विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या उसका बिखराव नहीं, आत्मविश्वास खो देना है 

विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में अपने आक्रामक हिंदुत्व कहें या बहुसंख्यकवाद की बिना पर समता, बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार संवैधानिक मूल्यों को आक्रांत कर देश के राजनीतिक विमर्श को इस हद तक बदल दिया है कि हतप्रभ विपक्ष इन मूल्यों की बिना पर उससे जीतने का विश्वास ही खो बैठा है.

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राहुल गांधी. (फोटो साभार: फेसबुक)

विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में अपने आक्रामक हिंदुत्व कहें या बहुसंख्यकवाद की बिना पर समता, बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार संवैधानिक मूल्यों को आक्रांत कर देश के राजनीतिक विमर्श को इस हद तक बदल दिया है कि हतप्रभ विपक्ष इन मूल्यों की बिना पर उससे जीतने का विश्वास ही खो बैठा है.

राहुल गांधी. (फोटो साभार: फेसबुक)

लोकसभा चुनाव सिर पर आ जाने के बावजूद एकता या गठबंधन के प्रयासों के ‘सफल’ न हो पाने को इस समय विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या बताया जा रहा है.

हालांकि सच पूछिए तो उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में अपने आक्रामक हिंदुत्व कहें अथवा बहुसंख्यकवाद की बिना पर समता, बंधुत्व व धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार संवैधानिक मूल्यों को आक्रांत कर देश के राजनीतिक विमर्श को इस हद तक बदल दिया है कि हतप्रभ विपक्ष इन मूल्यों की बिना पर उससे जीतने का विश्वास ही खो बैठा है.

वह आत्मविश्वास भी, जिसकी बिना पर वह बहुसंख्यकवाद को खुली चुनौती देकर इस विश्वास को वापस हासिल कर सकता है. इस आत्मविश्वासहीनता ने उसे डराकर उसके मन में इतने चोर पैठा दिए हैं कि वह इस संभावना से भी नजर नहीं मिला पा रहा कि इस डर के आगे उसकी जीत भी छिपी हो सकती है.

नतीजा यह है कि वह ‘निहुरे-निहुरे’ अपने ऊंट चरा रहा और धर्मनिरपेक्षता वगैरह की उतनी ही पैरवी कर रहा है (कहना चाहिए उसका भ्रम रच रहा है), जितनी बहुुसंख्यकों को ‘नाराज’ न करे (जैसे कि बहुसंख्यक हमेशा बहुसंख्यकवाद के पैरोकार रहे हैं और उसके विरुद्ध कुछ भी सुनना गवारा नहीं करेंगे).

तिस पर बहुसंख्यकों का मानस बदलने में लगने के जोखिमों से उसके डर ने उसे वहां ले जा पटका है, जहां भाजपा उसके दुर्दिन में भी उस पर अल्पसंख्यकों की खैरख्वाही की तोहमत मढ़ती रहती है और वह उसके ‘बहुसंख्यक तुष्टीकरण’ के खिलाफ मुंह नहीं खोल पाता. उलटे मोदी सरकार की काहिलियों व वादाखिलाफियों की बिना पर उसके विरुद्ध बनाई गई अपनी सारी बढ़त इस मोर्चे पर गंवा देता है.

वामपंथियों को छोड़ दें तो विपक्ष में एक भी दल ऐसा नहीं है, जो उसूली तौर पर बिना लाग-लपेट बहुसंख्यकवाद के विरुद्ध हो – उसके प्रतिगामी, पुनरुत्थानवादी और संविधानविरुद्ध होने के कारण – और चुनावों में शिकस्त का जोखिम उठाकर उससे लंबी लड़ाई को तैयार हो.

उसे अभी भी ‘चुनाव से चुनाव तक’ की ही सोचने की आदत है, जबकि भाजपा हमेशा चुनावी मोड में रहने लगी है और बहुसंख्यकों के दिलोदिमाग में तमाम बदगुमानियों को भरते हुए विपक्ष द्वारा आधे-अधूरे मन से किए जा रहे उन्हें निकालने के प्रयासों को सफल नहीं होने देती.

हताश होकर वह बीच का रास्ता तलाशने लगता है, तो वह भी नहीं मिलने देती. अफसोस कि वह फिर भी नहीं समझता कि बहुसंख्यकों को अविवेक की ओर ले जाने की भाजपाई कवायदों से निपटने का एकमात्र रास्ता उनका विवेक जगाकर उन्हें लोकतांत्रिक बनाने की कोशिशें ही हैं.

ठीक है कि ऐसी कोशिशों में जोखिम बहुत हैं, लेकिन विपक्ष का उन्हें उठाने से डरना ही भाजपा को ‘महाबली’ बनाए हुए है.

