दस्तावेज़ बताते हैं कि इज़रायल और हिंदू दक्षिणपंथियों के बीच 60 के दशक से ही गहरे संबंध रहे हैं

इज़रायली विदेश मंत्रालय के दस्तावेज़ों से पता चलता है कि इज़रायली राजनयिक भारतीय हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथियों को 'फासीवादी' समझते थे. साथ ही, वे ऐसा मानते थे कि उनकी विचारधारा मुसलमानों से नफ़रत पर आधारित है, फिर भी उन्होंने दक्षिणपंथियों के साथ सावधानीपूर्वक संबंध बनाए रखे.

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इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो. (फोटो साभार: Haim Zach/Government Press Office, Israel)

इज़रायली विदेश मंत्रालय के दस्तावेज़ों से पता चलता है कि इज़रायली राजनयिक भारतीय हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथियों को ‘फासीवादी’ समझते थे. साथ ही, वे ऐसा मानते थे कि उनकी विचारधारा मुसलमानों से नफ़रत पर आधारित है, फिर भी उन्होंने दक्षिणपंथियों के साथ सावधानीपूर्वक संबंध बनाए रखे.

इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो. (फोटो साभार: Haim Zach/Government Press Office, Israel)

नई दिल्ली: इजरायली विदेश मंत्रालय के अवर्गीकृत (Unclassified) दस्तावेजों के अनुसार, इजरायली राजनयिक 1960 के दशक की शुरुआत से ही भारत में हिंदू दक्षिणपंथियों के साथ संबंध विकसित करते रहे हैं, इस सहयोग से जन संघ और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य कथित तौर पर देश भर में रैलियां और विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं.

रिकॉर्ड बताते हैं कि 1970 के दशक में इजरायली वाणिज्य दूतावास में एक अप्रत्याशित अतिथि गोपाल गोडसे थे, जिन्होंने अपने भाई नाथूराम गोडसे – जिसने महात्मा गांधी की हत्या की थी – के बचाव में अपने भाषण छापने और प्रसारित करने में सहायता मांगी थी. यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया था.

पिछले दो वर्षों में राष्ट्रीय अभिलेखागार में जारी किए गए विदेश मंत्रालय के दस्तावेजों के आधार पर इजरायली अखबार हारेत्ज़ द्वारा प्रकाशित मानवाधिकार और सूचना की स्वतंत्रता कार्यकर्ता ईटे मैक की एक विस्तृत रिपोर्ट भारत के कट्टर दक्षिणपंथियों, विशेष रूप से भाजपा और इसके पूर्ववर्ती जनसंघ, के साथ इजरायल के संबंधों का विवरण पेश करती है.

राजनयिक टेलीग्राम दिखाते हैं कि जहां इजरायली राजनयिकों ने स्पष्ट रूप से कट्टर दक्षिणपंथियों को ‘फासीवादी’ बताया था और माना था कि उनकी विचारधारा मुसलमानों से नफरत पर आधारित है, फिर भी उनसे सावधानीपूर्वक संबंध भी बनाए रखे.

भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इजरायल को मान्यता दी थी, लेकिन राजधानियों में दूतावासों के उद्घाटन के साथ पूर्ण पैमाने पर राजनयिक संबंध 1992 में ही बने. उन 40 वर्षों के दौरान भारत में इजरायल का प्रतिनिधित्व मुंबई स्थित वाणिज्य दूतावास करता था.

हारेत्ज़ रिपोर्ट में जून 1965 के टेलीग्राम का हवाला दिया गया है, जब बॉम्बे में तत्कालीन वाणिज्य दूत पेरेट्ज़ गॉर्डन ने इजरायली विदेश मंत्रालय को लिखा था कि ‘आज और भविष्य में भी हिंदू मुस्लिमों से इसी तरह डरते और नफरत करते रहेंगे.’ उन्होंने आगे दावा किया था कि विपक्षी भाजपा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दक्षिणपंथी हलकों में ‘इसे विभिन्न रूपों में और यहां तक कि खुले तौर पर समर्थन मिलता है.’

एक साल से भी कम समय के बाद गॉर्डन ने 26 अप्रैल 1966 को भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने की सिफारिशों के बारे में लिखा, जिसमें ‘सरकार के विरोध में प्रदर्शन आयोजित करने के उद्देश्य से विपक्षी तत्वों के साथ गुप्त संचार’ शामिल था.

15 अगस्त 1966 को भारत के स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ पर राजनीतिक-आर्थिक योजना विभाग के प्रमुख इलान आर्येह ने विदेश मंत्रालय की एक बैठक में सुझाव दिया कि ‘जनसंघ पार्टी के साथ (संभवत: मोसाद के माध्यम से) सावधानी से संपर्क होना चाहिए.’

