‘बाबा साहेब किताबें इकट्ठा करते थे, लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं’

जन्मदिन विशेष: मान्यवर कांशीराम के निकट राजसत्ता की चाभी बहुजन हितकारी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के बंद ताले खोलने का पूरी तरह अपरिहार्य साधन थी और वे मानते थे कि देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं में बहुजनों को अपरहैंड तभी मिल सकता है, जब यह चाभी उनके पास रहे. इसके इतर स्थिति में जिसके हाथ में यह चाभी रहेगी, उन्हें उसी की धुरी पर नाचते रहना होगा.

कांशीराम. (फोटो साभार: पेंगुइन प्रकाशन)

जन्मदिन विशेष: मान्यवर कांशीराम के निकट राजसत्ता की चाभी बहुजन हितकारी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के बंद ताले खोलने का पूरी तरह अपरिहार्य साधन थी और वे मानते थे कि देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं में बहुजनों को अपरहैंड तभी मिल सकता है, जब यह चाभी उनके पास रहे. इसके इतर स्थिति में जिसके हाथ में यह चाभी रहेगी, उन्हें उसी की धुरी पर नाचते रहना होगा.

कांशीराम. (फोटो साभार: पेंगुइन प्रकाशन)

बाबा साहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर के बाद दलितों की सबसे बड़ी प्रेरणा बताए जाने वाले कांशीराम (जिन्हें उनके समर्थक व प्रशंसक ‘साहेब’ और ‘मान्यवर’ भी कहते हैं) ने लंबी बीमारी के बाद नौ अक्टूबर, 2006 को इस संसार को अलविदा कहा तो दलित आंदोलन में लगातार बढ़ते भटकावों व बिखरावों के बावजूद शायद ही किसी ने कल्पना कर रखी हो कि इस अलविदा के दो दशक भी पूरे नहीं होंगे और दलित स्वाभिमान की उनकी लड़ाई अपनी धुरी पर पूरे 360 अंश घूम जाएगी- इस कदर कि तत्कालीन राजनीति में उपलब्ध सारे अवसरों के बहुजनों के हित में इस्तेमाल के लिए उन्होंने पलटीमार राजनीति का जो ‘सिद्धांत’ दिया था, वह भी ‘मनुवादियों के बड़े काम की चीज’ बन जाएगा.

इतना ही नहीं, सत्ता के लिए ‘सर्वजन’ में बदल चुका उनका ‘बहुजन’ का मिशन ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’ जैसे नारे सुनते हुए उस मोड़ पर जा पहुंचेगा, जहां वह राजसत्ता की अपने हाथ आती ‘मास्टर की’ अपने पास रखने के जतन करने के बजाय उन्हीं ‘मनुवादियों’ को खुशी-खुशी थमाता दिखते भी नहीं शरमाएगा, जिनकी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने के अपने संकल्प को पलटीमार राजनीति वाले दिनों में भी कमजोर पड़ने देना उन्हें गवारा नहीं था.

यहां जानना जरूरी है कि उनके निकट राजसत्ता की चाभी बहुजन हितकारी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के बंद ताले खोलने का पूरी तरह अपरिहार्य साधन थी और वे मानते थे कि देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं में बहुजनों को अपरहैंड तभी मिल सकता है, जब यह चाभी उनके पास रहे. अन्यथा की स्थिति में उन्हें जिसके भी हाथ या नियंत्रण में यह चाभी रहेगी, उसी की धुरी पर नाचते रहना होगा.

गौरतलब है कि अपनी इसी मान्यता के तहत उन्होंने अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा अपने प्रधानमंत्रीकाल में उन्हें दिया गया राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि वे राष्ट्रपति नहीं, प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं क्योंकि देश की वास्तविक सत्ता इसी पद में निहित है- बहुजनों के भविष्य के बंद दरवाजे पर लटकाए गए ताले खोलने की चाभी भी.

इस सबके बावजूद यह कहना गलत होगा कि दलित आंदोलन के भटकावों और बिखरावों ने उनकी लड़ाई को व्यर्थ कर डाला या उसका महत्व घटा दिया है. लड़ाई के दौरान की गई कुछ भूलों व चूकों को गिनाकर उन्हें उन कारणों का एकमात्र जिम्मेदार भी नहीं ही ठहराया जा सकता, जिनके चलते उनके बीमार पड़ते ही उनकी शिष्या मायावती और उनके परिजनों में आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया.

