अनामिका की एक सामान्य-सी कविता के एक संदर्भ को लेकर चल रही बहस के भीतर चिंगारियां या अदावत का आह्लाद तलाश करने के बजाय यह देखना ज़रूरी है कि हम शब्दों के प्रति कितने सचेतन हैं कि कविता के शब्द कभी हमारी स्मृतियों के भीतर भी कभी नहीं गिरें. भले ही वे नारायण पंडित के हितोपदेश के किसी श्लोक के शब्द हों या फिर अनामिका की किसी स्मृति के बिंब से जुड़े.
अंग्रेज़ी की एक प्रसिद्ध फिल्म है ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’. सोफ़िया कोपोला की लिखी और निर्देशित इस फिल्म में यह समझने में ज़्यादा देर नहीं लगती कि टोक्यो में दो अकेली अमेरिकी आत्माओं को लेकर गूंथी गई इस उदास और प्रेमिल सी कहानी में ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ का अर्थ सिर्फ़ अनूदित पंक्तियों के अर्थ भर का फ़ासला नहीं है; बल्कि इसके पीछे अनुवाद से कहीं अधिक गहरी चीज़ों का कुछ ख़ास मतलब है. फिल्म भले ह्विस्की के एक विज्ञापन के लिए आए अमेरिकी अभिनेता पर केंद्रित है, जो जापानी भाषा से बिलकुल अनजान है; लेकिन यह अपने भीतर बहुत सारे रिश्तों के अर्थ और संदर्भाें को समेटे हुए है.
ऐसा ही कुछ पिछले दिनों स्त्री मर्यादा और सरोकारों की चिंताओं को छूने की कोशिश करती हिंदी की कवि अनामिका की एक औसत-सी कविता की सपाट-सी पंक्तियों वाले इंट्रो को लेकर हुआ. उनकी कविता का चर्चा में आया अंश 2012 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘पचास कविताएं’ की एक कविता ‘बेजगह’ से है.
लेकिन यह कवितांश अभी चर्चा में दिल्ली विश्वविद्यालय के विवेकानंद कॉलेज के हिंदी विभाग की पांच मार्च, 2024 को प्रस्तावित और संभवत: बाद में निरस्त एक अंतरमहाविद्यालयीय भाषण प्रतियोगिता के वायरल हुए निमंत्रण पत्र के विषय से मेल खाने की वजह से आया. इस प्रतियोगिता का विषय था: अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते केश, औरतें और नाखून. और यही विषय था अनामिका की कविता का. कविता का चर्चा में आया वह अंश है:
‘अपनी जगह से गिरकर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून
अन्वय करते थे किसी श्लोक का
ऐसे हमारे संस्कृत टीचर
डर कर जम जातीं थीं
हम लड़कियां अपनी जगह पर!’
इस पर हिंदी के कवि कृष्ण कल्पित ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा: ‘सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका की इस कविता पर दोनों तरफ़ से ग़लत और निरर्थक बातें हो रही हैं. श्लोक में स्त्री का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है. कविता में ग़लत श्लोक का इस्तेमाल साहित्यिक अपराध की श्रेणी में आता है.’
वे लिखते हैं, ‘अनामिका की कविता में जिस संस्कृत श्लोक का उल्लेख है, वह सही नहीं लिखा गया है. वह इस तरह से है, जैसा हमारे विद्वान मित्र आलोचक तिवारी शिवकिशोर ने उद्धृत किया है:
‘स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा नराः.
इति विज्ञाय मतिमानः स्वस्थानं न परित्यजेत्..’
कल्पित लिखते हैं, ‘इस श्लोक में कहीं भी औरतों, सन्नारियों का ज़िक्र नहीं है. श्लोकानुसार इसका अर्थ यह है कि स्थानभ्रष्ट होकर या अपनी जगह से गिरकर केश, दांत, नाख़ून और मनुष्य शोभते नहीं. इसीलिए बुद्धिमान लोग अपना स्थान नहीं त्यागते. यहां स्त्री है; लेकिन वह मनुष्य में शामिल है. यही इस श्लोक का अर्थ अथवा भाष्य है.’
सोशल मीडिया और यूट्यूब से होता हुआ यह विवाद बढ़ता जा रहा है और इसमें अब संस्कृत के चर्चित विद्वान भी कूद पड़े हैं. संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी ने हिंदी के उनकी कवियों और लेखकों की ख़ूब ख़बर ली, जिन्होंने अनामिका की कविता का उल्लेख करते हुए वर्तनी में हलंत तक की शुद्धि का ख़याल नहीं रखा.