बैठक के दौरान विदेश मंत्रालय के एक अन्य अधिकारी ने कहा कि इजरायली राजनयिक पहले से ही जनसंघ पार्टी के संपर्क में हैं, लेकिन उन्होंने ‘एक चरम राष्ट्रवादी पार्टी, जिसके सत्ता में आने या गठबंधन की कोई संभावना नहीं है, के साथ संबंधों को मजबूत करने की किसी गुंजाइश पर संदेह जताया.

14 मार्च 1967 को इजरायली राजनयिक ने एक टेलीग्राम में लिखा कि जनसंघ ने अपने घोषणापत्र में इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों की मांग शामिल की है. दो महीने बाद नेपाल में इजरायली राजदूत मोशे अरेल ने 22 मई 1967 को तेल अवीव को सूचना दी कि उनकी काठमांडू में जनसंघ सांसद एमएल सोंधी से मुलाकात हुई थी.

चूंकि सोंधी नई दिल्ली से सांसद थे, उन्होंने कहा कि ‘दिल्ली क्षेत्र में स्थानीय सरकार जनसंघ के हाथों में चली गई है.’

हारेत्ज़ में उल्लिखित इजरायली राजदूत के टेलीग्राम के अनुसार, सोंधी ने समझाया कि ‘अब इजरायली संदर्भ में भारत सरकार को विभिन्न परीक्षणों में डालना संभव है, जिसका परिणाम मौजूदा इजरायल विरोधी नीति को कमजोर करना होगा.’

कुछ महीने बाद जनवरी 1968 में जब सोंधी नोम पेन्ह में थे, तो वहां उनकी मुलाकात कंबोडिया में इजरायल के राजदूत राफेल बेन शालोम से हुई. शालोम ने लिखा कि भारतीय सांसद ने उन्हें बताया है कि वह इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों के समर्थन में ‘लाखों लोगों का विरोध प्रदर्शन’ आयोजित करने के लिए तैयार हैं.

इसके अलावा, वाणिज्य दूतावास ने ‘इजरायल के साथ भारत के असामान्य संबंधों के मुद्दे पर भारत सरकार की आलोचना और उसे शर्मिंदा करने के इरादे से जनसंघ के सांसदों से पूछताछ की.’

इजरायली राजनयिकों को अपनी सलाह में सोंधी ने कथित तौर पर यह भी सुझाव दिया कि इजरायल को ‘भारत में अपने बिचौलिए को बदल देना चाहिए क्योंकि वह ताइवान के लिए भी मध्यस्थता करता है.’

30 अक्टूबर 1985 को इजरायली वाणिज्य दूतावास से विदेश मंत्रालय को भेजे गए एक अन्य टेलीग्राम में एक बिचौलिए का उल्लेख है जिसने धुर-दक्षिणपंथी दलों के साथ बैठक आयोजित कराई थी, जिसे इजरायल से बड़ा भुगतान मिला करता था.

जनसंघ के अलावा मुंबई में इजरायली वाणिज्य दूत रूवेन डैफनी ने शिव सेना पार्टी से भी संपर्क बनाए रखा. 1968 में डैफनी के एक टेलीग्राम में शिव सेना को ‘स्पष्ट लोकप्रिय फासीवादी’ बताया गया और कहा गया कि ‘इसने जर्मनी और ऑस्ट्रिया में 30 के दशक में किए गए नाजियों के प्रदर्शन की शैली में ही प्रदर्शन किया, जिनमें मुख्य तौर पर विदेशी दुकानों की खिड़कियां तोड़ना, विभिन्न कार्यस्थलों से विदेशी श्रमिकों को भगाना आदि शामिल है.’

उन्होंने फरवरी 1969 में एक अन्य टेलीग्राम में समानताएं दोहराईं, जहां उन्होंने कहा कि बॉम्बे दंगे शिव सेना द्वारा भड़काए गए थे, जिसकी ‘स्पष्ट फासीवादी नींव’ है.

अक्टूबर 1973 में योम किप्पर (यहूदी त्योहार) के दौरान ‘इजरायल वाणिज्य दूतावास के समन्वय’ से शिवसेना और जनसंघ की भागीदारी के साथ इज़रायल के समर्थन में बॉम्बे में एक रैली आयोजित की गई थी. इज़रायली वाणिज्य दूत जोशुआ ट्रिगोर ने लिखा था कि शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे और जनसंघ के एक सांसद ने इज़रायल के समर्थन में भाषण दिए.

