृद्धि हुई है.

चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न का अलंकरण एक क़ाबिले-तारीफ़ बात है; लेकिन अगर उनके विचारों की लय पर सरकार अपने कदम उठाती तो उसके इस कदम से मुल्क़ की फ़ज़ाओं में एक नई महक घुल जाती.

लेकिन सरकार से ज़्यादा यह दारोमदार रालोद के युवा नेता पर है कि वह अपने पुरखे और भारतीय सियासत के एक रौशन-ख़याल नेता के आदर्शों को लेकर कितना गंभीर है.

यह तो आज की सियासत के रंगों से साफ़ है कि नए गठबंधन के बाद भाजपा तो तात्कालिक और दीर्घकालिक रूप से वाक़ई बड़े फ़ायदे में रह सकती है और तात्कालिक तौर पर थोड़ा फ़ायदा जयंत चौधरी को भी हो सकता है; लेकिन दीर्घकालिक तौर पर देखा जाए तो मुस्लिम मतदाताओं के खिसकने और भाजपा के किसानों के प्रति मौजूदा रुख से होने वाली नाराज़गी और बेख़याली में यों ही इरादा कर लेने के चलते जयंत चौधरी ख़ुद को कहीं अब से भी आधा ही न कर बैठें.

इन हालात में भारतीय राजनीति के इतिहास के तथ्यों से उठती यह इबारत सबको याद रहनी चाहिए कि तात्कालिक चालाकियां एहसास तो मौसमे बहार का करवाती हैं; लेकिन आख़िरकार वे ख़िज़ाँ में ले जाकर दम लेती हैं. देखना यह है कि सियासी यारी कम और अय्यारी अधिक लगने वाली इस जुगलबंदी से आने वाले दिनों में भारतीय राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य पर कैसी-कैसी लयकारियां गुंजायमान होती हैं.

(लेखक एक पत्रकार हैं.)