भाजपा ने उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट (जिसके अंतर्गत अयोध्या आती है) पर अपने दो बार के सांसद लल्लू सिंह को ही तीसरी बार टिकट दिया है. ऐसे में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद चर्चा में आई अयोध्या में चुनावी मुक़ाबले में नएपन की उम्मीद कर रहे लोगों को ख़ासी नाउम्मीदी हुई है.
अयोध्या में भगवान राम के ‘पांच सौ साल पुराने इंतजार’ के खात्मे और अधबने मगर ‘भव्य’ मंदिर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों उनकी बहुप्रचारित प्राण-प्रतिष्ठा की बिना पर आगामी लोकसभा चुनाव में देश भर में धमाचौकड़ी का मंसूबा पाले बैठी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट (जिसके अंतर्गत अयोध्या आती है) पर अपने दो बार के सांसद लल्लू सिंह को ही तीसरी बार भी यानी फिर से मैदान में उतारकर लगभग तय कर दिया है कि धमाचौकड़ी के उसके मंसूबे का शेष देश में जो भी हाल हो, अयोध्या उसमें ‘भागीदार’ कम होगी, ‘दर्शक’ ज्यादा.
दूसरे शब्दों में कहें, तो उसके इस फैसले ने अयोध्या में चुनावी मुकाबले की गर्मी उसके शुरू होने से पहले ही खत्म कर दी है. रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही न सिर्फ अयोध्या बल्कि देश भर में ‘रामराज्य स्थापित हो जाने’ के उसके दावे के मद्देनजर इस मुकाबले में नएपन की उम्मीद कर रहे लोगों को स्वाभाविक ही इससे बहुत नाउम्मीदी हुई है.
लेकिन इस नाउम्मीदी पर जाने से पहले एक दिलचस्प ज़िक्र.
आजकल अयोध्या में लोकसभा चुनाव की चर्चा शुरू होते ही लोग कहने लगते हैं कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार का वश चलता तो यह लोकसभा सीट आज फैजाबाद के नाम से नहीं ही जानी जाती. कब की अयोध्या लोकसभा सीट हो गई होती.
उनका कहना निराधार भी नहीं है.
योगी सरकार ने पिछले वर्षों में फैजाबाद मंडल और जिले का ही नहीं, नगर और रेलवे स्टेशन तक का नाम अयोध्या कर डाला है. इसको लेकर उसके समर्थक इस ‘सोच’ के तहत प्रायः ‘मुदित’ व ‘आह्लादित’ होते रहते हैं कि अब उन्हें यह बताने की ‘शर्म’ से पूरी तरह छुटकारा मिल गया है कि ‘उनकी’ अयोध्या फैजाबाद मंडल, जिले, नगर या रेलवे स्टेशन में अथवा उसके पास स्थित है.
कई बार वे यह दावा करके भी खुश होते हैं कि नए भारत की उनकी नई अयोध्या में फैजाबाद को इस कदर औकात बता दी गई है कि उसकी कहीं कोई जगह ही नहीं रह गई है. फैजाबाद में तो, जैसे भी सही, अयोध्या की जगह बरकरार थी, लेकिन नई अयोध्या में फैजाबाद ढूंढते रह जाओगे.
अब कई लोग इन समर्थकों से यह पूछकर मजा लेते दिख रहे हैं कि फैजाबाद लोकसभा सीट का नाम उन्हें याद नहीं रह गया था या उसका नाम बदलने में उनका वश नहीं चला? आखिरकार क्यों यह ‘शर्म’ अभी भी उनके हिस्से में बची हुई है कि उनकी अयोध्या, फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र में है.
बहरहाल, भाजपा सांसद लल्लू सिंह पिछले दो चुनावों से यह सीट जीतते आ रहे हैं और उनके शुभचिंतक अभी भी पार्टी के अंदर अथवा बाहर उनके लिए कहीं कोई बड़ी चुनौती नहीं देखते. इसके बावजूद कि पिछले दिनों अयोध्या में ‘त्रेता की वापसी’ के सरकारी अभियान का भारी धमक के साथ आगाज हुआ तो उसके सिलसिले में शुरू हुई दो चर्चाएं पूरी तरह उनके खिलाफ थीं.
