निकाय चुनाव परिणाम को मोदी की नीतियों और विकास की जीत बताना महज़ सियासी ज़रूरत है

मेयरों के चुनाव में भाजपा की सफलता को मोदी-योगी के चमत्कारों से जोड़ने वालों को यह भी बताना चाहिए कि किसके चमत्कार से पार्टी निर्दलीयों से भी पीछे रही?

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मेयरों के चुनाव में भाजपा की सफलता को मोदी-योगी के चमत्कारों से जोड़ने वालों को यह भी बताना चाहिए कि किसके चमत्कार से पार्टी निर्दलीयों से भी पीछे रही?

(फोटो: BJP4UP/facebook)
(फोटो: BJP4UP/facebook)

उत्तर प्रदेश के नगर निकायों के चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने मेयरों के 16 में से 14 पद जीत लिये हैं, जिनमें अयोध्या, मथुरा, सहारनपुर तथा फिरोजाबाद के मेयर पद भी शामिल हैं.

गौरतलब है कि भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश की सत्ता में आते ही अपनी ओर से पहल कर इन चारों शहरों की नगरपालिकाओं को नगर निगमों में परिवर्तित कर उनका रुतबा बढ़ा दिया था.

स्वाभाविक ही उनके मतदाताओं ने कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अगले पांच सालों का इन शहरों का भविष्य भाजपा को ही सौंप दिया है. सच पूछिये तो इन नतीजों में एक भी अप्रत्याशित नहीं है.

उलटफेर के नाम पर भी इनमें इतना ही हुआ है कि लस्त-पस्त मानी जा रही बहुजन समाजवादीपार्टी ने, जो गत लोकसभा व प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पायी थी, भाजपा को छकाकर मेरठ व अलीगढ़ के मेयरों की सीटें अपने खाते में डाल ली हैं.

2012 में हुए पिछले नगर निकाय चुनाव में, जब प्रदेश में 12 नगर निगम ही थे, भाजपा के दस मेयर जीते थे. सपा व बसपा वह चुनाव लड़ी ही नहीं थीं और भाजपा व कांग्रेस ही मैदान में थीं. याद रखना चाहिए कि तब न केंद्र में भाजपा की सरकार थी और न प्रदेश में.

इसका साफ अर्थ यह है कि जो लोग इस बार की भाजपा की जीत का श्रेय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस प्रचार अभियान के खाते में डाले दे रहे हैं, जिसे उन्होंने अयोध्या से शुरू किया था, वे न सिर्फ गलती पर हैं बल्कि यह भी भूल रहे हैं कि भाजपा अपने पूर्वावतार जनसंघ के समय से ही शहरों की पार्टी रही है.

उसके शहरी आधार के इतिहास पर जायें तो याद कर सकते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब देश और ज्यादातर प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें हुआ करती थीं, तब भी दिल्ली नगर निगम में आम तौर पर जनसंघ का ही वर्चस्व हुआ करता था.

यकीनन, इन नतीजों ने सिद्ध किया है कि भाजपा अभी भी उस पुराने आधार को बचाये हुए है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस जीत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों और विकासवाद की जीत बता रहे हैं, तो यह उनकी राजनीतिक आवश्यकता या शिष्टाचार मात्र है.

दुनिया के सारे सभ्य लोकतंत्रों में कहा जाता है कि राजनीतिक दलों की हर चुनावी जीत उन्हें नयी जिम्मेदारियों के रूबरू खड़ा करती है, जिनके निर्वाह में उन्हें अनिवार्य रूप से विनम्र बनना और सबको साथ लेकर चलना पड़ता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तो नारा ही है: सबका साथ, सबका विकास. लेकिन उनकी पार्टी की, कम से कम उत्तर प्रदेश में, उलटबांसी यह है कि हर चुनावी जीत के बाद उसका बड़बोलापन बढ़ता जाता है, जिसके कारण वह अपने विपक्ष की खिल्ली उड़ाने से भी बाज नहीं आती.

(फोटो साभार: फेसबुक/बीजेपी उत्तर प्रदेश)
(फोटो साभार: फेसबुक/बीजेपी उत्तर प्रदेश)

इसी बड़बोलेपन के तहत अब वह ऐसी दर्पोक्तियों पर उतर आयी है कि जनता ने नोटबंदी व जीएसटी समेत साढ़े तीन साल पुरानी नरेंद्र मोदी और आठ महीने पुरानी योगी आदित्यनाथ सरकार के सारे कामों पर मुहर लगा दी है. धर्मनिरपेक्षता को आजादी के बाद का सबसे बड़ा झूठ बताने को भी.

