जब भी अपने भक्तों के अहंकार की परीक्षा लेनी होती है, रामलला ऐसी नरलीला करते ही करते हैं. कभी भक्त समझ जाते हैं और कभी नहीं समझ पाते. नहीं समझ पाते तो अपना अहंकार बढ़ाते जाते हैं. फिर एक दिन अचानक रामलला उसे तोड़ देते हैं तो वे पछताते हैं. अहंकार दरअसल, रामलला का आहार है.
अधबने मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा अभी भी अयोध्यावासियों की चेतना पर हावी है. इस कदर कि उनमें जितने मुंह उतनी बातें हैं. इन मुंहों और बातों के और जो भी अर्थ हों, एक यह भी है कि उन्होंने अपनी चेतना नहीं खोई है, अचेत नहीं हुए हैं.
यह और बात है कि सीधे-सीधे सच बयां करने का साहस खो बैठे हैं, इसलिए कभी किसी सपने की ओट लेकर अपनी बात कहते हैं, कभी किसी कल्पना की. वैसे भी सपनों व कल्पनाओं में ज्यादा फर्क नहीं होता. कहते हैं कि दोनों पर किसी का वश या बंदिशें नहीं चलतीं. उनकी उड़ानें कितनी भी बेपर की हो जाएं, उन पर न कोई सत्ताधीश अंकुश लगा पाता है, न धर्माधीश.
ऐसे महानुभाव भी नहीं जो सपने (पढ़िए: सब्जबाग) दिखाने/बेचने के पेशे में हैं और उसकी मजबूरियों के चलते सपनों को ‘मुफ्त का सिनेमा’ नहीं मानते. दिन में, रात में या सुबह दिखने के आधार पर फर्क करके उनका ‘फलाफल’ बताते और खूब ‘फल’ खाते हैं.
एक शाम मैं फैजाबाद के ऐतिहासिक चौक में खड़ा था तो अचानक जितने मुंह, उतनी बातों वाले समुदाय का एक मुंह मुझसे आ टकराया. कहने लगा- भाई साहब, कल रात मेरे सपने में हनुमान जी आए थे.
मैं समझ गया कि सपने की तो वह बस ओट ले रहा है, वास्तव में मेरे सामने कुछ ऐसा उगलना चाहता है, जिसे अंदर-अंदर हजम नहीं कर पा रहा और मैं कोई उत्तर न दूं तो भी बिना उगले टलेगा नहीं. इसलिए बेरुखी से कहा- आए होंगे. मुझे क्या?
वह बोला- आपको इसलिए बता रहा हूं कि आपने उस दिन मुझसे जो सवाल पूछा था, उसका जवाब दे गए.
मुझे याद आया, मैंने उससे पूछा था कि प्राण-प्रतिष्ठा वाले दिन शहर में रामलला की छवियां ज्यादा दिख रही थीं या नरेंद्र मोदी की? और एक छवि में रामलला किसी बच्चे की तरह मोदी की उंगली थामे घूमते क्यों दिख रहे थे?
उस दिन तो उसने चुप्पी साध ली थी, फिर आज हनुमान जी के बहाने अपना जवाब बताने के फेर में क्यों है? जानने के लिए पूछा- क्या जवाब दिया उन्होंने?
उसने बताया- यही कि रामलला नरलीला कर रहे थे. जब भी अपने भक्तों के अहंकार की परीक्षा लेनी होती है, वे ऐसी नरलीला करते ही करते हैं. कभी भक्त समझ जाते हैं और कभी नहीं समझ पाते. नहीं समझ पाते तो अपना अहंकार बढ़ाते जाते हैं. फिर एक दिन अचानक रामलला उसे तोड़ देते हैं तो वे पछताते हैं. अहंकार दरअसल, रामलला का आहार है.
मैंने उसे कुरेदा- लेकिन इस लीला की बाबत हनुमान जी ने कैसे जाना? रामलला ने बताया उन्हें?
मुंह चिढ़ गया- झूठ-मूठ ज्ञानी बने फिरते हैं आप. इतना भी नहीं जानते कि हनुमान जी अयोध्या के कोतवाल हैं और उसके चप्पे-चप्पे पर नजर रखना उनका कर्तव्य है. ऐसे में वे अपने प्रभु को उस वक्त अकेला क्योंकर छोड़ देते, जब मोदी ने उन्हें उंगली थमा रखी थी! वे हर पल छाया की तरह उनके साथ थे.
मुझे मजा आने लगा था. इसलिए नई बात पूछी- फिर तो उन्होंने दोनों के बीच हुई बातें भी सुनी होंगी!
हां भाई, आद्योपांत सुनीं. आप जानना चाहते हों तो बताऊं. मैंने हामी भर दी और मुंह बताने लगा.