इनमें पहली अयोध्या में सड़कों को चौड़ी करने के अभियान में घरों, पूजा-स्थलों, दुकानों व प्रतिष्ठानों वगैरह की व्यापक तोड़फोड़ और उससे उपजे असंतोष से जुड़ी हुई थी. कहा जा रहा था कि भाजपा की प्रदेश व केंद्र सरकारें इस असंतोष को इसलिए बहुत कान नहीं दे रहीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस तोड़-फोड़ के बाद अयोध्या को नया रूप देकर भाजपा देश भर में दिग्विजय करती हुई अयोध्या आकर फैजाबाद लोकसभा सीट हार भी जाए तो यह उसके निकट सौदा घाटे का नहीं होगा.
लेकिन गत 22 जनवरी को सफल प्राण-प्रतिष्ठा के बाद चली दूसरी चर्चा इसका विलोम बन गई.
यह कि अब भाजपा अपने मानबिंदु अयोध्या यानी फैजाबाद लोकसभा सीट से अपने किसी दिग्गज को चुनाव लड़ाएगी और लल्लू का पत्ता कट जाएगा. गोदी मीडिया के कई सदस्य यह तक कह रहे थे कि देशवासियों को खास संदेश देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद इस सीट से प्रत्याशी हो सकते हैं.
भाजपा की प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी ने संभवतः ऐसी किसी संभावना के तहत ही बढ़त प्राप्त करने के लिए अपने दिग्गज दलित नेता अवधेश प्रसाद को अरसा पहले इस सीट का अपना प्रत्याशी घोषित कर उनका प्रचार भी शुरू करा दिया था.
प्रसंगवश, अवधेश प्रसाद सपा की स्थापना के वक्त से ही उसके वरिष्ठ दलित नेताओं में रहे हैं और दलित पिछड़ा अंतर्विरोध गहराने के बाद1993 में सपा-बसपा गठबंधन टूटा तो भी उन्होंने बसपा का रुख नहीं किया. वे प्रदेश की मुलायम और अखिलेश के नेतृत्व वाली सपा सरकारों में मंत्री रहते आए हैं और इस समय पार्टी में उनकी अखिलेश के बाद नंबर टू की हैसियत है.
1996 में सपा और बसपा की कट्टर शत्रुता के दिनों में फैजाबाद के पड़ोस की अंबेडकरनगर लोकसभा सीट से, जो तब अकबरपुर सुरक्षित कहलाती थी, मुलायम ने अवधेश प्रसाद को ही बसपा का विजय-रथ रोकने की जिम्मेदारी सौंपी थी. वे ऐसा करने में तो सफल नहीं हो पाए थे, लेकिन बसपा भी उन्हें अपने परंपरागत दलित वोट बैंक में सेंध लगाने से रोक नहीं पाई थीं.
इस बार भी सपा ने यह उम्मीद छोड़ी नहीं है कि फैजाबाद में वे उसके परंपरागत पिछड़े व अल्पसंख्यक मतदाताओं के अलावा बसपा के दलित मतदाताओं को अपने साथ जोड़कर भाजपा के धार्मिक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खेल को खराब कर देंगे. उसकी इस उम्मीद का एक आधार यह भी है कि वे फैजाबाद लोकसभा सीट की सोहवल व मिल्कीपुर विधानसभा सीटों से कुल मिलाकर नौ बार विधायक रहे हैं.
अवधेश कहते हैं कि उनकी पार्टी फैजाबाद सीट पर भाजपा को पहले भी हरा चुकी है और इस बार कांग्रेस से गठबंधन के बाद उसके कार्यकर्ताओं का जीत का मनोबल और ऊंचा हो गया है.
हालांकि कांग्रेस से गठबंधन का सपा को इस सीट पर कितना लाभ मिलेगा, यह चुनाव अभियान शुरू होने के बाद इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस के वरिष्ठ स्थानीय नेता व पूर्व सांसद निर्मल खत्री उसके प्रति कौन-सा रुख अपनाते हैं.
