निर्भयता ऐसे नहीं आती: उसके लिए जतन ज़रूरी है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

हमारा समय, इस मुक़ाम पर भयग्रस्त है. यों तो हम मनुष्य होने के नाते तरह-तरह के भयों की छाया में हमेशा ही रहते हैं: विफल होने का भय, पीछे छूट जाने का भय, अपनी शक्तियों में हरदम होती कटौतियों का भय, बाज़ार का भय, विपन्नता का भय, नश्वरता का भय आदि. इधर जो राजनीति फैली है उसमें स्वयं राजनीति, अधिकांश मीडिया, धर्म और बाज़ार सभी मिलकर लगातार झूठ, नफ़रत, भय और हिंसा फैलाने में व्यस्त हैं. इस फैलाव के अभियान में नई टेक्नोलॉजी बहुत सक्षमता से बहुत मददगार साबित हो रही है. यह कहना अतिशयोक्ति भले लगे, सचाई यही है कि भारतीय समाज आज अधिक हिंसक, अधिक भयग्रस्त और अधिक नफ़रत से बजबजाता समाज होता जा रहा है.

ऐसे भय-समय में लेखक और कलाकार भय से घिरे हैं और उसका सामना किए बिना उनका कुछ रचना संभव नहीं रह गया है. भय को संबोधित करने के कई तरीके हैं. एक तो यह कि साहित्य और कलाएं इस भय को, उनके रंगों-रेशों को, उनसे होने वाले विसंवाद और क्षति को, उसके द्वारा की जा रही मानवीयता की कटौती को, उसकी वजह से मानवीय और सामाजिक-सांस्कृतिक दरारों और दूरियों को, भय से पैदा विकृतियों को दर्ज़ करे.

दूसरा यह कि अपने सर्जनात्मक व्यवहार को, अपने बौद्धिक चिंतन को, अपने कौशल और मर्म को, अपने अंतःकरण को, अपनी संवेदना और सहानुभूति को किसी भय से आक्रांत न होने दे और अपने सृजन-व्याकरण को निर्भयता-व्याकरण में बदल दे. ऐसा करना आसान नहीं है: यह जोखिम उठाना, कई बार अकेले पड़ जाना, अपने दुस्साहस के परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना आदि सबका मेल होना है.

निर्भयता ऐसे नहीं आती: उसके लिए जतन ज़रूरी है. वह आती है अपने सच पर यक़ीन करने, उसे धूमिल-शिथिल-ध्वस्त न होने देने, सहानुभूति-संवेदनशीलता-समझ के भूगोल को जीवंत और विस्तृत रखने से. वह आती है साहस से, नवाचार से, कल्पनाशीलता और कला-कौशल से. ज़रूरी नहीं कि निर्भयता हर बार दो टूक हो याकि निर्णयात्मक; वह हर बार अभिधा में ही चरितार्थ हो. वह व्यंजित होकर भी व्यक्त हो सकती है. डराने वाले हमेशा ज़्यादा होंगे, डरने वाले भी बहुत होंगे: निडर रहने वाले कम होंगे पर इन्हीं कम में लेखक और कलाकार होते हैं, हो सकते हैं- वे वैसे भी कम ही होते हैं.

आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और इसलिए सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा. उम्मीद करना चाहिए कि आज के लेखक-कलाकार यह समझते हैं.

शती स्मरण

मुझे याद आता है कि 1996-70 के दौरान रामचरितमानस चतुश्शती व्यापक ढंग से मनाई गई थी. भोपाल में उसके लिए गठित समिति ने एक स्थायी संस्था का रूप ही ले लिया था. उनका अब अच्छा-ख़ासा भवन और परिसर है. उसके आग्रह पर हमने मानस से प्रेरित कलाकृतियों की एक प्रदर्शनी आयोजित की थी, जिसका शुभारंभ करने चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन आए थे और उन्होंने मानस पर एक विशद व्याख्यान दिया था. उसी क्रम में एक व्याख्यान अमृत राय ने भी दिया था. बाद में ग़ालिब की जन्मशती भोपाल में बहुत उत्साह से मनाई गई थी और पहली बार उसमें मैंने ग़ालिब पर कुछ सार्वजनिक रूप से कहने की जुर्रत की थी.

बाद में भारत भवन में हमने मैथिली शरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद की जन्मशतियां मनाईं. अमृत महोत्सव या प्रसंग तो मल्लिकार्जुन मंसूर, बिरजू महाराज, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध आदि के किए. दिल्ली आने के बाद राहुल सांकृत्यायन की जन्मशती के संबद्ध रहा, शासकीय स्तर पर. यह याद करना भूल गया कि भारत भवन में सप्ताह भर लंबा जो विश्व कविता समारोह हुआ था वह नेहरू जन्मशती के उपलक्ष्य में आयोजित हुआ था.

रज़ा फाउंडेशन के अंतर्गत अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, मुक्तिबोध, कुमार गंधर्व, हबीब तनवीर की जन्‍मशतियां मनाई गई हैं. रज़ा जन्मशती के बाद अब कृष्णा सोबती जन्मशती मनाई जा रही है. विजय देव नारायण साही, वासुदेव गायतोंडे आदि की जन्मशतियां मनाने की योजना बन रही है. फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा की जन्मशती में एक बड़ी पुस्तक के प्रकाशन में मदद की है और कुछ बौद्धिक आयोजन बाद में करने का इरादा है.