भाजपाइयों द्वारा कांग्रेस को चिढ़ाते हुए कहा जा रहा है कि जो राहुल गुजरात के चुनाव को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, वे अपनी अमेठी भी नहीं बचा पाये. लेकिन ऐसा कहते हुए वे अपने गढ़ अयोध्या की ओर नहीं देख रहे, जहां मुश्किल से भाजपा की लाज बच सकी है.

अयोध्या नगर निगम क्षेत्र के सांसद लल्लू सिंह और विधायक वेद गुप्ता दोनों भाजपा के हैं. आठ महीने पहले सत्ता में आने के बाद से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने अयोध्या प्रेम के तहत अब तक चार बार ‘भगवान राम की नगरी’ आकर मत्था टेक चुके हैं.

इतना ही नहीं, हिंदुत्व के अपने खास एजेंडे को धार देने के लिए उन्होंने अयोध्या में गत दीपावली पर बहुप्रचारित ‘त्रेता की वापसी’ कराई और 133 करोड़ रुपयों की लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा भी की.

लेकिन अयोध्या के पहले मेयर के चुनाव में समाजवादी पार्टी के किन्नर प्रत्याशी गुलशन बिंदु ने उनके प्रत्याशी ऋषिकेश उपाध्याय को ऐसा फंसाया कि वे आखिर तक अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाये.

ठीक है कि अंततः कुछ वोटों से बाजी उनके हाथ रही, लेकिन पार्षदों के चुनाव में तो भाजपा को साधारण बहुमत भी नसीब नहीं हुआ.

राममन्दिर आंदोलन के नायक परमहंस रामचंद्रदास के वार्ड से भी वह अपना पार्षद नहीं चुनवा पाई. नगर विधायक वेद गुप्ता के वार्ड से भी नहीं.

इतना ही नहीं, जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या स्थित है, उसकी रुदौली नगरपालिका और भदरसा, बीकापुर और गोसाईगंज नगर पंचायतों के चुनाव में किसी का भी अध्यक्ष पद भाजपा की झोली में नहीं गया.

ऐसे में कैसे कह सकते हैं कि योगी के अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू करने से कोई योगी लहर चली या या ‘मोदी लहर’ अभी तक बरकरार है?

मेयरों के चुनाव में भाजपा की जीत निश्चित ही उसके पुराने आधार की जीत है लेकिन जो लोग इसको नरेंद्र मोदी और योगी के चमत्कारों से जोड़ रहे हैं, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि नगरपालिकाओं व नगरपंचायतों के अध्यक्षों और साथ ही वार्डों के चुनाव में भाजपा को मिली करारी शिकस्त के पीछे किसका चमत्कार है?

किसके चमत्कार से वह निर्दलीयों से भी पीछे रह गई और ‘सबसे बड़ी पार्टी’ बनकर ही खुश होने को अभिशप्त है?

फिर महानगरों ने उसकी सरकारों के किये-धरे पर मुहर लगाई है, लेकिन छोटे शहरों व कस्बों ने ऐसा करने से मना कर दिया है तो उसको बल्लियों उछलने के बजाय इसके खतरों से निपटने की तैयारी में लगना चाहिए. क्योंकि उत्तर प्रदेश की ज्यादातर जनता गांवों में ही रहती है और कस्बे व छोटे शहरों के चुनाव नतीजे ग्रामीणों की मानसिकता का अपेक्षाकृत ज्यादा ठीक-ठाक पता देते हैं.

कई प्रेक्षक तो अभी से कह रहे हैं कि भाजपा ग्रामीण व नगर मतदाताओं की मानसिकताओं के इस अन्तर को पाट नहीं पाई तो डर है कि वह फिर से शहरों की पार्टी बनकर न रह जाये.

हां, उसके सौभाग्य से उसका विपक्ष इन चुनावों में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों से भी ज्यादा बिखरा हुआ था. यहां तक कि कांग्रेस व सपा का विधानसभा चुनावों का बहुप्रचारित गठबंधन भी अस्तित्व में नहीं था.

इसका लाभ उसे इस रूप में मिला कि वह सपा व कांग्रेस को नये सदमे देने में सफल रही. इसके बावजूद वह लस्त-पस्त बहुजन समाज पार्टी का पुनरोदय नहीं रोक पाई और 16 में से दो नगर निगम उसके खाते में चले गये.

ऐसे में पता नहीं कैसे उसे लगता है कि गुजरात के मतदाता उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से प्रभावित होकर या उनके नक्शेकदम पर चलकर उसे एक बार फिर अपने प्रदेश की सत्ता सौंप देंगे.

क्या भाजपा का यह कहना गुजरात के उन मतदाताओं के अपमान से कुछ कम है, जो 22 साल से उसे अपने विवेक से जिताते आ रहे हैं. इस बार उन्हें उत्तर प्रदेशवासियों से विवेक उधार लेने की क्या जरूरत है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं)