सरकार द्वारा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति समिति से सीजेआई को हटाना समझ से परे: अशोक लवासा

पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने एक आलेख में चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के क़ानून पर कहा है कि मोदी सरकार द्वारा नियुक्ति समिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने से विभिन्न पूर्वाग्रहों को बल मिलता है और लगता है कि यह आम सहमति बनाने की बजाय बहुमत सुनिश्चित करने की कोशिश है. 

अशोक लवासा. (फाइल फोटो साभार: पीआईबी)

पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने एक आलेख में चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के क़ानून पर कहा है कि मोदी सरकार द्वारा नियुक्ति समिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने से विभिन्न पूर्वाग्रहों को बल मिलता है और लगता है कि यह आम सहमति बनाने की बजाय बहुमत सुनिश्चित करने की कोशिश है.

अशोक लवासा. (फाइल फोटो साभार: पीआईबी)

नई दिल्ली: अशोक लवासा, अरुण गोयल के अलावा एकमात्र अन्य ऐसे चुनाव आयुक्त रहे हैं जिन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त बनने की राह पर होने के बावजूद चुनाव आयोग से इस्तीफा दे दिया था.

लवासा ने भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) में खाली चुनाव आयुक्त के दो पदों पर नियुक्ति के लिए मोदी सरकार द्वारा अपनाए जा रहे तौर-तरीकों पर खुलकर बात की है, जो कि सुप्रीम कोर्ट के उन स्पष्ट निर्देशों के बावजूद अपनाए जा रहे हैं जिनमें शीर्ष अदालत ने एक निष्पक्ष प्रक्रिया स्थापित करने के लिए कहा था. उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को नियुक्ति समिति से बाहर रखने को ‘समझना मुश्किल’ बताया है.

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने कहा, ‘सिर्फ एक साल बाद ही, और संसद द्वारा सीजेआई को समिति से बाहर करने वाला कानून पारित करने के तीन महीने बाद, ईसीआई में दो रिक्तियां हैं और कानून के परीक्षण का समय आ गया है.’

लवासा लिखते हैं कि सीजेआई को बाहर करना (जिनके बारे में लवासा का मानना है कि उन्होंने ऐसे अन्य चयनों में कभी भी प्रधानमंत्री से असहमति नहीं जताई है) ‘समिति की राय को लेकर पूर्वाग्रहों को जन्म देता है.’ वे लिखते हैं कि सीजेआई को बाहर किया जाना ‘आम सहमति बनाने पर भरोसा करने की बजाय बहुमत सुनिश्चित करने की कोशिश जैसा लग सकता है.’

लवासा ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि वे यह समझने में विफल रहे हैं कि पहले सरकार ने चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त का दर्जा कैबिनेट सचिव के सामान किया, फिर इसे वापस सुप्रीम कोर्ट के जज के समान किया, लेकिन फिर रहस्यमय तरीके से दोनों को हटाने की प्रक्रिया को वही कर दिया, जो मूल रूप से थी, जहां केवल मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) नियमित निष्कासन प्रक्रिया से बाहर रहते हैं, पर निर्वाचन आयोग के अन्य सदस्य नहीं.

उन्होंने आगे लिखा कि उन्हें इसी तरह उन्हें यह बात भी समझ नहीं आती है कि ‘सर्च कमेटी के अध्यक्ष पद को कैबिनेट सचिव की जगह कानून मंत्रीसे  क्यों बदल दिया गया.’ नए कानून में  ईसी की नियुक्ति के लिए मूल प्रावधान, ‘दो अन्य सदस्यों के लिए… चुनाव से संबंधित मामलों में ज्ञान और अनुभव रखने का है. अध्यक्ष पद को बदलने और सदस्यों के मामले में ‘चुनाव से संबंधित मामलों में ज्ञान और अनुभव रखने’ के प्रावधानको हटाने पर लवासा ने सवाल उठाया है, क्योंकि उनका कहना है कि ‘प्रस्तावित और संशोधित अन्य प्रावधानों के पीछे की विचार प्रक्रिया सरकार में काम करने के चार दशकों के दौरान विकसित हुई मेरी नौकरशाही की समझ से परे है.’

लवासा का सरकार में चार दशक का कार्यकाल उनके सीईसी बनने के साथ ही समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन 2019 लोकसभा चुनावों के बाद उन्होंने अगस्त 2020 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने इस्तीफा दे दिया और मनीला में एशियन डेवलपमेंट बैंक से जुड़ गए. अगर वे इस्तीफ़ा न देते तो तत्कालीन चुनाव आयुक्तों के बीच वरिष्ठता को देखते हुए अप्रैल 2021 में उनका मुख्य चुनाव आयुक्त बनना तय था.

उल्लेखनीय है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, वे एकमात्र चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने चुनावी प्रक्रिया के उल्लंघन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को क्लीन चिट देने से इनकार कर दिया था. चुनाव के कुछ महीनों बाद उनकी पत्नी को आयकर नोटिस भेजा गया और प्रेस में उनके परिवार द्वारा एक फ्लैट की खरीद पर सवाल उठाने वाली ख़बरें छपने लगीं.

बाद में लवासा का निजी मोबाइल नंबर उस सूची में भी मिला, जिन्हें संभावित तौर से पेगासस स्पायवेयर के जरिये निशाना बनाया गया था.

पेगासस प्रोजेक्ट के तहत सामने आए रिकॉर्ड बताते हैं कि लवासा को संभावित सर्विलांस पर तब डाला गया था जब उन्होंने एक बार नहीं बल्कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन के पांच अलग-अलग मामलों में असहमति जताई थी. पांच मामलों में से चार मोदी द्वारा कथित उल्लंघनों की शिकायतों से संबंधित थे.

लवासा की असहमति के बाद उनकी पत्नी, बेटे और बहन विभिन्न जांच एजेंसियों की जांच के दायरे में आए. उनके  इस्तीफे से कुछ महीने पहले दिसंबर 2019 में एक राष्ट्रीय दैनिक में लिखते हुए लवासा ने कहा था कि ‘ईमानदारी की कीमत’ होती  है.

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