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जैसे ही मोदी अधबने मंदिर में घुसे, रामलला ने पूछा- अभी तो यह पूरा बना भी नहीं है. ताज्जुब है कि फिर भी तुम इसे बार-बार भव्य कहते हो! कत्लोगारत के देशव्यापी सिलसिले के बाद बन ही रहा था, तो बन जाने देते. प्राण-प्रतिष्ठा की इतनी जल्दी क्या थी? मैं कहीं चला जा रहा था क्या?
एक साथ इतने सवाल! मोदी का चेहरा विवर्ण हो गया. बोले नहीं कुछ, लेकिन मुखमुद्रा से ऐसा जताया, जैसे कहना चाहते हों- आप तो कहीं नहीं जा रहे थे अतंर्यामी! लेकिन लोकप्रियता के जिस शेर पर सवार हूं मैं अभी, न उसका कोई ठिकाना है, न इस देश और इसकी जनता का. क्या पता, कब मेरा सिंहासन छिन जाए और मेरा अरमान, अरमान ही रह जाए!
उन्हें चुप देख रामलला ने खिन्न होते हुए से कहा- लगता है कि तुम मेरी नहीं, अपनी प्रतिष्ठा के लिए बेकरार हो! अपना सिंहासन बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरना चाहते हो! और उसमें मेरी मदद चाहते हो! उससे, जिसने अपने सत्य, धर्म और आदर्श की रक्षा के लिए सिंहासन को लात मार दी थी और..!
मोदी ने बरबस हाथ जोड़ लिए तो रामलला ने उन पर दया करते हुए से पूछा- यहां, जहां तुम मेरा भव्य मंदिर खड़ा करवा रहे हो, कभी मंदिरों की एक लड़ी-सी हुआ करती थी. उन्हें क्यों ढहवा दिया? जैसे मुझे छोटा कर दिया है, मंदिर भी छोटा बना लेते. यह क्या कि मेरा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की जो तोहमत कभी साबित नहीं कर पाए, उसके लिए बाबर को पानी पी-पीकर कोसते हो और अनेक छोटे मंदिर तोड़कर एक बड़ा मंदिर बनाने को अपराध ही नहीं मानते?
मोदी निरुत्तर के निरुत्तर ही रह गए तो रामलला ने नया प्रश्न पूछा- ध्वस्त किए गए मंदिरों के नाम बताओ. सारे नहीं तो जितनों के नाम याद हों.
मोदी हकलाने लगे तो वे व्यंग्यपूर्वक बोले- इसी बिना पर चाहते हो कि इतिहास तुम्हें हजार साल तक याद रखे? जो स्मृति-संहार करते हैं, उन्हें इतिहास संहारकों के तौर पर ही याद करता है- खलनायकों के तौर पर. नायक के तौर पर नहीं. कतई नहीं.
अचानक जैसे मोदी को होश आया. बोले- यह कैसी लीला है प्रभु? मैं सपना देख रहा हूं या…
रामलला ने कहा- नहीं, तुम सपना नहीं देख रहे, मेरे प्रश्नों की बौछारों के सामने खड़े हो. पता है तुम्हें, शंकराचार्य कहते हैं कि इस देश में औरंगजेब के बाद सबसे ज्यादा मंदिर तुम्हीं ने तोड़वाए हैं? आगाह कर रहे हैं वे कि उनकी अवज्ञा करके कुसमय को सही समय करार देकर जो कुछ कर रहे हो, उसका परिणाम शुभ नहीं होने वाला? और तुम्हारे सिपहसालार उन्हें उत्तर दे रहे हैं कि यह मंदिर शैवों, शाक्तों और संन्यासियों का है ही नहीं! उन्हें गोस्वामी तुलसीदास द्वारा मेरी ओर से कही गई यह बात भी याद नहीं कि ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोंहिं न पावा!
‘जानता हूं प्रभु. जानता हूं. गुप्तचरों ने सारे समाचार दे रखे हैं मुझे.’ मोदी ने कहा तो रामलला ने उन्हें करारी झिड़की दी, ‘यह भी बताया है या नहीं कि तुम्हारे विभाजनकारी एजेंडे ने वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी परंपरा को वहां पहुंचा दिया है, जहां मेरा यह मंदिर पूरी वसुधा तो क्या सारे भारत का भी नहीं रह गया है! सारे हिन्दुओं का भी नहीं! बताया है तो क्या समझूं मैं? यही कि सब-कुछ जानते हुए भी तुम आपादमस्तक कीचड़स्नान करते व करवाते जा रहे हो! मंदिर निर्माण तो मंदिर निर्माण, सड़कें चौड़ी करने के नाम पर भी अयोध्या की प्रजा के हजारों घर, दुकानें व पूजास्थल जमींदोज करवा दिए हो!
