1781 में बनारस के राजा चेत सिंह की सेना व प्रजा दोनों ने एकजुट होकर अत्याचारी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ऐसी बगावत की थी, जिसमें उनके गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को मुंह छुपाकर भाग जाना पड़ा था. ‘बनारस विद्रोह’ के नाम से जानी जाने वाली उस क्रांति को इतिहास में जगह देने में इतिहासकारों ने बहुत कंजूसी की है.
‘चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी.’ कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने भले ही अपनी कविता की यह पंक्ति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का बखान करते हुए रची हो, यह देश के 1857 के समूचे स्वतंत्रता संग्राम की सर्वथा असंदिग्ध सच्चाई है. निस्संदेह, उस स्वतंत्रता संग्राम में देश जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के क्रूर अंग्रेजी राज के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था, वह पिछली एक सदी से चली आ रही उसकी खदबदाहट का ही नतीजा था. यह खदबदाहट ही थी, जिसके चलते 1857 से 76 साल पहले 1781 में बनारस के राजा चेत सिंह की सेना व प्रजा दोनों ने एकजुट होकर अत्याचारी अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी बगावत की थी, जिसमें उनके गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को मुंह छुपाकर भाग जाना पड़ा था.
दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने ‘बनारस विद्रोह’ के नाम से जानी जाने वाली उस बगावत को इतिहास में जगह देने में बहुत कंजूसी की है.
दरअसल, 1770 में चेतसिंह, जिनका नाम कहीं-कहीं चैत सिंह लिखा मिलता है, अपने पिता बलवंत सिंह की जगह काशी नरेश यानी बनारस के राजा बने तो बक्सर की 22-23 अक्टूबर, 1764 की लड़ाई में मुगल बादशाह व नवाबों को एक साथ धूल चटा चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी का इकबाल बुलंद था, जबकि अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने, चेत सिंह बनारस में जिनकी बिना पर राजकाज चलाते थे, अपना इकबाल खोकर फैजाबाद को राजधानी बना लिया था और कंपनी का शर्तों पर दिन काट रहे थे. पांच साल बाद 1775 में उनके अंतिम दिनों में कंपनी ने उन पर नई संधि का दबाव डाला तो उनकी ओर से चेत सिंह को उससे ‘बनारस की दूसरी संधि’ करनी पड़ी.
इस संधि के तहत चेत सिंह को कंपनी को हर साल लाजिमी तौर पर साढ़े बाईस लाख रुपये नजराना देना था और कंपनी वचनबद्ध हुई थी कि न वह कभी उनसे अतिरिक्त रकम की मांग करेगी, न उनके राज्य की शांति भंग करेगी, न ही राज-काज में दखल देगी.
लेकिन शुजाउद्दौला के देहांत के बाद उनके बेटे आसफउद्दौला के गद्दी संभालते ही कंपनी ने अपने सारे पुराने वचन भुलाकर अतिरिक्त रकम की मांग आरंभ कर दी. उसने 1775 में शुरू हुए पहले कंपनी-मराठा युद्ध को इसका बहाना बनाया, जिसमें मराठे उस पर भारी पड़ रहे थे. गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की मंशा थी कि उक्त युद्ध से कंपनी पर जो अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ रहा है, उसे उसके अधीनस्थ नवाब व राजा सब मिलकर उठाएं. उसके अनुसार बनारस की दूसरी संधि में इसका प्रावधान भी था.
1778 में उसने इसी बिना पर चेत सिंह से पांच लाख रुपयों की अतिरिक्त मांग कर डाली और उसे पूरी करने में असमर्थता जताने पर पांच दिनों में अदायगी अन्यथा अंजाम भुगतने का अल्टीमेटम दे डाला. चेत सिंह के समक्ष ‘मरता क्या न करता’ की स्थिति पैदा हो गई तो उन्होंने जैसे-तैसे वे पांच लाख रुपये अदा कर दिए. लेकिन यह तो महज शुरुआत थी. अगले वर्ष हेस्टिंग्स ने उनसे फिर पांच लाख रुपये अतिरिक्त देने को कहा और उनके असमर्थता जताने पर क्रुद्ध होकर बीस हजार रुपये का हर्जाना भी लगा दिया.