विपक्ष के इस डर की पहली शिनाख्त पीवी नरसिम्हा राव द्वारा प्रधानमंत्री रहते कही गई इस बात में कर सकते हैं कि हम भाजपा से लड़ सकते हैं, भगवान राम से नहीं लड़ सकते. कई हलकों में अब यह बात ‘न भाजपा से लड़ सकते हैं, न राम से’ तक जा पहुंची है.

लेकिन विडंबना देखिए कि न तब किसी ने राव से पूूछा था, न ही विपक्ष अब तक खुद को इस सवाल के जवाब के लिए तैयार कर पाया है कि भाजपा बार-बार राम को ही आगे करने लड़ने लगे तो? फलस्वरूप भाजपा ने भगवान राम को बहुसंख्यकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक बना दिया है और जब चाहती है, अपने विरोध को राम (और बहुसंख्यकों) का विरोध बना देती है.

फिर तो ‘बेचारा’ विपक्ष अपने उस ‘कुसूर’ की सफाई देता रह जाता है, जो उसने किया ही नहीं होता.

यह भी उसकी ‘बेचारगी’ ही है कि बहुसंख्यकों के ‘तुष्टीकरण’ के लिए उसे ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण और सरकारी प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर भी ‘कंडीशंड’ रवैया अपनाना पड़ रहा है. ताकि उस पर राम विरोध की तोहमत चस्पां न हो.

इसे यों समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अयोध्या में भगवान राम का 500 साल पुराना इंतजार खत्म करा दिया है तो विपक्ष इस तथ्य के बावजूद उन्हें चुनौती नहीं दे रहा कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने यह नहीं माना है कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर तोड़कर बनाई गई थी.

इतना ही नहीं, विपक्ष ने ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ खुद को उन सारे सवालों से परे कर लिया है, जो जानकारों द्वारा रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के सुप्रीम फैसले के बाद उठाए गए थे- वह भी तब, जब यह उम्मीद पूरी तरह नाउम्मीद हो गई है कि इस विवाद के निपटने से ऐसे सारे विवादों का पटाक्षेप हो जाएगा.

अब बहुसंख्यकवादी अल्पसंख्यकों की कोई आवाज ही न रहने देने पर आमादा है, जबकि विपक्ष समानता, गरिमा व सुरक्षा के साथ जीने के सारे देशवासियों के अधिकार की रक्षा के लिए कड़े संघर्ष में उतरने का जोखिम उठाने के बजाय ‘सुविधाजनक व सुरक्षित’ रास्ते की बाट जोहता हुआ ‘साॅफ्ट-साॅफ्ट’ बना हुआ है.

इतना साॅफ्ट कि राम मंदिर के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से बनने और राम के सबके होने के ‘तर्क’ से उसने उन सारी समस्याओं की ओर से आंखें मूंद ली हैं, जो भाजपा द्वारा भगवान राम को अपना अस्त्र बनाने से पैदा हुईं और बढ़ती जा रही हैं.

मंदिर का निर्माण करा रहे ट्रस्ट की रीति-नीति को लेकर अपने ‘ऐतराजों’ को भी वह एक सीमा के पार नहीं जाने देता.

ऐसे में कैसे कह सकते हैं कि उसके घटक दलों में एकता या गठबंधन हो जाए तो उसका वसंत आ जाएगा? वह तो तभी आ सकता है, जब वह ईमानदारी से इस सवाल का सामना करने को तैयार हो कि क्या सच के साथ तभी तक खड़े रहना चाहिए, जब तक उसकी जीत पक्की दिखती हो या तब भी, जब उसके हार जाने की आशंका प्रबल हो और लंबी लड़ाई व बड़ी कीमत की मांग करती हो?

सवाल है कि बहुसंख्यकवाद से लड़ाई लंबी हुई तो अभी से डगमगा रहा विपक्ष अपने उसूलों की कीमत चुकाए और उनके पक्ष में दृढ़ हुए बगैर तात्कालिक मोर्चों की चिंता मात्र से उससे कैसे लड़ेगा?

कैसे समझेगा कि लोकशिक्षण के रास्ते लोकमानस को बदलते और बहुसंख्यकवाद से दो-दो हाथ करते हुए चुनाव हारकर भी वह अपनी नैतिक चमक नहीं खोएगा, लेकिन डर के मारे उसने मुकाबले को साॅफ्ट बनाम हार्ड हिंदुत्व का रूप ही दिए रखा तो इस डर की मारी उसकी एकता या गठबंधन भी न उसकी चुनावी संभावनाओं को बचाने में सक्षम होंगे, न नैतिक छवि को.

काश, इस निर्णायक घड़ी में विपक्ष याद करता कि हमारे स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के इतिहास में इस तरह के संकटों के वक्त उनके विरुद्ध प्राय: सारी मुहिमों को शुरू में भरपूर मखौलों, अंदेशों, असफलताओं व उनके जोखिमों का सामना करना पड़ा है. लेकिन उन्होंने अपनी दृढ़ता नहीं खोयी तो किसी भी संकट के लिए उनकी राह रोकना संभव नहीं हुआ.