हिंदू महासभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साथ एक बैठक का जिक्र करते हुए ट्रिगोर ने नवंबर 1973 में लिखा था कि महासभा के नेतृत्व ने उन्हें एक विस्तृत रिपोर्ट दी है कि कैसे उन्होंने योम किप्पर युद्ध (अरब-इजरायल के बीच हुई जंग) के दौरान इजरायल समर्थक भाषण दिए और प्रदर्शन किए. ट्रिगोर ने लिखा था कि ‘यह अच्छा है कि वे भी हमारे साथ सहानुभूति रखते हैं – भले ही इसका एक कारण मुसलमानों के प्रति उनकी नफरत हो.’

हिंदू महासभा से जुड़ाव के चलते इजरायली वाणिज्य दूतावास की मुलाकात गोपाल गोडसे से हुई, जो महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का भाई था. गोपाल गोडसे को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन 1965 में रिहा कर दिया गया था.

अपनी रिपोर्ट में इजरायली राजनयिक गिदोन बेन अमी ने मुस्लिमों के प्रति गोडसे की नफरत और उनके द्वारा अपने भाई नाथूराम गोडसे के बचाव में अपने भाषण को छापने और प्रसारित करने में सहायता मांगने का जिक्र किया था.

हारेत्ज़ लेख में कहा गया है, ‘बेन अमी ने लिखा कि उन्होंने दृढ़ता से प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था और गोपाल गोडसे के साथ वैचारिक विवाद में पड़ने से परहेज किया था. उनकी शर्मिंदगी इस तथ्य के कारण थी कि गांधी के हत्यारे के भाई ने वाणिज्य दूतावास का दौरा किया था, न कि वाणिज्य दूतावास के दक्षिणपंथियों से संबंध के कारण.’

ट्रिगोर ने 1973 में जनसंघ के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी के साथ दिल्ली में बैठक का भी जिक्र किया.

आपातकाल के वर्षों के दौरान इजरायली राजनयिकों को जनसंघ और अन्य दक्षिणपंथी दलों के साथ संपर्क बनाए रखने में कठिनाई हुई, क्योंकि उनके नेता भूमिगत हो गए थे या गिरफ्तार कर लिए गए थे. लेकिन जब 1977 में जनता गठबंधन सत्ता में आया तो जनसंघ केंद्र में आ गया.

वाशिंगटन में इजरायली राजदूत डेविड तुर्गमैन ने 25 मार्च 1977 को अपने टेलीग्राम में लिखा था कि वरिष्ठ अमेरिकी राजनयिक, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के थॉमस थॉर्नटन उन्हें बताया था कि ‘दक्षिणपंथी जनसंघ अपने मुस्लिम विरोधी हिंदू स्वभाव के कारण इजरायल का समर्थक है.’

अप्रैल 1977 के एक आंतरिक राजनयिक टेलीग्राम में तत्कालीन जनता सरकार में विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी जिक्र है.

एक अन्य टेलीग्राम के अनुसार, विदेश विभाग के एक अमेरिकी अधिकारी ने अपने इजरायली वार्ताकार को यह भी समझाया कि ‘जनसंघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ उसके घनिष्ठ संबंधों के कारण सफल है.’ उन्होंने चुनावी सफलता का कारण आरएसएस की जनता के बीच पकड़ को बताया था. 1979 के एक टेलीग्राम में आरएसएस के सदस्यों को ‘फासीवादी’ बताया गया है.

1977 के एक टेलीग्राम में भारत में सांप्रदायिक दंगों में बढ़ोतरी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ संरक्षक और परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के खिलाफ लगे आरोपों का भी जिक्र है.

अप्रैल 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के गठन के बाद तत्कालीन इजरायली वाणिज्य दूत हैम डिवोन ने एक टेलीग्राम में लिखा था कि नई पार्टी ‘वास्तव में भाजपा के भेष में जनसंघ ही है.’

जनता सरकार के गिरने के बाद यह बात सामने आई थी कि इज़रायली विदेश मंत्री ने 1977 में भारत की गुप्त यात्रा की थी और प्रधानमंत्री मोराजी देसाई से मुलाकात की थी.

जुलाई 1981 में इजरायली वाणिज्य दूत योसेफ हसन ने रिपोर्ट दी कि उन्होंने वकील और भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष राम जेठमलानी से इजरायल के साथ संबंधों पर एक आंतरिक पार्टी पेपर लिखने के लिए कहा था.

जून 1982 में इजरायली विदेश मंत्रालय के एशिया विभाग द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट में भारत के साथ इजरायल के संबंधों के अवलोकन में कहा गया कि ‘हमारे पक्ष में काम करने वाले कारकों’ में ‘हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का होना’ शामिल था, जिससे मुस्लिम विरोधी दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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