1780 में उसने फिर पांच लाख रुपये अतिरिक्त मांग की तो चेत सिंह ने अपने एक विश्वासपात्र के हाथों उसे व्यक्तिगत तौर पर दो लाख रुपये भिजवाए और रहम की प्रार्थना की. लेकिन देसी राजाओं से रिश्वत वसूलने के लिए बदनाम हेस्टिंग्स उन पर नहीं पसीजा, तो नहीं ही पसीजा.
उसने विश्वासपात्र से वे दो लाख रुपये तो ले ही लिए, चेत सिंह से भारी हर्जाने के साथ पांच लाख अतिरिक्त भी वसूल लिए. युद्ध के लिए एक हजार घुड़सवार भेजने का फरमान अलग से दे डाला. चेत सिंह इसके आधे यानी पांच सौ घुड़सवार और पांच सौ पैदल सिपाही ही उपलब्ध करा पाए, तो उन पर भारी जुर्माना थोप दिया और धमकाया भी.
अगस्त, 1781 में वह अचानक कलकत्ता स्थित कंपनी के मुख्यालय से चार कंपनी सेना के साथ अपनी धमकी पर अमल करने बनारस आ धमका और गोला दीनानाथ के निकट स्थित माधोदास सातिया के बाग में पड़ाव डाला. चेत सिंह की तमाम चिरौरी-मिनती के बावजूद उसने उनसे मिलने से मना कर दिया और उन्हें बागी करार देकर 16 अगस्त को उनके ही महल में नजरबंद करा दिया.
लेकिन उसका दांव उल्टा पड़ा. हुआ यह कि जैसे ही चेत सिंह की नजरबंदी की खबर फैली, उनकी सेना का खून उबाल खाने लगा. उसने बिजली की गति से हमला बोलकर पहले तो चेत सिंह को घेरे खड़े अंग्रेज सैनिकों को मार डाला, फिर हेस्टिंग्स के साथ आए अधिकतर अंग्रेज अफसरों की भी जान ले ली. अंग्रेज सेना जब तक संभलकर मोर्चा संभालती, हालात पूरी तरह उसके विरुद्ध हो चुके थे और अनेक बनारसवासी भी, उनके पास जो भी हथियार थे, उन्हीं को लेकर उस पर पिल पड़े थे. उन्होंने रास्तों पर चौतरफा बाधाएं खड़ी कर उसके पास पीछे लौटने का विकल्प भी नहीं रहने दिया था. कहते हैं कि उस रोज बनारस की कई संकरी गलियों भी इस युद्ध की गवाह बनी थीं.
इस बीच हेस्टिंग्स के पड़ाव की भी घेराबंदी शुरू कर दी गई और उसके पास ही नए हमले की तैयारी की खबर आने लगी, तो मुहावरे की भाषा में कहें तो हेस्टिंग्स को यह सोचकर नानी याद आने लगी कि अब उसके प्राण संकट में हैं. सो, घबराहट में भेष बदलकर मारे जा चुके व घायल गोरे सैनिकों के साथ अपना सारा साजो-सामान व रसद वगैरह छोड़कर वह चुनार के किले की ओर भागा. इसके लिए उसने अपना कोट, पैंट व हैट उतारकर आम भारतीय स्त्री का रूप धरा और एक पर्देदार पालकी में जा बैठा, जिसे कहारों से यह कहकर लाया गया था कि ‘बीबी जी को देवी-दर्शन के लिए विंध्याचल जाना है.’
उसके यों मैदान छोड़ते ही सारा बनारस नाना अफवाहों के हवाले हो गया. एक अफवाह यह भी थी कि हेस्टिंग्स को मार डाला गया है और चेत सिंह के किले के प्रवेशद्वार पर उसका सिर व दाहिना हाथ लटके देखे गए हैं.
अफवाहों के बीच ही बनारसियों की भारी करतल-ध्वनि के बीच चेत सिंह फिर से राजसिंहासन पर बैठे. आगे चलकर जानें किस कवि ने हेस्टिंग्स का मजाक उड़ाते हुए दो काव्य पंक्तियां रचीं- ‘घोड़े पै हौदा, हाथी पै जीन, ऐसे भागा, वारेन हेस्टीन- तो लोगों ने उन्हें अरसे तक अपनी स्मृतियों में जिंदा रखा. इन पंक्तियों का अर्थ यह है कि बनारस में घिरे हेस्टिंग्स को ऐसी घबराहट हुई कि जो हौदा हाथी पर रखा जाता है, उसे घोड़े पर रखवाने और जो जीन घोड़े पर कसी जाती है, उसे हाथी पर कसवाने लगा.