इसकी एक बड़ी मिसाल तो उस वाराणसी की ही है, गत दिनों राहुल गांधी के रोड शो के बाद जहां भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनके भाषण की जगह गंगाजल से धोई और अपने पाखंड व घृणा के साथ उस खीझ का भी प्रदर्शन किया, जो पप्पू करार देने की हर कोशिश को धता बताकर राहुल द्वारा खुद को दूब में बदल लेने से पैदा हुई है.

ऐसी दूब में, जो बारंबर कुचली जाने के बावजूद मौका पाते ही कुचलने वालों को मुंह चिढ़ाने और अंखुआने लग जाती है.

बहरहाल, मिसाल यों है कि महात्मा गांधी अपने अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान के क्रम में वाराणसी पहुंचे तो कुछ पंडितों ने उनसे पूछा कि वे किस बिना पर अस्पृश्यता को धर्म या शास्त्र विरुद्ध बताते हैं? साथ ही दावा किया कि वे शास्त्रों से प्रमाण देकर अस्पृश्यता को धर्म व शास्त्रसम्मत सिद्ध कर देंगे.

महात्मा ने किसी आनाकानी के बिना उन्हें यह सिद्ध करने का मौका दे दिया तो उनकी टोली अपनी-अपनी पोथियां खोलकर घंटों अस्पृश्यता को शास्त्रसम्मत बताने में लगी रही और जब लगा कि उसने महात्मा की बोलती बंद करने भर को प्रमाण पेश कर दिए हैं तो ‘अब बताइये?’ की मुद्रा अपना ली.

इस पर महात्मा ने दृढ़ व संयत भाव से उससे कहा- अब अपनी-अपनी पोथियां बंद कर लीजिए और मेरी बात सुनिए. मैं फिर कहता हूं कि अस्पृश्यता ईश्वर और मनुष्यता दोनों के प्रति अपराध है और अगर यह अधर्म नहीं है तो कुछ भी अधर्म नहीं है.

महात्मा की इस दृढ़ता ने एकबारगी अस्पृश्यता उन्मूलन की राह के सारे रोड़े हटा दिए.

ऐसी ही दृढ़ता का एक और उदाहरण अयोध्या में. महात्मा के निधन के बाद आचार्य नरेंद्र देव ने विपक्ष निर्मित करने के ध्येय से कांग्रेस छोड़ी तो राजनीतिक नैतिकता का उच्च मानदंड स्थापित करते हुए उसके टिकट पर जीती विधानसभा की सीट भी छोड़ दी. फिर उसी सीट से उपचुनाव लड़ा. इस उम्मीद से कि मतदाता उन्हें फिर से चुनकर उनके फैसले पर मुहर लगा देंगे.

लेकिन कांग्रेस उनके विरुद्ध राजनीतिक के बजाय धार्मिक/सांप्रदायिक एजेंडे पर चल पड़ी. बाबा राघवदास को अपना प्रत्याशी बनाकर प्रचार करने लगी कि भले ही आचार्य ज्ञान, गुण व गरिमा में अपना सानी नहीं रखते, लेकिन अयोध्या ने धर्मपरायण बाबा के बजाय अनीश्वरवादी आचार्य को चुन लिया तो उसकी धर्म की ध्वजा नीची हो जाएगी.

यह प्रचार आचार्य की उम्मीदें धुंधलाने लगा तो शुभचिंतकों ने दिखावे के लिए ही सही उन्हें एक दो-मंदिरों में मत्था टेक आने की सलाह देनी शुरू कर दी.

इस पर आचार्य का दृढ़ जवाब था: मेरे जैसा अनीश्वरवादी चुनाव जीतने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करके खुद को भी धोखा देगा और मतदाताओं को भी. मैं ऐसा नहीं कर सकता. मतदाताओं को मुझे चुनना है तो अनीश्वरवादी के तौर पर ही चुनें, वरना हरा दें.

इतिहास गवाह है, आचार्य उपचुनाव हार गए, लेकिन उनके द्वारा प्रवर्तित भारतीय समाजवाद ने उसके बाद के दशकों में पीछे मुड़कर नहीं देखा.

विपक्ष के पास अभी भी ऐसी दृढ़ता के प्रदर्शन का समय है. कम से कम राहुल गांधी उसे प्रदर्शित करते दिख भी रहे हैं, मगर अफसोस कि उनकी पार्टी विचारधारा की वह लड़ाई लड़ने को उत्सुक नहीं दिखती, जिसका वे आह्वान कर रहे हैं.

अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए चिंंतित उसके नेता भाजपा की गोद में लुढ़कते हुए यह भी नहीं सोच रहे कि कल ‘मां न कहे कि मेरे बेटे वक्त पड़ा तो काम न आए’!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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