त्रिपाठी ने चर्चा में आए श्लोक के एक शब्द ‘नरा:’ से नारी अर्थ साबित करने का द्रविड़ प्राणायाम भी कर डाला. उन्होंने द्वंद्व समाज के माध्यम से पितृ शब्द से स्त्री का बोध करने का उल्लेख करते हुए ‘नरा:’ से नारी अर्थ लेने पर उठाई जा रही आपत्तियों को निरस्त कर दिया और तात्यर्य रूप में कहा कि यहां नरा: का अर्थ नारी भी संभव है.
कवि कृष्ण कल्पित ने इसके जवाब में त्रिपाठी को जयपुर, दिल्ली और भोपाल में शास्त्रार्थ करने की चुनौती दे डाली. इतना ही नहीं, उन्होंने लिखा, ‘यदि अध्यापक इसका गलत अर्थ करते थे तो इस बात का ज़िक्र या आभास कविता में कहीं होना चाहिए था. अन्यथा मूल कवि और कविता के साथ अन्याय होता है और यह भी कहा जा सकता है कि संस्कृत स्त्री-विरोधी भाषा है. वैसे भी श्लोक को बदलना अपराध है. वीरेन डंगवाल की एक कविता याद आती है- कुछ कद्दू चमकाए मैंने. अनामिका भी यहां अपना नारीवाद का कद्दू चमका रही हैं. कद्दू चमकाओ लेकिन किसी श्लोक की नाक तो चाकू से मत काटो. ऐसा करना साहित्यिक अपराध है!’
यह विवाद चल ही रहा था कि इसमें जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के शिक्षक कोसलेंद्रदास शास्त्री भी कूद पड़े. उन्होंने लिखा: ‘संस्कृत साहित्य के इस प्रसिद्ध श्लोक का यह (कविता) अनुवाद अनामिका जी ने किया है, जिसमें मूल के ‘नर’ (जो बहुवचन में है) का अर्थ ‘औरतें’ किया गया है. एक ग़लत व्याख्या के आधार पर कविता कैसे लिखी जा सकती है? भले ही वह ग़लत अनुवाद कोई अध्यापक ही क्यों न करता हो? क्या यह वाग्देवी सरस्वती का अपमान नहीं है? ‘
कोसलेंद्रदास लिखते हैं, ‘हमारी परंपरा के एक उत्कृष्ट श्लोक को नष्ट करने का अधिकार क्या अनामिका जी या किसी दूसरे के पास है या नहीं? इस पर स्वस्थ बात होनी चाहिए. जो इस कविता को पढ़ेगा, क्या वह यह नहीं समझेगा कि संस्कृत में स्त्री विरोधी टेक्स्ट भरा हुआ है. अनामिका जी को मूल श्लोक का संदर्भ देना चाहिए था; लेकिन लगता है, वह भी अपनी स्मृति में बैठे संस्कृत टीचर के भाष्य को आज भी सही समझ रही हैं और वैसा ही अनुवाद कर रही हैं!’
सोशल मीडिया में चल रही इस बहस का आनंद तो बहुत से विद्वान और विदुषियों के समूह ले रहे हैं, जिनमें संस्कृत से जुड़े हुए भी हैं; लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि हितोपदेश का यह श्लोक खंडित रूप में सामने आया है और इसका असली रूप कुछ और है.
यह श्लोक संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्तियों में अधिक प्रयुक्त होता है और होता रहा है. हितोपदेश में यह श्लोक इस तरह है:
राजा कुलवधूर्विप्रा मंत्रिणश्च पयोधरा:.
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा नरा:.
लेकिन इस श्लोक को ग़लत रूप में इस तरह लिखा जा रहा है:
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा नरा:.
इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत्.
आइए, पहले संस्कृत के मूल श्लोक का अर्थ जानते हैं : राजा, कुलवधू, ब्राह्मण, मंत्री, पयोधर, केश, नाखून और पुरुष अगर अपने मूल स्वभाव में शिथिल हो जाएं या मूल स्थान या स्वरूप में न रहें तो अशोभनीय हो जाते हैं. इसमें पयोधर शब्द है, जो स्त्री के स्तनों का पर्यायवाची है और इरोटिक अभिव्यक्ति को रेखांकित करता है. संस्कृत में ऐसे बहुत से इरोटिक श्लोक हैं, जिनके सामने अंग्रेज़ी का साहित्य पानी भरता है. लेकिन जिस श्लोक को अब लिखा जा रहा है, उसमें पहली पंक्ति हटा दी गई है और दूसरी पंक्ति की जगह इस श्लोक के बाद हितोपदेश के लेखक की टिप्पणी वाली पंक्ति का एक हिस्सा लिख दिया गया है. वह मूल और पूरी पंक्ति इस तरह है: ‘इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत्. कापुरुषवचनमेतत्.’
