द वायर और लाइव लॉ के सहयोग से कैंपेन फॉर ज्युडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स द्वारा आयोजित एक सेमिनार में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर ने कहा कि आज की तारीख़ में ऐसी धारणा बन चुकी है कि अगर कोई केस फलां पीठ के समक्ष गया है, तो नतीजा क्या होगा.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के कामकाज की अपारदर्शिता, भारत के मुख्य न्यायाधीश की ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ की भूमिका और शीर्ष अदालत में ‘रिमोट कंट्रोल की धारणा’ के संबंध में हाल ही में उठाए गए सवालों के बीच सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों और वरिष्ठ अधिवक्ता द वायर और लाइव लॉ के सहयोग से कैंपेन फॉर ज्युडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) द्वारा आयोजित एक सेमिनार में एक साथ आए.
शनिवार (24 फरवरी) को ‘सुप्रीम कोर्ट न्यायिक प्रशासन और प्रबंधन- मुद्दे और चिंताएं’ शीर्षक वाले पहले सत्र में बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि ‘जनता के मन में एक धारणा है कि मास्टर ऑफ रोस्टर के कामकाज को उस तरह से नहीं संभाला जाता, जिस तरह से संभाला जाना चाहिए.’
जस्टिस जोसेफ ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) भारत के संविधान के संरक्षक हैं और एक न्यायाधीश का काम संविधान और कानूनों को कायम रखना है. उन्होंने कहा, ‘(एक न्यायाधीश का) विवेक विशेष नहीं होता, यह संवैधानिक विवेक होता है. यह उनकी विचारधारा या संरक्षकों, जिन्होंने उन्हें उस स्थिति तक पहुंचने में मदद की है, द्वारा नहीं बनाया गया है. वह संविधान के विवेक के रक्षक हैं. वे जो कुछ भी करते हैं, वह केवल संविधान को कायम रखने के लिए करते हैं.’
भारत के मुख्य न्यायाधीश, जिन्हें ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ माना जाता है, द्वारा बेंचों को मामलों के आवंटन के मुद्दों और समस्याओं को जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाया था. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस, जिसमें खुद जस्टिस जोसेफ और जस्टिस मदन लोकुर ने जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई के साथ भाग लिया था, का जिक्र करते हुए जस्टिस जोसेफ ने कहा कि उन्होंने आने वाले मुख्य न्यायाधीशों के साथ दो सप्ताह तक बैठकें की थीं और एक सुझाव दिया था कि ‘कथित मनमानी से बचने के लिए मास्टर ऑफ रोस्टर अभ्यास को उचित रूप से विनियमित किया जाना चाहिए.’
जस्टिस जोसेफ ने कहा कि हालांकि वह नहीं मानते कि कोई सीजेआई मनमानी करता है लेकिन जनता के मन में ऐसी धारणा हो सकती है.
उन्होंने कहा, ‘ऐसी भी धारणा है कि सुप्रीम कोर्ट भी रिमोट कंट्रोल से चलता है.’ उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अपने रिटायरमेंट के समय भी यही कहा था.
उन्होंने सुझाव दिया कि मास्टर ऑफ रोस्टर का काम सर्वोच्च न्यायालय के पहले तीन न्यायाधीशों द्वारा निपटाया जाना चाहिए और मामलों की सूची, मामलों के संवैधानिक डेकोरम वाले मामलों के आवंटन और उस मामले में क्या करना है जब न्यायाधीश मामले से हट जाता है, इस पर निर्णय लेना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘ये चार स्थितियां हैं जिनमें रोस्टर के मास्टर को संवेदनशील तरीके से काम करना होगा, भले ही यह अब सनसनीखेज हो गया हो. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसकी संवैधानिक संवेदनशीलता पर उस तरह से विचार नहीं किया जा रहा है जिस तरह से किया जाना चाहिए,” .
महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों पर पीठों के गठन पर उन्होंने सुझाव दिया कि इसमें ‘क्षेत्रीय और लैंगिक विविधता दिखनी चाहिए.’ उन्होंने कहा कि आजकल चलन यह है कि अगर कोई मामला किसी विशेष पीठ के सामने रखा गया है, तो ‘लोग यह अनुमान लगा लेते हैं कि नतीजा क्या होगा.’
सत्र में अन्य वक्ताओं में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर; दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह, दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रेखा शर्मा, इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर, सुप्रीम कोर्ट की वकील कामिनी जयसवाल ; वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा; अधिवक्ता गौतम भाटिया और सीजेएआर संयोजक और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण शामिल थे.
‘जब कोई मामला किसी विशेष पीठ के समक्ष जाता है, तो नतीजा यही होता है’
जस्टिस लोकुर ने जस्टिस जोसेफ से सहमति जताते हुए कहा, ‘आज धारणा यह है कि जब मामला विशेष पीठ के सामने जाएगा तो नतीजा यही होगा.’
दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में इस महीने की शुरुआत में जेएनयू के पूर्व छात्र और कार्यकर्ता उमर खालिद द्वारा सुप्रीम कोर्ट में उनकी जमानत याचिका वापस लेने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि ‘वकील को उस केस का भविष्य पता था.’
उन्होंने कहा, ‘आपके पास उमर खालिद का जमानत मांगने का मामला है, जो लंबे समय से सूचीबद्ध नहीं हो रहा है. 13 बार स्थगन हो चुका है. आख़िरकार वकील ने कहा कि हम केस वापस लेना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि नतीजा क्या होने वाला है. वे उस मामले का भविष्य जानते थे.’
जस्टिस लोकुर ने कहा कि उनके अनुसार पहला उदाहरण, जब एक मुख्य न्यायाधीश ने एक पीठ को बदलने के लिए मास्टर ऑफ रोस्टर की शक्ति का प्रयोग किया था, वह 1984 में सिख विरोधी दंगों के बाद हुआ था.
दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश राजिंदर सच्चर, जिन्होंने अपनी आत्मकथा में 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले को अपने बोर्ड से वापस लेने के बारे में लिखा था, का जिक्र करते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा कि ‘सुनवाई के दौरान ऐसा लगा कि जस्टिस सच्चर, जो एक बड़े नागरिक अधिकार कार्यकर्ता थे, एक विशेष दृष्टिकोण अपना रहे थे जो सरकार के लिए मददगार नहीं था. यह दिसंबर का कोई समय था. अदालत की छुट्टियां खत्म होने के बाद जनवरी में जस्टिस सच्चर को पता चला कि मामला उनके बोर्ड से छीन लिया गया है.’
जस्टिस लोकुर ने कहा, ‘उन्होंने इसे मुख्य न्यायाधीश के समक्ष उठाया, लेकिन कुछ नहीं हुआ… जहां तक मुझे पता है यह किसी मुख्य न्यायाधीश द्वारा किसी मामले को किसी विशेष पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने या उसे एक विशेष पीठ के सामने से हटाने के लिए मास्टर ऑफ रोस्टर की शक्ति का प्रयोग करने का पहला दस्तावेजी मामला था, ताकि वह आदेश पारित न किया जा सके जो मुख्य न्यायाधीश नहीं चाहते थे.’
अर्णब गोस्वामी और जीएन साईबाबा के मामलों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मुद्दा यह है कि कोई केस कब और कहां सूचीबद्ध किया जाता है. ‘आपके पास ऐसी स्थिति होगी जहां कोई एक पत्रकार जमानत चाहता है, मामला उसी दिन शाम को सूचीबद्ध किया जाता है… किसी को जमानत दे दी गई है, अभियोजन पक्ष का कहना है कि हाईकोर्ट द्वारा जमानत देना गलत है… इसलिए एक विशेष पीठ शनिवार को बैठती है और उस आदेश पर रोक लगा देती है, जो बहुत ही असामान्य है, ताकि वह व्यक्ति जेल से बाहर न आ सके. ऐसा क्यों होना चाहिए?’
उन्होंने इन मामलों की तुलना खालिद के केस, अनुच्छेद 370 केस और चुनावी बॉन्ड मामले से भी की, जो बरसों से सूचीबद्ध नहीं हुए थे. दो समाधान पेश करते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा कि एक यह हो सकता है कि इस संदेश को आगे बढ़ाया जाए ताकि ‘सुधारात्मक कदम उठाए जाएं.’ दूसरा समाधान, जिसे उन्होंने अधिक ‘डरावना’ बताया, वो था कि संसद द्वारा एक कानून बनाना कि शीर्ष अदालत को कैसे काम करना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘हमारे पास हाल ही में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का उदाहरण है जब सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्देश दिया और संसद ने एक कानून बनाया और सीजेआई को हटा दिया और एक कैबिनेट मंत्री को शामिल कर दिया. क़ानून बनाना एक समाधान है, लेकिन यह एक बहुत ही डरावना समाधान है जो संविधान के तहत उपलब्ध है. ऐसा होने से पहले, मुझे लगता है, हमें एकजुट होकर काम करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि केस सूचीबद्ध करने में समय और बेंच दोनों में इंसाफ हो.’