इतना ही नहीं, 1995 में बनी ‘देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री’ जल्दी ही कथित रूप से ‘दौलत की बेटी’ में रूपांतरित होकर अपना इकबाल खो बैठी. फलस्वरूप उनकी नेक कमाई न सिर्फ ‘बेच खाई’ की स्थिति तक जा पहुंची, बल्कि ‘यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है’ का नारा भी सिमटकर ‘न दिल्ली, न यूपी’ और ‘न तीन में, न तेरह में’ जैसा हो गया.

बहरहाल, कांशीराम ने इक्कीस साल के होते-होते अपने संघर्ष की शुरुआत कर दी थी और उनके दिल व दिमाग में शुरू से साफ था कि उन्हें आगे क्या करना है. 1934 में 15 मार्च को यानी आज के ही दिन पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर नामक गांव में रमदसिया नामक दलित समुदाय में पैदा होने के बाद 1957 तक उन्होंने बीएससी की पढ़ाई पूरी कर ली थी और महाराष्ट्र में पुणे स्थित डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) की एक्सप्लोसिव लैब में असिस्टेंट साइंटिस्ट बन गए थे.

इस लैब के प्रबंधन ने अचानक बाबा साहेब आंबेडकर व गौतम बुद्ध की जयंतियों की छुट्टियां रद्द कर दीं तो उन्होंने इसे दलितों के लिए अपमानजनक करार देकर उनकी बहाली के लिए संघर्ष छेड़ दिया. फिर तो उनका जीवन ऐसे संघर्षों की लंबी श्रृंखला से गुजरने लगा और उन्हें प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि न वे शादी करेंगे, न अपने पास संपत्ति रखेंगे और फुले-आंबेडकर आंदोलन के लक्ष्य हासिल करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर देंगे.

इसी प्रतिज्ञा के चलते उन्होंने डीआरडीओ की अपनी छह साल पुरानी नौकरी एक झटके में छोड़ दी और दलित स्वाभिमान की लड़ाई के ‘सेनापति’ बनने की दिशा में चल पड़े. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. सात-आठ साल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया में काम करते रहे, लेकिन 1978 में उसकी रीति-नीति से मोहभंग हुआ तो बैकवर्ड माइनॉरटीज कम्युनिटीज एम्प्लॉयज फेडरेशन (बामसेफ) गठित कर देश भर में उसे फैलाने में लग गए. इसके लिए उन्होंने साइकिल पर लंबी-लंबी यात्राएं कीं. 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस-4 भी बनाई.

इसके अगले ही बरस 1982 में उन्होंने ‘द चमचा एज’ नामक पुस्तक लिखकर उन दलित नेताओं की कड़ी निंदा कर डाली, जिन्होंने बहुजनों तो कौन कहे, अपने दलित समुदाय के सामाजिक-आर्थिक उन्नयन व स्वाभिमान की रक्षा के लिए भी काम नहीं किया और कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ निजी फायदे के लिए उनकी शर्तों पर काम करते रहे. इस पुस्तक ने उनकी राजनीतिक लाइन व रुझानों को काफी हद तक साफ कर दिया. हां, कांग्रेस के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी.

अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद कि दलित आंदोलन राजनीतिक जमीन के बिना नहीं पनप सकता, उन्होंने 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी बनाई. जानकारों के अनुसार उन्होंने इसका ‘बहुजन’ शब्द पाली भाषा से लिया और उनकी बहुजन की अवधारणा में दलितों व पिछड़ों के साथ अल्पसंख्यक भी शामिल थे.

अतीत गवाह है कि जब तक वे राजनीतिक रूप से सक्रिय रह सके, इस पार्टी के नारों व नैतिकताओं को अन्य पार्टियों से सर्वथा अलग रखा. यहां तक कि कई मायनों में उनका विलोम बना देने से भी परहेज नहीं किया. वे प्रायः कहा करते थे कि पहला चुनाव हारने के लिए लड़ा जाता है, दूसरा किसी को हरवाने के लिए और तीसरा खुद जीतने के लिए.

1988 में इलाहाबाद लोकसभा सीट के ऐतिहासिक उपचुनाव में वे विश्वनाथ प्रताप सिंह से 70,000 वोटों से हारे थे, जबकि 1989 के लोकसभा चुनाव में पूर्वी दिल्ली सीट से प्रत्याशी बने तो चौथे स्थान पर चले गए थे. लेकिन इसके बाद 1991 में इटावा सीट से तीसरी बार लोकसभा चुनाव लड़े तो जीतने और 1996 में पंजाब की होशियारपुर सीट से अपनी जीत की पुनरावृत्ति करने में सफल रहे.