कांग्रेस के दुर्दिन में भी अपनी जमीन न खोने वाले निर्मल गत दिनों अपनी पार्टी लाइन को दरकिनार कर रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हुए तो उनके भाजपा में शामिल होने की चर्चाएं चल पड़ी थीं. अब कहा जाता है कि वे कांग्रेस द्वारा गठबंधन के तहत यह सीट सपा को दे देने से अंदर-अंदर नाराज़ हैं और उनकी समझदारी यह है कि कांग्रेस के टिकट पर वे भाजपा को सपा से बेहतर टक्कर दे सकते थे. तब कांग्रेस देश भर में भाजपा को अयोध्या में अपने बूते घेरने का श्रेय भी ले सकती थी. लेकिन अब वह नेपथ्य में होगी.
बहरहाल, यह कहना ग़लत होगा कि भाजपा ने सपा-कांग्रेस गठबंधन से डरकर अपने किसी दिग्गज को फैजाबाद से उतारने से कदम पीछे खींच लिए हैं, लेकिन इस लोकसभा सीट के मतदाताओं को चौंकाने वाले नतीजे देने की जैसी आदत है, उससे भाजपा ही नहीं, प्रायः सारी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टियों को डर लगता है.
जहां तक भाजपा की बात है, इस लोकसभा सीट की पांच विधानसभा सीटों में से अयोध्या पर निस्संदेह उसका ‘राज’ है. हाल के दशकों में एक 2012 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो वह कभी यह सीट नहीं हारी. लेकिन गोसाईंगंज, बीकापुर, मिल्कीपुर और रुदौली विधानसभा सीटों के मतदाता उसके प्रति ऐसी वफादारी या इतना बड़ा दिल नहीं रखते. गुस्सा जाएं तो वे उसकी अयोध्या सीट की बढ़त को अजेय नहीं होने देते.
इसी स्थिति की बिना पर फैजाबाद लोकसभा सीट के मतदाताओं ने 1989 में, जब भाजपा राम मंदिर मसले को सिर पर उठाए फिर रही थी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मित्रसेन यादव को चुन लिया था और भाकपा का कहना था कि उसकी यह जीत उसके खिलाफ भाजपा व कांग्रेस के अघोषित रूप से एक हो जाने के बावजूद थी. इन मतदाताओं ने 1998 और 2004 में भी मित्रसेन को भाजपा पर तरजीह दी थी. अलबत्ता, भाकपा नहीं, सपा और बसपा के टिकट पर.
कहते हैं कि मतदाताओं की इसी पुरानी आदत के चलते उत्तर प्रदेश विधानसभा के गत चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या विधानसभा सीट से चुनाव लड़ना गवारा नहीं किया था.
हालांकि भाजपा के कई हलकों में इसके लिए खूब माहौल बनाया गया था. भाजपा की कोर कमेटी ने उनके अयोध्या से चुनाव लड़ने की मंजूरी भी दे दी थी और गोदी मीडिया दिन रात इसके फायदे गिनाता रहा था.
लेकिन कहते हैं कि योगी पार्टी के इस अंतर्विरोध से पार नहीं पा सके थे कि अयोध्या से चुने जाकर वे वाराणसी से चुने गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बराबर या उनसे बड़े दिखने लगते. कई प्रेक्षक इस बार भाजपा के दिग्गजों के अयोध्या यानी फैजाबाद लोकसभा सीट से दूर रहने को भी इस अंतर्विरोध से ही जोड़कर देख रहे हैं.
वे जैसे भी देखें, उन लोगों के लिए अपनी मायूसी छिपाना मुश्किल हो रहा है, जो पहले से माने बैठे थे कि ‘भव्य’ और ‘दिव्य’ अयोध्या में लोकसभा चुनाव का मुकाबला भी भव्य और दिव्य ही होगा और ‘नवस्थापित रामराज्य’ की उस पर ऐसी छाया नजर आएगी कि परंपरागत जातीय, धार्मिक व सांप्रदायिक समीकरणों व जोड़-गांठों की कोई जगह नहीं रह जाएगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)