हितोपदेश के लेखक ने पहले तो श्लोक लिखकर इस लोकधारणा को व्यक्त किया कि राजा, कुलवधू, ब्राह्मण, मंत्री, पयोधर, केश, नाखून और पुरुष अपने स्थान को छोड़ते ही अशोभनीय हो जाते हैं; लेकिन इसके बाद सुस्पष्ट रूप से लिखा कि इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत्. कापुरुषवचनमेतत् यानी यह मानकर और जानकर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिए. यह कायर का वचन है.
दरअसल, यह पंक्ति (इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत्) इस श्लोक की नहीं ही है और इस श्लोक के बाद इसे तात्पर्य के तौर पर प्रस्तुत किया गया है. यह इस बात से भी पूरी तरह स्पष्ट है कि अनुष्टुप छंद में लिखे हुए इस श्लोक की पहली पंक्ति के दोनों पद तो इस छंद की कसौटी पर खरे उतरते हैं, लेकिन दूसरी पंक्ति के दोनों पद नहीं.
अनुष्टुप छंद में चार पद होते हैं और इसके हर पद का छठा वर्ण गुरु और पंचमाक्षर लघु होता है. पहले और तीसरे पद का सातवां वर्ण गुरु और दूसरे और चौथे पद का सातवां वर्ण लघु होता है. ऐसा प्रतीत होता है कि कविता लिखते समय अनामिका को कक्षा की स्मृति ताज़ा हो आई हो. मेरी अपनी संस्कृत की कक्षा में शिक्षक अगर पुरुष होता तो वह छात्राओं को स्त्रीभेद, कुलवधू और पयोधर संबंधी व्याख्याओं से शर्मसार करते थे और अगर शिक्षक महिला होतीं तो दुष्ट लड़के अभिज्ञानशाकुंतलम् की पंक्तियां पढ़कर उन शब्दों का अर्थ पूछने की धृष्टता करते थे, जहां पके आमों और आम्रमंजरियों का अदभुत वर्णन है और उनमें आए शब्द अब किसी भी सूरत में शालीन नहीं रह गए हैं.
और ज़रूरी बात यह है कि हमारे मस्तिष्क के भीतर कहीं गहरे में पुरानी स्मृतियां बैठी रहती हैं और जब वे भेस बदलकर बाहर आती हैं तो कभी शक्तिशाली दवा हो जाती हैं और कभी अच्छे शब्दों का रूप लेकर इतिहास के भीतर छुपी सचाइयों को एक्स-रे की तरह हमारे सामने रख देती हैं. ये सचाइयां हमें प्रभावित भी कर सकती हैं और विचलित भी. इसी तरह अगर अनामिका की कविता की कलात्मकता पर न भी जाएं तो भी संस्कृत और हमारी संस्कृति के ऐसे अनगिनत पहलू हैं, जो इस समय हमें विचलित कर सकते हैं और करते हैं.
ख़ासकर ऐसे दौर में जब अतीत से सब कुछ बिना सोचे-समझे उठाकर लाया जा रहा है, जबकि हमारे अपने कवि कुलगुरु कालिदास कह गए हैं कि पुराणमित्येवनचसाधुसर्वम्. कोई बात या चीज़ पुरानी है, इसीलिए वह श्रेष्ठ है, ऐसा सदा ही नहीं होता.
आधुनिक हिंदी कविता वह साहसहीन निरीह माध्यम है, जो उस बात को कभी नहीं कह पाती, जो उसे कहना होती है. इसलिए वह अतीत से उदाहरण लाती है और लोकतंत्र के शासक को बहुत बार राजा बताकर अपनी बात कहती है. बहुत बार कहने में थोड़ा-बहुत सफल हो तो अपने अर्थ की वह अभिव्यंजना नहीं कर पाती, जिसे उसे करना था. फिर भी कविता है तो कविता की बात निकलती है और कहीं की कहीं चली जाती है.
इसलिए हम अगर नई कविता के प्रस्थान बिंदु घोषित ‘तार सप्तक’ की ही बात करें तो यह हैरानीजनक तथ्य सामने आएगा कि आज़ादी से कई वर्ष पूर्व निकले इस संग्रह में अंग्रेज़ी शासन विरोधी एक भी कविता नहीं है, जबकि इसके संपादक ख़ुद एक क्रांतिकारी और जेल में रहे कवि थे.
दरअसल, सारा मामला शब्दों और पंक्तियों का है. मामला उस पंक्ति का है, जो संस्कृत के लोगों ने मूल श्लोक से छिपा ली; क्योंकि अब उनकी बहन-बेटियां भी पढ़ती हैं तो उन्होंने संस्कृत श्लोकाें के वे अंश हटा लिए, जो शर्मसार करते थे. इसीलिए आज न महीधर का वेदभाष्य मिलता है और न ही संस्कृत गणित और व्याकरण जैसे नीरस विषयों की वे रसीली पुस्तकें जिनका रस लेने के लिए सदियों पहले युवक चांद की रोशनी में जटिल से जटिल प्रश्न भी हल करते और इरोटिका की उफनती लहरों में तैरते भी. लेकिन अब हमें तो हमारे पुरखों के इस साहित्य पर शर्म आ रही है और पश्चिमी देशों के प्रकाशक इनके अनुवाद प्रकाशित कर मालामाल हो रहे हैं.
