वन संशोधन अधिनियम: सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के फैसले के मुताबिक वनों की परिभाषा कायम रखने कहा

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक अगस्त 2023 में क़ानून बन गया था. 1996 में अदालत के आदेश के अनुसार, कोई भी क्षेत्र जो जंगल के शब्दकोशीय अर्थ को पूरा करता है, उसे जंगल माना जाना चाहिए और 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए, भले ही वह आधिकारिक तौर पर जंगल के रूप में दर्ज न हो.

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उड़ीसा के जंगल. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक अगस्त 2023 में क़ानून बन गया था. 1996 में अदालत के आदेश के अनुसार, कोई भी क्षेत्र जो जंगल के शब्दकोशीय अर्थ को पूरा करता है, उसे जंगल माना जाना चाहिए और 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए, भले ही वह आधिकारिक तौर पर जंगल के रूप में दर्ज न हो.

उड़ीसा के जंगल. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

कोच्चि: 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में 2023 के संशोधन को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने सोमवार (19 फरवरी) को एक अंतरिम आदेश में कहा कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले में निर्धारित वनों की परिभाषा को बरकरार रखना चाहिए, जब तक कि वे सभी दर्ज वनों का विवरण प्रदान नहीं करते हैं.

1996 में अदालत के आदेश (जो गोदावर्मन फैसले के रूप में लोकप्रिय है) के अनुसार, कोई भी क्षेत्र जो जंगल के शब्दकोशीय अर्थ को पूरा करता है, उसे जंगल माना जाना चाहिए और 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए – भले ही वह आधिकारिक तौर पर जंगल के रूप में दर्ज न हो.

1980 का अधिनियम सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक है, जो भारतीय वनों को कई तरीकों से संरक्षण का प्रावधान करता है, जिसमें गैर-वन उद्देश्यों (जैसे बुनियादी ढांचे के विकास और पर्यटन के लिए निर्माण) के लिए वनों के उपयोग को प्रतिबंधित करना भी शामिल है.

अधिनियम में केंद्र के संशोधन के बाद विशेषज्ञों ने कहा था कि इससे वन भूमि का विशाल क्षेत्र (मानित वन और सामुदायिक वन समेत, जो आधिकारिक तौर पर वन के रूप में दर्ज नहीं हैं) मानवीय गतिविधियों के लिए खुल जाएगा.

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक पिछले साल मार्च में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने लोकसभा में  पेश किया था. यह संशोधन संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने और 4 अगस्त को राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद कानून बन गया था.

अंतिम उपाय के रूप में कई समूहों और संगठनों ने अक्टूबर 2023 में कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं.

इन याचिकाओं के जवाब में अदालत के अंतरिम आदेश में उसने न केवल 1996 के फैसले में निर्दिष्ट जंगल की परिभाषा को बरकरार रखा, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इस अदालत की पूर्व मंजूरी के बिना वन भूमि को सफारी या चिड़ियाघर के लिए नहीं बदला जा सकता है.

अंतरिम आदेश में यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस साल 31 मार्च तक राज्य विशेषज्ञ समितियों (एसईसी) की रिपोर्ट दाखिल करनी होगी.

लाइव लॉ के अनुसार, ‘ये रिकॉर्ड वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संभालकर रखे जाएंगे और विधिवत डिजिटलीकृत किए जाएंगे और 15 अप्रैल 2024 तक आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध कराए जाएंगे.’

बता दें कि पिछले साल अक्टूबर में सेवानिवृत्त सिविल सेवकों के एक समूह ने एक याचिका दायर की थी, जिसमें कई बिंदुओं पर तर्क प्रस्तुत किए गए थे, जिसमें यह तथ्य भी शामिल था कि संशोधन जंगल की परिभाषा को कमजोर करता है जो कि गोदावर्मन फैसले में शीर्ष अदालत द्वारा पहले ही वर्णित की जा चुकी है.

याचिका में यह भी कहा गया था कि वन (संरक्षण एवं संवर्धन) नियम-2023 के नियम 16 के अनुसार, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 2023 के संशोधन की अधिसूचना से एक वर्ष के भीतर वन भूमि का एक समेकित रिकॉर्ड तैयार करना चाहिए. ऐसा अभी तक नहीं किया गया है.

लाइव लॉ के अनुसार, 19 फरवरी को इस याचिका और एनजीओ वनशक्ति और गोवा फाउंडेशन द्वारा प्रस्तुत अन्य समान याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित किया था.

गोदावर्मन फैसले में यह भी कहा गया था कि राज्य राज्य विशेषज्ञ समितियां (एसईसी) बनाएंगे हैं और रिपोर्ट तैयार करेंगे, जो प्रत्येक राज्य में वन भूमि का निर्धारण और उसकी पहचान करेगी.

याचिकाकर्ताओं में से एक प्रकृति श्रीवास्तव ने द वायर को पहले बताया था कि यह स्पष्ट नहीं है कि क्या सभी राज्यों में ये समितियां हैं या समितियों ने अपनी रिपोर्ट जमा कर दी है.

संशोधन के खिलाफ याचिकाकर्ताओं में से एक पर्यावरणवादी प्रेरणा सिंह बिंद्रा ने फैसले को ‘ऐतिहासिक’ बताते हुए कहा कि इसने भारत के जंगलों को ‘अभूतपूर्व डायवर्जन और विनाश’ से बचाया है.

द वायर से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘महत्वपूर्ण बात यह है कि आदेश हमारे संविधान और लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही के लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कायम रखता है. साथ ही, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को जवाबदेह बनाता है. निश्चित रूप से देश के नागरिक यह जानने के हकदार हैं कि हमारे जंगल कहां हैं.’

सांसद और पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि चुनावी बॉन्ड घोटाले के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘मोदी सरकार की घोर अवैध और विनाशकारी योजनाओं’ पर रोक लगाने का यह एक और उदाहरण है.

एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर उन्होंने लिखा कि एफसीए में संशोधन ने ‘(दो) लाख वर्ग किलोमीटर जंगल से संरक्षण छीन लिया था.’

उन्होंने लिखा, ‘यह 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूर्ण उल्लंघन था. यह संशोधन ‘मानित वनों’ के साथ-साथ उत्तर पूर्व के जंगलों का भी डायवर्जन आसान बना देता.’

अरावली के संरक्षण के लिए काम करने वाली वन कार्यकर्ता नीलम अहलूवालिया ने कहा, ‘हरियाणा में अरावली के वन्यजीव और पारिस्थितिकी तंत्र सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से राहत की सांस ले रहे हैं.’

उन्होंने द वायर को बताया, ‘चिड़ियाघर बनाना और जानवरों को अरावली पर्वतमाला जैसे जंगली इलाकों में बाड़ों में रखना संरक्षण के विचार के खिलाफ है.’

वास्तव में, हरियाणा सरकार पहले ही राज्य में अरावली के एक हिस्से को सफारी परियोजना में बदलने की अपनी योजना की घोषणा कर चुकी थी.

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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