संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता को हटाना लोकतंत्र की मौत जैसा होगा: जस्टिस केएम जोसेफ

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस केएम जोसेफ एक कार्यक्रम में संविधान से 'धर्मनिरपेक्षता' का संदर्भ हटाने की मांग का ज़िक्र करते हुए कहा कि विविधता में एकता का अर्थ यह नहीं है कि आप विविधता को मिटा सकते हैं. इसका मतलब यह भी नहीं हो सकता कि आप विविधता को मिटाकर एकता हासिल कर लेंगे.

जस्टिस केएम जोसेफ. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस केएम जोसेफ एक कार्यक्रम में संविधान से ‘धर्मनिरपेक्षता’ का संदर्भ हटाने की मांग का ज़िक्र करते हुए कहा कि विविधता में एकता का अर्थ यह नहीं है कि आप विविधता को मिटा सकते हैं. इसका मतलब यह भी नहीं हो सकता कि आप विविधता को मिटाकर एकता हासिल कर लेंगे.

जस्टिस केएम जोसेफ. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा है कि लोकतंत्र में ‘धर्मनिरपेक्षता’ अत्यावश्यक है.

उन्होंने कहा, ‘भले ही आप प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता को हटा दें, धर्मनिरपेक्षता की कोई भी विशेषता नहीं हटेगी. इसलिए आप संविधान से धर्मनिरपेक्षता को दूर नहीं कर सकते.’

वे बोले, ‘लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता पूरी तरह से अपरिहार्य है. यदि किसी सरकार द्वारा धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना से इस धारणा के साथ हटाया जा रहा है कि केवल ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को हटाकर आप धर्मनिरपेक्षता की विशेषताओं को हटा रहे हैं… तो भले ही इसे हटा दिया जाए, यह लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी जैसा होगी.’

उन्होंने ये टिप्पणी केरल हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में व्याख्यान देते हुए की.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, व्याख्यान का शीर्षक ‘भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा’ था. वह संविधान से ‘धर्मनिरपेक्षता’ का संदर्भ हटाने के लिए कुछ हलकों से की जा रही मांग का जिक्र कर रहे थे.

उन्होंने कहा, ‘धर्मनिरपेक्षता समानता का एक पहलू है. यदि आप सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करते हैं, तो वही धर्मनिरपेक्षता है. आप निष्पक्ष होते हैं, आप पक्षपात नहीं करते या संरक्षण नहीं देते. यही सार है जैसा कि एसआर बोम्मई फैसले में कहा गया है.’

जस्टिस जोसेफ ने आगे कहा, ‘धर्मनिरपेक्षता का संपूर्ण विचार यह है कि धर्म आपकी निजता का विषय है, इसे निजी रखें… सरकार को पूर्ण तटस्थता बनाए रखनी चाहिए. यह उन मामलों का सार है जो सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में निर्धारित किया है.’

उन्होंने इस संदर्भ में कहा, ‘संविधान सभा के सभी सदस्य इस बात पर सहमत थे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, उन्हें लगा कि इसका विशेष रूप से उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘विशेष रूप से विभाजन, जिसने धार्मिक मॉडल के आधार पर पाकिस्तान का जन्म देखा, के बाद इस बात पर सहमति थी कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. विविधता में एकता का मतलब यह नहीं है कि आप विविधता को मिटा सकते हैं. इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि आप विविधता को मिटाकर एकता हासिल कर लेंगे.’

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता के तहत धर्म, नस्ल, जाति आदि की परवाह किए बिना अपने सभी नागरिकों के जीवन की रक्षा करना सरकार का परम कर्तव्य होता है.

उन्होंने कहा, ‘कोई भी पदाधिकारी, कोई प्रतिनिधि, कोई भी मंत्री किसी भी धर्म का समर्थन नहीं कर सकता, धर्मों के बीच लड़ाई में पक्ष नहीं ले सकता. इससे यह धारणा बनती है कि अन्य धर्म गौण हैं, ऐसा नहीं है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के तहत सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए.’

उन्होंने अपील की कि नागरिकों को धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए.

वे बोले, ‘बिस्तर पर लेटकर यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मैं विरोध नहीं करूंगा या कुछ नहीं करूंगा, सरकार को जो भी करना है करने दो. आप हर तरह की आलोचना करते हैं और जब बात खुद लड़ने की आती है तो पूरी तरह से चुप्पी साध लेते हैं.’

उन्होंने सवाल किया, ‘आप ये क्या योगदान दे रहे हैं?’

इस संबंध में उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 51ए, विशेष रूप से धर्मों और अन्य विभाजनों से ऊपर उठकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और भाईचारे की भावना विकसित करने की जरूरत के तहत निहित नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया.

यह उम्मीद जताते हुए कि भारत में धर्मनिरपेक्षता बची रहेगी, जस्टिस जोसेफ ने कहा, ‘मैं अभी भी आशावादी हूं कि धर्मनिरपेक्षता बची रहेगी. मेरा आशावाद काफी हद तक हिंदू धर्म की उदारता से ही आता है. हिंदुओं का विशाल बहुमत पूरी तरह से खुले विचारों वाला और सहिष्णु है और वे धर्म के साथ उस तरह का व्यवहार नहीं करते हैं जिस तरह से अन्य धर्मों में किया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘जब कोई संघर्ष नहीं हुआ था तब यह देश ईसाई और इस्लाम सहित अन्य धर्मों के लिए खुला था. जब 8वीं शताब्दी में इस्लाम आया तो वे व्यापारी के तौर पर आए. जब ईसाई धर्म आया, तो उनके साथ चलने वाली कोई सेना नहीं थी. देश राजाओं, पुरोहितों द्वारा खुला छोड़ दिया गया था, हिंदू धर्म अनिवार्य रूप से सार्वभौमिक सत्य की खोज पर आधारित है… हिंदू धर्म में आपको माधवाचार्य का द्वैतवाद, शंकराचार्य का अद्वैतवाद मिलेगा… तो हिंदू धर्म अन्य आस्थाओं को आत्मसात करने के लिए खुला हुआ है. समस्या तब आती है जब राजनीति के लिए, सत्ता हासिल करने के लिए इसका दुरुपयोग किया जाता है. यहीं सबसे बड़ा ख़तरा छिपा है.’