लापरवाह लफ़्ज़ों से होने वाली दुर्घटनाएं यही करती हैं. भले वे कविता में हों या कविता की आलोचना में. हमें हमेशा ही शब्दों की ज़रूरत होती है और वही हमें स्पष्टता देते हैं, वही हमें कविताएं लाकर देते हैं और वही हमें तर्क से लेकर तेवर तक सशस्त्र करते और स्मृतियों से लेकर संवेदना तक भिगोते हैं. लेकिन लापरवाह शब्द कहीं भी हों, वे चाहे और अनचाहे विवादों को जन्म देते रहते हैं. शब्दों के साथ जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व का बोध बहुत आवश्यक है.
आजकल कवि, साहित्यकार और राजनीतिक रूप से सचेतन लोग भी अतीत में जाकर उसकी परंपराओं का वर्तमान की कसौटियों पर मूल्यांकन करने लगते हैं. वे वर्तमान के बड़े अत्याचारों पर सहज बने रहते हैं और अतीत की दुर्घटनाओं पर अपनी पैनी निगाहें गड़ाए रहते हैं. वर्तमान के प्रति उनकी यह नि:संगता शब्द के धर्म का द्रोह है.
पिछली सहस्राब्दी या शताब्दी के शब्द पिछली शताब्दी की भाषा के शब्द थे. वे अपना अर्थ वहीं छोड़ आए हैं. भाषा अपने पुराने वस्त्रों को उतारती और जलाती चलती है. अब तो हम ऐसे समय में हैं जब पिछले वर्ष के शब्द पिछले वर्ष की भाषा के शब्द थे और उनके अर्थ भी वहीं छूट गए हैं. कवि अगर कवि है तो उसे अगले साल के शब्दों को आकार देना है. उसे अगले दशक और अगली सदी के शब्दों का शिल्प तैयार करना है.
हम अतीत के शब्दों से भविष्य की भाषा नहीं बना सकते. हमें नई आवाज़ों का इंतज़ार करना होगा. अतीत की कक्षाएं भविष्य को तो क्या ही करेंगी, वर्तमान को भी रेखांकित नहीं कर सकतीं. यह अतीतजीविता अत्याचाराें का प्रदर्शन तो है ही, अत्याचारियों की अप्रस्तुत श्लाघा भी है.
आज जो बेहाल-सा दृश्य है और पूरे परिदृश्य पर सब कुछ बीमार-सा प्रतीत हो रहा है, उसकी बड़ी वजह वर्तमान प्रति नि:संगता ही है. इसीलिए अनामिका की एक सामान्य-सी कविता के एक संदर्भ को लेकर चल रही बहस के भीतर चिंगारियां या अदावत का आह्लाद तलाश करने के बजाय यह देखना ज़रूरी है कि हम शब्दों के प्रति कितने सजग हैं और कितने सचेतन हैं कि कविता के शब्द कभी हमारी स्मृतियों के भीतर भी कभी नहीं गिरें. भले ही वे नारायण पंडित के हितोपदेश के किसी श्लोक के शब्द हों या फिर अनामिका की किसी स्मृति के बिंब से जुड़े.
शब्दों के तारों जड़े आकाश को सिर पर उठाए क्षत-विक्षत हृदय की पुकार बनती कविता ही हमारे मनों पर चांदनी बिखेरती है, जो कक्षाओं के भीतर कभी शिक्षकों की दुष्ट व्याख्याओं की याद दिलाती है और कभी कोई बढ़ई का बेटा अपनी कलम को बसूला बनाकर नींद के भीतर फांस की तरह हमारे सपनों में फंसे काठ के कुपाठ को छीलता है. ऐसा नहीं होता तो हितोपदेश के एक श्लोक से वस्त्र की तरह गिरी एक पंक्ति अनामिका की कविता के भीतर जमे डर और विद्रोह की प्रतिध्वनियों को कैसे हमारे सामने लाती?
यह छोटी-छोटी चूकों पर चली बहस के शब्द ही हैं, जिन्हें हम बादलों की तरह पकड़ लेते हैं और बारिश की तरह निचोड़ लेने की कोशिश करते हैं. साहित्य के भीतर के पाठ भलेे कितने ही कुपाठ समझे जाएं या कितने ही कुपाठों को सुपाठ घोषित किया जाए; लेकिन लिजलिजे साहित्य पर प्रश्न उठाना हमेशा ही ज़रूरी हैं. भले वे बहुत अभिनव हों या बहुत आदिम.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)