अगर लोक ही नहीं चाहता कि लोकतंत्र बचे और सशक्त हो, तो उसे कौन बचा सकता है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पटना के बिहार म्यूज़ियम में ‘वा घर सबसे न्यारा’ शीर्षक से कुमार गंधर्व जन्मशती का दो दिनों का उत्सव हाल ही में संपन्न हुआ. उसमें कुमार जी पर बोलने और उन पर अपनी कुछ कविताएं सुनाने का सुयोग मिला. अवधि पहले एक घंटे की थी पर वह घटाकर आधी हो गई. यह भी पता चला कि पहले एक सुबह पूरा परिसंवाद आयोजित होने वाला था पर वह नहीं हुआ. यह हिंदी अंचल में संभव है- होता रहता है.

शास्त्रीय संगीत के जो आयोजन होते हैं, उनमें रसास्वादन के लिए श्रोता तो आ जाते हैं पर संगीत पर विचार सुनने की उन्हें ज़रूरत नहीं लगती, उसके लिए उनके पास समय और धीरज नहीं होते. कहने की ज़रूरत नहीं कि हमारा शास्त्रीय संगीत अपने वितान, अंतर्ध्‍वनियों, आशयों आदि में तो विपुल है पर उस पर हिंदी अंचल में विचार अल्प ही कहा जा सकता है.

हिंदी की बढ़ती सांस्कृतिक और बौद्धिक विपन्नता का साक्ष्य यह भी है कि हिंदुस्तानी संगीत की प्रायः सभी धारा उत्तर भारत में जन्मीं और विकसित हुईं और अब वहां से लगभग पूरी तरह ग़ायब हो चुकी हैं. इस समय इस संगीत के बड़े गायकों-वादकों में मूलतः हिंदीभाषी बहुत कम हैं, ज़्यादातर मराठी-कन्नड़-बांग्ला भाषी हैं.

संगीत पर इसी अंचल में पहले विचार हुआ है. ठाकुर जयदेव सिंह, प्रेमलता शर्मा और मुकुंद लाठ जैसे संगीतवेत्ताओं ने बहुत कुछ हिंदी में ही लिखा है. लेकिन उनका उत्तराधिकार लगभग समाप्त हो गया. आज हिंदी में संगीत पर क़ायदे से, समझ और संवेदना से, विचार करनेवाले लगभग नगण्य है. पंकज पराशर जैसे इक्के-दुक्के अपवाद मात्र हैं. इस क्षेत्र में सर्जनात्मक विपुलता और बौद्धिक अल्पता का एक साथ होना गहरी विडंबना है.

ऐसा नहीं है कि ऐसे बौद्धिक उद्यम के लिए कोई संस्थागत ढांचा हिंदी अंचल में नहीं हैं. संगीत पर एकाग्र कई विश्वविद्यालय हैं, केंद्र और अकादमियां हैं, बड़ी संख्या में विद्यालय हैं. उनके दशकों से सक्रिय रहने के बावजूद संगीत पर गहन विचार की न तो कोई परंपरा बन पाई है और न ही कोई उल्लेखनीय संगीत-बौद्धिक उभरा है जिसे अखिल भारतीय क़द का माना जाता हो.

एक उदाहरण यह भी है कि रज़ा फाउंडेशन ने जब शास्त्रीय संगीत और नृत्य पर एकाग्र पत्रिका ‘स्वरमुद्रा’ निकाली तो उसके पहले अंक के बाद कई वर्ष उसके कोई अंक नहीं निकल सके क्योंकि ‘हम अनुवाद नहीं, मौलिक सामग्री ही हिंदी में प्रकाशित करेंगे’ इस आग्रह ने सामग्री का घोर अभाव सुनिश्चित और साबित किया. उसका हाल ही में प्रकाशित कुमार गंधर्व पर विशेषांक, जो ग्यारह सौ पृष्ठों का होकर किसी शास्त्रीय संगीतकार पर अब तक भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किसी पत्रिका का सबसे बड़ा और अभूतपूर्व विशेषांक है, अधिकांशतः दूसरी भाषाओं से हिंदी अनुवाद से संभव हुआ है.

नागरिक साहस

बुद्धिजीवी और विश्लेषक प्रताप भानु मेहता ने हाल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दो महत्वपूर्ण निर्णयों की समीक्षा करते हुए इस समय की राजनीतिक संस्कृति में नागरिक साहस के अभाव की बात की है. यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियां द्वारा प्रायः हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर लगा है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.

यह सिर्फ़ नागरिक साहस का अभाव नहीं, नागरिक समझ और ज़िम्मेदारी का अभाव भी दर्शाता है. यह बहुत भयानक निष्कर्ष निकालने से हम बहुत दूर नहीं रह गए हैं कि अगर लोक ही नहीं चाहता कि लोकतंत्र बचे और सशक्त हो तो लोकतंत्र को कौन बचा सकता है? अगर लोक का एक बड़ा हिस्सा लाभार्थी होकर संतुष्ट और प्रसन्न है और उसे अनेक झूठे गौरव आकर्षित कर रहे हैं तो लोकतंत्र को तजने से उसे रोक सकने की कोई राजनीति परिदृश्य पर सक्रिय दिखाई नहीं देती.

सच तो यह कि बड़े पैमाने पर धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि की प्रवृत्तियों का प्रभाव-प्रसार बढ़ रहा है और, नतीजन, कुल मिलाकर, नागरिकता सिकुड़ रही है. लगता है कि एक बड़ा तमाशा चल रहा है और नागरिक उसमें तमाशबीन होकर शामिल हैं और उससे अपना मनोरंजन करने में लगे हैं. ख़ासकर मध्य वर्ग, उसका पढ़ा-लिखा हिस्सा, इस तमाशे का सुघर आयोजक और उसका सक्रिय उपभोक्ता है. उसे तुरत लाभ, तुरत सफलता चाहिए और उसका किन्हीं मूल्यों से कोई संबंध नहीं रह गया है.

अब यह समाज मूल्यविमूढ़ और मूल्यहीन दोनों ही है. हमारी विडंबना यह है कि मूल्य घट रहे हैं, क़ीमतें बढ़ रही हैं. हम नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक ऐसी स्थिति में हैं कि जल्दी ही रसातल में होंगे. रसातल नरक नहीं, नया स्वर्ग होगा!

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)