मोदी की हालत श्रीकृष्ण के सामने ‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च में निवृत्तिः’ कहते दुर्योधन जैसी हो गई. उनका कंठ सूखने लगा.
रामलला बोले- फिर किस मुंह से तुम मुझे लाने का दम भरते हो और आ गया बताते हो! अगर मैं अभी आया तो इस मंदिर के भूमिपूजन के समय किसको साष्टांग दंडवत प्रणाम किया था तुमने? आए थे तो स्वर्गद्वार स्थित काले राम व गोरे राम के मंदिर भी चले जाते. पता चल जाता कि मैं वनवास खत्म करके अयोध्या आया, तो बैकुंठधाम छोड़ कहीं नहीं गया.
मोदी ने फिर भी चुप्पी नहीं तोड़ी. रामलला ने पूछा- तुम कहते हो कि तुम्हारी प्रतिष्ठा से पहले मैं बेघर और बेचारा था तो क्या मेरी हेठी नहीं करते? ऐसा करके तुम उन्हें कौन-सा मुंह दिखाओगे, जो मुझे घट-घटवासी और घर-घर में लेटा मानते हैं?
मोदी को जड़वत देख रामलला ने झिंझोड़ते हुए से नया प्रश्न पूछा- अयोध्या की प्रजा कहां गई? पिताजी की आज्ञा पर मैं वन के लिए निकला तो यह प्रजा दूर तक मेरे पीछे-पीछे चली और बहुत समझाने-बुझाने पर वापस लौटी थी. फिर आज वह यहां क्यों नहीं है?
कैसे कहते मोदी कि वह उनके ट्रैप में है – अपने आसपास के मंदिरों में पूजा-पाठ व भजन-कीर्तन करने अथवा टीवी पर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह देखने के फरमान के पालन को अभिशप्त.
रामलला ने इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं पाया तो एक नई लीला की. अचानक मोदी की उंगली छोड़ी और यह कहते हुए चल दिए कि तुम रुको यहीं, मैं अपने लोगों से मिलकर आता हूं.
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इतना बताकर मुंह चुप हो गया तो मैंने उससे पूछा- यह सारा वार्तालाप प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में उपस्थित या टीवी पर उसे देख रहे महानुभावों को क्यों नहीं दिखा?
इस पर उसने एक बार फिर मेरे अज्ञान पर तरस खाया और बोला- लगे हाथ यह भी पूछ लीजिए कि हनुमान जी मेरे बजाय आपके सपने में क्यों नहीं आये? अरे भाई, जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी. प्रभु की ऐसी लीलाएं वही देख सकता है, जिसे वे दिखाना चाहें.
मैंने खिसियाते हुए कहा- चलो, इस अज्ञानी पर दया करो और आगे का वाकया बताओ.
मुंह ने कहा- फिर कभी बताऊंगा. दरअसल, हनुमान जी के इतना बताते-बताते मेरी आंखें खुल गईं. तभी से प्रार्थना कर रहा हूं कि वे किसी दिन फिर किसी सपने में मुझे दर्शन दें और इसके आगे की बातें बताएं.
मैंने कहा- हनुमान जी को ही बार-बार तकलीफ क्यों देना चाहते हो? मरहूम कैफी आजमी को ही बुला लो. इस दुनिया में थे तो रामलला के बारे में बहुत कुछ लिखते, पढ़ते, गाते और बताते रहते थे वे. लेकिन अब जन्नतनशीं हो चुके हैं, इसलिए सपने में ही आ सकते हैं.
मुंह ने पूछा- वही कैफी आजमी, जिन्होंने 6 दिसंबर, 1992 के बाद ‘राम का दूसरा वनवास’ नाम से एक नज्म लिखी थी?
मैंने ‘हां’ कहा तो वह बरबस गुनगुनाने लगा- पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे, राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे- राजधानी की फिजा आई नहीं रास मुझे, 6 दिसंबर को मिला दूसरा वनवास मुझे.
फिर अचानक रुका और बोला, ‘पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा… हम अपनी उंगलियों को रामलला के वनवास गिनने में ही घिसा जाएंगे या कभी उनकी ओर भी उठा पाएंगे, जो रामलला की जय बोलते हुए हमारे लोकतंत्र का काम तमाम किए दे रहे हैं, खुद खूब मालपुए उड़ा रहे और हमें पांच किलो राशन देकर भरमाए जा रहे हैं.
मुझे लगा कि मेरे देखते-देखते बातें बना रहे सारे के सारे मुंह दो गुने हाथों में बदल गए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है.)