बनारस के इस विद्रोह की प्रतिक्रियाएं अवध के दूसरे शहरों में ही नहीं, गांवों तक में हुईं. गोरी फौज के अनेक देसी सैनिकों ने अपनी चौकियां छोड़ दीं और राजाओं व जमींदारों ने अपनी भृकुटियां टेढ़ी कर लीं. लेकिन दूसरी ओर शर्मिंदगी से भरा हेस्टिंग्स चुनार के किले में अपनी हार को जीत में बदलने का नया मौका ताड़ रहा था. जैसे ही वह मौका उसके हाथ आया, उसने कई गुनी अंग्रेजी फौज के साथ बनारस पर दोबारा धावा बोला.
चेत सिंह की सेना ने पहले तो उसका मुकाबला किया, लेकिन जीत असंभव हो गई तो पगड़ियों को बांधकर बनाई गई रस्सी के सहारे चेत सिंह को किले की चहारदीवारी से गंगा में कुदाया और एक सैन्य टुकड़ी के साथ नाव से इलाहाबाद की ओर भेज दिया. इलाहाबाद व रीवां के रास्ते वे ग्वालियर जा पहुंचे, जहां महाद जी सिंधिया ने उन्हें शरण दी. उसके बाद वे कभी बनारस नहीं लौट पाए.
इधर हेस्टिंग्स को चेत सिंह के किले में घुसने के बाद बड़ी निराशा हुई क्योंकि उनके खजाने में उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा. कहते हैं कि उसकी सेना ने सारा खजाना पहले ही लूट लिया था. तब बुझे हुए मन से उसने उनका राजपाट उनके किशोरवय के भांजे को सौंप दिया-अलबत्ता, अपनी शर्तों पर.
हेस्टिंग्स को लगा कि चेत सिंह को फैजाबाद में रह रही अवध की दो बेगमों- बहू बेगम व नवाब बेगम- की, जो चेत सिंह की ही तरह कंपनी की बार-बार की अतिरिक्त रकम की मांग से पीड़ित थीं, शह व समर्थन प्राप्त था, तो वह उनके भी उत्पीड़न पर उतर आया. कंपनी को भेजी एक रिपोर्ट में उसने लिखा कि दोनों बेगमें खुले तौर पर चेत सिंह का समर्थन करती थीं.
दरअसल, उसके अमले ने उसे बताया था कि इन बेगमों के वफादार किन्नरों ने चेत सिह जैसी बगावत के लिए फैजाबाद में भी सैनिकों की भर्ती की थी. वे वहां अंग्रेजों को सामान बेचने से रोकते थे और उन्होंने अंग्रेजों की डाक रिले प्रणाली को अक्षम कर डाला था. कंपनी के जो भी सैन्य दस्ते बिछड़ या अलग-थलग पड़ जाते, वे उन पर हमले भी करते थे- बंगाल से आने वाली गोरी सेना पर भी.
हेस्टिंग्स ने इन सूचनाओं की कोई भी जांच पड़ताल कराए बिना बहू-बेगम को कुसूरवार ठहराकर उनकी अनेक जमीनें व जागीरें जब्त कर लीं, जो बाद में लंबी ‘कानूनी’ लड़ाई के बाद उन्हें वापस करनी पड़ीं. लेकिन उनके वफादार किन्नरों में से कई की जिंदगी कैद में ही बीती. हेस्टिंग्स ने 28 जनवरी, 1782 को बहू बेगम के बेटे नवाब आसफउद्दौला के साथ मिलकर फैजाबाद में उनके महल की सैन्य घेराबंदी और ‘लूटपाट’ भी करा डाली.
बाद में चेत सिंह और बेगमों के प्रति व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना से की गई उसकी कार्रवाइयों की ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा भर्त्सना की गई, लेकिन उनके पीड़ितों के लिए उसका कोई हासिल नहीं था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)