बिलक़ीस बानो सामूहिक बलात्कार मामले के 11 दोषियों में से दो ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा है कि एक ‘असामान्य’ स्थिति पैदा हो गई है क्योंकि समान शक्ति रखने वाली शीर्ष अदालत की दो अलग-अलग पीठों ने सज़ा माफ़ी के एक ही मुद्दे पर विपरीत दृष्टिकोण अपनाया है.
नई दिल्ली: बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार मामले के दो दोषियों ने उन्हें मिली सज़ा माफी को रद्द करने के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करते हुए मांग की है कि इस मुद्दे को अंतिम फैसले के लिए एक बड़ी पीठ के पास भेजा जाए.
हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, मामले के 11 दोषियों में से दो- राधेश्याम भगवानदास शाह और राजूभाई बाबूलाल सोनी ने अपनी याचिका में कहा कि एक ‘असामान्य’ स्थिति पैदा हो गई है क्योंकि समान शक्ति रखने वाली शीर्ष अदालत की दो अलग-अलग पीठों ने समय से पहले रिहाई और सजा से छूट के लिए याचिकाकर्ताओं पर राज्य सरकार की कौन सी नीति लागू होगी, के एक ही मुद्दे पर विपरीत दृष्टिकोण अपनाया है.
अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि जहां 13 मई, 2022 को एक पीठ ने गुजरात सरकार को राज्य सरकार की सजा माफ़ी की नीति की शर्तों के संबंध में समय से पहले रिहाई के लिए शाह के आवेदन पर विचार करने का आदेश दिया था, वहीं 8 जनवरी, 2024 को फैसला देने वाली शीर्ष अदालत की ही अन्य पीठ ने निष्कर्ष दिया कि सजा माफ़ी गुजरात नहीं बल्कि महाराष्ट्र सरकार के अधिकारक्षेत्र का मामला था.
ज्ञात हो कि 8 जनवरी को जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने बिलकीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई को ख़ारिज करते हुए कहा था कि गुजरात सरकार के पास उन्हें समय से पहले रिहा करने की शक्ति नहीं थी.इसका यह भी कहना था कि गुजरात सरकार कैदियों के साथ मिली हुई थी और उनकी समय से पहले रिहाई का आदेश देने के लिए इसने अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल किया था.
अब अपनी नई याचिका में शाह और सोनी ने कहा कि अदालत का आदेश कानून और न्यायिक औचित्य के विपरीत था. इसमें यह भी कहा गया है कि बिलकीस ने पहले ही मई 2022 के आदेश के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था. उन्होंने कहा कि पीड़ित के लिए उपलब्ध एकमात्र उपाय क्यूरेटिव याचिका दायर करना है और न कि 13 मई के आदेश पर सवाल उठाने वाली रिट याचिका दायर करना. यह बात रूपा अशोक हुर्रा मामले (2002) में संविधान पीठ के फैसले में कही गई थी.