‘केस कौन सौंपता है और कौन फैसला देता है, से फर्क पड़ता है’
दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रेखा शर्मा ने कहा कि सवाल सिर्फ न्यायाधीशों की लिस्टिंग के बारे में नहीं है, बल्कि ‘कौन मामला सौंपता है और कौन मामले का फैसला करता है,’ के बारे में है.
अयोध्या स्वामित्व विवाद मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ का नेतृत्व करने वाले पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जिन्हें बाद में राज्यसभा में नामित किया गया, के स्पष्ट संदर्भ में जस्टिस शर्मा ने कहा कि रोस्टर प्रणाली के तीन स्पष्ट फायदे हैं जो ‘सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, सार्वजनिक हो चुके हैं.’
उन्होंने कहा, ‘नंबर एक, रोस्टर का मास्टर अपनी पसंद की बेंच का गठन कर सकता है और बेहद निजी मामले में भी खुद उसकी अध्यक्षता कर सकता है. नंबर दो, उस शक्ति का बुद्धिमानी से उपयोग करके वह अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी राज्यसभा में सीट या किसी राज्य में राज्यपाल पद जैसी आरामदायक नौकरी सुनिश्चित कर सकता है. नंबर तीन, अपनी शक्ति का समझदारी से इस्तेमाल कर वह अपने सबसे योग्य और प्रिय सहयोगियों को भी समान लाभ पहुंचा सकता है.’
‘जनता का कम होता भरोसा’
वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि उमर खालिद जैसे केस को सुप्रीम कोर्ट से वापस लिया जाना ‘एक संस्था में जनता के भरोसे के पूरी तरह से कम होने’ को दर्शाता है.
अरोड़ा ने कहा कि न्याय एक समान होना चाहिए और आपराधिक मामलों में यह घोषित करने की जरूरत है कि कौन सी आपराधिक पीठ किस श्रेणी के मामलों की सुनवाई करेगी- चाहे मृत्युदंड, आर्थिक अपराध या अन्य. एक बार आपने यह कर लिया कि मामलों का निर्धारण ऑटोमैटिक तरीके से होना चाहिए और कोई बीच में नहीं आना चाहिए.’
अरोड़ा ने कहा कि मास्टर ऑफ रोस्टर के कार्यालय को विनियमित करने के लिए तंत्र लाया जाना चाहिए.
अधिवक्ता कामिनी जायसवाल ने कहा कि सबसे चिंताजनक मुद्दा न्यायाधीशों को दी जा रही ‘सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियां’ हैं.
उन्होंने कहा, ‘आप पाएंगे कि वे शीर्ष पर पहुंचने तक बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. जब वे सेवानिवृत्ति के करीब पहुंचते हैं, तो वे एक नए रंग में सामने आते हैं, जो अच्छा नहीं है. संविधान के प्रश्न और मामलों की लिस्टिंग में दिशानिर्देश होने चाहिए, रोस्टर प्रणाली विषय के अनुसार काम करती है. मुझे नहीं लगता कि एक बार रोस्टर बन जाने के बाद मुख्य न्यायाधीश को एक पीठ से दूसरी पीठ में ट्रांसफर करने में कोई भूमिका निभानी चाहिए.’
उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय महत्व के अति संवेदनशील मामलों में ‘यह जरूरी है कि निर्णय एक व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जा सकता. यह काम सुप्रीम कोर्ट के कम से कम तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा किया जाना चाहिए.’
अपने संबोधन में वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि चुनावी बॉन्ड केस और चंडीगढ़ मेयर चुनाव मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों ने शीर्ष अदालत में उम्मीद फिर से जगा दी है.
उन्होंने 2018 में उनके पिता और अधिवक्ता रहे शांति भूषण द्वारा दायर एक याचिका, जिसमें कहा गया था कि मास्टर ऑफ रोस्टर प्रणाली किसी एक व्यक्ति के पास नहीं बल्कि पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के पास होनी चाहिए, की बात दोहराई. इस याचिका को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया था.
पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जो उनके खिलाफ लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों के केस की सुनवाई करने वाली पीठ का हिस्सा थे, का जिक्र करते हुए भूषण ने कहा कि मास्टर ऑफ रोस्टर का ‘मनमाने ढंग से दुरुपयोग किया जा सकता है.’
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