आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं सज़ा हो सकती है: सुप्रीम कोर्ट

शीर्ष अदालत उस मामले में फैसला दे रही थीं, जहां एक व्यक्ति पर साल 1993 में उनकी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा था. कोर्ट ने निचली अदालतों को ऐसे मामलों में पति और उसके रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ क़ानूनी निष्कर्ष निकालने के प्रति आगाह किया, जहां किसी महिला ने शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या की हो.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

शीर्ष अदालत उस मामले में फैसला दे रही थीं, जहां एक व्यक्ति पर साल 1993 में उनकी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा था. कोर्ट ने निचली अदालतों को ऐसे मामलों में पति और उसके रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ क़ानूनी निष्कर्ष निकालने के प्रति आगाह किया, जहां किसी महिला ने शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या की हो.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: ‘आपराधिक न्याय प्रणाली अपने आप में एक सजा के रूप में कार्य कर सकती है.’ सुप्रीम कोर्ट ने यह बात उस व्यक्ति को बरी करते वक्त खेद जताते हुए कही जिस पर 30 साल पहले अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया था.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने उक्त व्यक्ति को बरी करते हुए कहा, ‘अपीलकर्ता के लिए कठिन परीक्षा 1993 में शुरू हुई थी और 2024 में समाप्त हो रही है, यानी लगभग 30 वर्षों के संघर्ष के बाद.’

इसे बिना सबूत का मामला मानते हुए पीठ ने कहा, ‘हम केवल यह मान सकते हैं कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं ही एक सजा हो सकती है. इस मामले में बिल्कुल वैसा ही हुआ है. इस अदालत को इस अपरिहार्य निष्कर्ष पर पहुंचने में 10 मिनट से अधिक समय नहीं लगा कि आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दंडनीय अपराध के लिए अपीलकर्ता दोषी की सजा कानून में कहीं नहीं टिकती.’

मामला दिसंबर 2008 से शीर्ष अदालत में लंबित रहा. इसे आखिरी बार जुलाई 2014 में सूचीबद्ध किया गया था. वह व्यक्ति, जिसकी उम्र अब 50 वर्ष से अधिक है, मई 2009 से जमानत पर है.

फैसले ने अदालतों को उन सभी मामलों में पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ कानूनी निष्कर्ष निकालने के प्रति आगाह किया, जहां एक महिला ने शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या कर ली हो.

शीर्ष अदालत ने कहा कि जब किसी व्यक्ति पर आत्महत्या में सहायता करने और उकसाने का आरोप लगाया जाता है तो अदालत को आत्महत्या के लिए उकसाने के कृत्य का ‘ठोस सबूत’ मांगना चाहिए, और उकसाऊ कृत्य घटना के समय के करीब होना चाहिए.

2008 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने 1993 में अपनी पत्नी को यह घातक कदम उठाने के लिए उकसाने के आरोप में उक्त व्यक्ति की सजा की पुष्टि की थी. अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया था कि महिला ने अपने पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा पैसे की लगातार मांग के कारण नवंबर 1993 में जहर खाकर जान दी थी.

22 फरवरी को अपील पर दस मिनट की सुनवाई के बाद शीर्ष अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति के खिलाफ आरोप नहीं बनता क्योंकि किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार या उत्पीड़न को दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है.

पीठ ने पिछले सप्ताह अपने फैसले में कहा, ‘व्यवसाय चलाने के लिए पत्नी या उसके माता-पिता से सिर्फ पैसे की मांग करना क्रूरता या उत्पीड़न नहीं माना जाएगा… उकसावे के अपराध को साबित करने के लिए किसी विशेष अपराध को करने की मनोस्थिति दिखाई देनी चाहिए, ताकि दोषसिद्धि निर्धारित की जा सके.’

अदालत ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 113ए की व्याख्या पर भी प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया है कि जब एक महिला शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या कर लेती है, और यह दिखाया जाता है कि उसके पति या उसके पति के किसी रिश्तेदार ने उसके साथ क्रूरता की थी, तो अदालत की यह कानूनी धारणा ‘हो सकती है’ कि ऐसी आत्महत्या के लिए उसके पति और उसके रिश्तेदारों ने उकसाया था.

अदालत ने रेखांकित किया कि ‘हो सकता है’ वाली शब्दावली का उपयोग यह संकेत देता है कि अनुमान विवेकाधीन है.

पीठ ने कहा, ‘सिर्फ इस तथ्य को देखकर कि शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या कर ली गई, किसी को इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच जाना चाहिए कि उसे उकसाया गया होगा, जब तक कि क्रूरता साबित न हो जाए… अदालत को मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए.’

अदालत ने रिकॉर्ड पर मौजूद सभी सबूतों को लेकर सतर्कता बरतने की बात करते हुए कहा कि ऐसा न करने पर यह संदेश जा सकता है कि दोषसिद्धि कानून नहीं, बल्कि नैतिक है.