बीती शताब्दी के नवें दशक के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार ने अयोध्या को अपनी प्रयोगशाला बनाया तो उन्होंने आगे बढ़कर देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश को अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला बना लिया. बामसेफ व डीएस-4 जैसे उनके संगठन वहां पहले से मनुवादियों व सवर्णों के खिलाफ आक्रामक जमीनी अभियान चला रहे थे. तब उनके कार्यकर्ताओं के पास ‘तिलक तराजू और तलवार…’ और ‘बाभन, ठाकुर, बनिया छोड़…’ जैसे बेहद आक्रामक नारे तो हुआ ही करते थे, ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा नहीं चलेगा’ जैसे दर्पोक्ति भरे नारे भी होते थे. ‘वोट से लेंगे सीएम-पीएम, आरक्षण से एसपी डीएम’ और ‘जो बहुजन की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा’ जैसे अरमान भरे नारे भी.

स्वाभाविक ही तब बसपा सब-कुछ उलट-पलट डालने को उद्यत लगती थी- व्यवस्था परिवर्तन अभीष्ट था उसे. उनकी नेतृत्व व संगठन की क्षमता ने उसे दलितों के स्वाभिमान की लासानी प्रवक्ता बना दिया था.

अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद की विकट परिस्थितियों में उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया (दावा तो यह भी किया जाता है कि मुलायम ने उनके कहने पर ही यह पार्टी बनाई) और प्रदेश विधानसभा के चुनाव में उतरे तो नतीजों ने ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम’ के नारे से आसमान गंजार दिया था.

लेकिन कुछ अंतर्विरोधों के कारण इस गठबंधन की उम्र लंबी नहीं हो सकी और जल्दी ही बसपा पलटी मारकर भाजपा से गलबहियां करती नजर आने लगी. तब कांशीराम ने एक नया राजनीतिक दर्शन दिया. यह कि सत्ता की चाभी बहुजनों के हाथ देने के लिए वे किसी भी उपलब्ध साधन के उपयोग से हिचकिचाएंगे नहीं. बार-बार पलटी मारने से भी नहीं. अलबत्ता, जैसा कि पहले कह आए हैं, आगे चलकर ये पलटियां व्यवस्था परिवर्तन के रास्ते चलकर बहुजनों का उन्नयन सुनिश्चित करने से कम और सत्ता के लाभों की बंदरबांटों से ज्यादा प्रेरित रहने लगीं.

इससे कांशीराम को कई हलकों में दलित राजनीति व आंदोलनों की बाबा साहेब के बाद की दूसरी सबसे बड़ी प्रेरणा माना जाने लगा, तो वे अपना और बाबा साहेब का फर्क समझाते हुए कहते थे कि बाबा साहेब किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं. लोगों को इकट्ठा करने के इस लंबे अंतराल के काम ने ही उन्हें मंडल और कमंडल के दौर में अपने अनुयायियों का मान्यवर और साहेब बनाया.

उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि वे 14 अक्टूबर, 2006 को बाबासाहेब की बौद्ध धर्म में दीक्षा के पचास साल पूरे होने के अवसर पर उन्हीं की राह चलकर बौद्ध धर्म अपना लेंगे. यानी उन्हीं की तरह पैदा भले ही हिंदू के रूप में हुुए, हिंदू के रूप में दुनिया से नहीं जाएंगे. लेकिन इस तारीख से पहले ही आ धमकी मौत ने उनकी यह हसरत पूरी नहीं होने दी. यों वे खुद को उस आजीवक संप्रदाय का सदस्य कहा करते थे, जिसकी स्थापना कभी मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी और जिसका दर्शन ईसा पूर्व पांचवीं सदी में 24वें तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार से पहले भारत में प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था.

फिलहाल, उनकी जयंती को ‘बहुजन प्रेरणा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, लेकिन इस सच्चाई की ओर से नजरें फेर कर कि उनको सबसे बड़ी श्रद्धांजलि दलितों-बहुजनों के लिए उनके संघर्षों को उनकी समूची नैतिक आभा के साथ फिर से पटरी पर लाकर ही दी जा सकती है. यही कारण है कि अब बात उनके ‘85 बनाम 15’ को छलपूर्वक ‘80 बनाम 20’ बना देने की कोशिशों तक जा पहुंची है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)