सृजन और विचार के क्षेत्र में अपने मूर्धन्यों को कृतज्ञतापूर्वक याद करने, उनके अवदान को समझने, उनकी प्रासंगिकता का अन्वेषण करने का उत्साह हिंदी समाज में इतना कम है, यह दुखद अचरज में डालता है. अधिक से अधिक कुछ पत्र-पत्रिकाओं के अक्सर सुसंपादित विशेषांक निकलते हैं, पर सौ का हुआ लेखक या कलाकार व्यापक चर्चा में नहीं आ पाता.

इसका एक कारण तो निश्चय ही यह है कि हिंदी समाज, कुल मिलाकर, स्मृति-वंचित और कृतघ्‍न समाज है. दूसरी भारतीय भाषाओं में उनके लेखकों-कलाकारों की जो जगह, हैसियत और आदर बन पाए हैं वैसे हिंदी में संभव नहीं हुए. शायद अपवाद सिर्फ़ प्रेमचंद और निराला हैं. स्मृति-वंचित समाज आसानी से हिंसक, धर्मांध और सांप्रदायिक हो जाता है जो हिंदी समाज, दुर्भाग्य से, हो गया है.

अरुणाभ दिगंत की ओर ताकते हुए

‘अकस्मात् के आगोश में’ प्रभात त्रिपाठी का सेतु प्रकाशन से आया नया संग्रह है जो विश्व पुस्तक मेले में उपलब्ध रहा. उसे पढ़ते हुए मुझे शिद्दत से लगा कि हमने प्रभात की कविता पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है. उनकी कविदृष्टि और काव्यभाषा में जो सयानापन, नश्वरता का बोध और आज के परिदृश्य की संवेदनात्मक समझ है वह बिरली ही कही जा सकता है.

वे अपनी स्थिति की विडंबना को समझते हुए निस्संकोच कहते हैं कि ‘मुग्ध मन/सुबह सात से एसी चलाकर/समय के सच को लिखने की जमात में शामिल मैं/वास्तव में एक धुर किताबी वक़्त के/फुरसती जुमलों का पेशेवर उच्चार भर हूं.’

वे यह भी कहते हैं कि ‘जब मैं लिखता हूं/तब अपने को मरते हुए दिखता हूं.’

एक ओर वे ताक़ीद करते हैं: ‘आकाश के सपने में/मत जाना लड़की/वह बहुत बड़ा है/वहां तू गुम हो जाएगी’ तो दूसरी ओर उनकी ‘जैसे कोई बच्चा’ में पंक्तियां हैं- ‘अरुणाभ दिगंत की ओर ताकते हुए/बच्चे की आंख के भीतर हूं मैं/अपलक ताकता अपनी निस्पंद देह को/अपलक देखता पुनर्जन्म के असंख्य रूपाकार.’

इसी कविता का समापन होता है इन पंक्तियों से: ‘कहां है समय/कौन-सी जगह/दोनों से परे हैं/नवजात के नयन/खुर्दबीन से मत देखो/टुकड़े-टुकड़े मत करो/सिर्फ़ देखो/जैसे देखता है आकाश/जैसे देखता है समुद्र/जैसे देखती है हवा/जैसे देखता है सूर्य/जैसे देखती है धूल.’

प्रभात की कविता में बहुत सारे चमकते बिंब हैं: ‘धूसर गली के एक पुरनिया मकान में’, ‘बारिश का सच अभी तोते’, ‘समय से बाहर बसे घर की ओर’, ‘एक उड़ती चिड़िया/लिख रही थी अपना नाम हवा में’, ‘अनात्म की परछाई’, ‘दृश्य, अदृश्य का यह दैवी संभोग’, ‘तीन पुरानी ईंटों की याद एक चूल्हे की याद है’, ‘निरक्षर देखने को लिखते वक़्त कांपती हैं/कनेर की टहनियां’, ‘अपने कुहरिल अंधकार में’, ‘निमारूंगा चावल के दाने सा सुडौल कोई पल’, ‘चींटियों की शक्लों के बीच/उभरता है निजी हरामखोरी का इतिहास’, ‘निपात पीपल की ओर देखते/अनंत पतझड़ की सुंदरता गुनगुनाते’.

प्रभात त्रिपाठी को कई दूरियों का तीख़ा एहसास है और इसका भी कि कविता में बाहर-भीतर का द्वंद्व, निजी और सामाजिक का द्वैत झर जाते हैं. उनका इसरार है कि ‘पारिवारिकता मनुष्य की सामाजिकता की बुनियादी इकाई है. अपनी कविता में मेरी कोशिश यही रही है कि शब्दों के अपने विन्यास में मैं यह दिखा सकूं कि उनका आपसी संपर्क एक परिवार के सदस्यों जैसा है लेकिन इस तरह की शैल्पिक स्तर पर की जाने वाली कोशिश के अतिरिक्त, परिवार में रहने और रिश्तों को निभाने के अपने अनुभवों में ही मैंने काव्यानुभूति के विन्यास की दिशा पाई है.’

इस कोशिश का साक्ष्य संग्रह की कविताओं में विपुल है. अपने समय को और कालच्छाया को लिखने का यह कठिन संघर्ष अलक्षित नहीं जाना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)