बाहरी का भय पैदा कर समर्थन पाना राजनीति का सबसे सस्ता तरीक़ा है, आम आदमी पार्टी यही कर रही है

नैतिक राजनीति का एक काम ऐसी सामूहिकता का निर्माण है जो भय पर आधारित न हो. वह लोगों को शामिल करने के विचार पर टिकी हो, अलग और दूर करने के नहीं. अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीतिक भाषा अभी ठीक इसके विपरीत है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. (फोटो साभार: फेसबुक/AAPkaArvind)

नैतिक राजनीति का एक काम ऐसी सामूहिकता का निर्माण है जो भय पर आधारित न हो. वह लोगों को शामिल करने के विचार पर टिकी हो, अलग और दूर करने के नहीं. अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीतिक भाषा अभी ठीक इसके विपरीत है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) का विरोध करते हुए भारतीय जनता पार्टी के सिद्धांत और उसकी भाषा को और बल दिया है. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने बतलाया है कि यह ख़ुद उनका विचार और भाषा भी है.

केजरीवाल ने कहा, ‘सीएए आने के बाद पूरे देश में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी फैल जाएंगे और लोगों को परेशान करेंगे. भाजपा इन्हें अपना वोट बैंक बनाने के स्वार्थ में पूरे देश को परेशानी में धकेल रही है.’ उसके पहले उन्होंने अपने लोगों को चेतावनी दी कि ‘सीएए क़ानून लागू होने से भारी संख्या में पाकिस्तान और बांग्लादेश से लोग आकर हमारे देश में बसेंगे. उन्हें कहां बसाया जाएगा? क्या आप चाहेंगे कि आपके घर के सामने पाकिस्तान से आए लोग झुग्गी डालकर रहें? क्या आप सुरक्षित महसूस करेंगे? क़ानून व्यवस्था चरमरा जाएगी. और ये लोग कौन होंगे? देश की सुरक्षा का क्या होगा?’

पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए लोगों को कंगाल, भूखा-नंगा और बेघर दिखलाकर केजरीवाल अपने लोगों को डरा रहे हैं कि उनके लिए जो नौकरियां, मकान होने चाहिए उनको ये बाहरी लोग हड़प जाएंगे. साथ ही उन्होंने कहा कि भारत से पिछले दिनों लाखों धनी लोग बाहर चले गए हैं. सरकार को चाहिए कि वह उन्हें वापस लाए. वे अपना पैसा देश में लगाएंगे जिससे यहां के लोगों को काम मिलेगा. ऐसा न करके वह बाहर से नंगे-बूचे, कंगालों को नागरिक बनकर बसाना चाहती है जो हमारे काम धंधों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे.

दूसरे हमारे लिए अनजान हैं, ख़तरा हैं, वे हमारे संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे. वे हमारे घरों में घुस जाएंगे, चोरी डकैती करेंगे, हमारी औरतों के साथ बलात्कार करेंगे, वे धीरे-धीरे हमें हमारी ही जगह से बेदख़ल कर देंगे: ऐसा कहते हुए बाहरी लोगों की डरावनी तस्वीर खींचना और अपने लोगों को बताना कि उन्हें बाहरी लोगों से सावधान रहना चाहिए, यह अक्सर दक्षिणपंथी नेता करते आए हैं.

इंग्लैंड में यह काम भारतीय मूल के ही राजनीतिक नेता और सरकार के मंत्री तक हाल में करते देखे गए हैं. पूर्व गृह सचिव प्रीति पटेल से लेकर प्रधानमंत्री ऋषि सुनक तक बाहर से आने वालों के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं और क़ानून बनाकर उन्हें रोकने की धमकी देते रहे हैं. उनके अलावा पोलैंड, ऑस्ट्रिया और दूसरे यूरोपीय देशों में भी बाहरी लोगों का डर पैदा किया जाता रहा है. इस डर से सहारे दक्षिणपंथी नेता सत्ता हासिल करते हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का उदाहरण हमारे सामने है.

भारत में यह भाषा अब तक भारतीय जनता पार्टी इस्तेमाल करती रही है. बाहरी, घुसपैठिया भाजपा की राजनीतिक शब्दावली के बीज शब्द हैं. इनके पर्यायवाची बांग्लादेशी, रोहिंग्या भी हैं. और भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों और समर्थकों के लिए ये कूट शब्द हैं जिनका अर्थ है मुसलमान. वे ऐतिहासिक रूप से बाहरी हैं और अवांछित हैं. वे हमलावरों के वंशज हैं. जो नहीं हैं और धर्म परिवर्तित करके मुसलमान हो गए हैं, अगर उन्हें यहां के लोगों के समान अधिकार चाहिए तो वे वापस अपने मूल धर्म में लौट आएं और बाहरीपन के निशान मिटा दें, यह उनसे कहा जाता है.

भाजपा अपने लोगों, यानी हिंदुओं को स्थायी रूप से इन बाहरी लोगों से भयभीत रखने और ख़ुद को हिंदुओं के मुहाफ़िज़ के तौर पर पेश करती रही है. अगर इन ऐतिहासिक बाहरी लोगों को पूरी तरह बाहर नहीं किया जा सकता तो उन्हें क़ानूनों के ज़रिये नियंत्रित तो किया ही जा सकता है.

भाजपा के अलावा इस देश में एक और पार्टी है जो इस भाषा का इस्तेमाल करती है और वह है आम आदमी पार्टी. जब भाजपा ने रोहिंग्या घुसपैठियों का भय दिखलाना शुरू किया तब भी ‘आप’ ने उस पर आरोप लगाया कि वहीं इन्हें बसा रही है और देश से निकालने का कारगर उपाय नहीं कर रही है. उसने पूछा कि भाजपा क्यों रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को अवैध रूप से पूरे देश में बसा रही है. क्यों वह इनके ज़रिये देश में हिंसा फैलाना चाहती है?

भाजपा के विरोधियों में अनेक लोग हैं जो बाहरी लोगों के बारे में केजरीवाल के इस आक्रामक रुख़ की प्रशंसा कर रहे हैं. उनका कहना है कि भाजपा से भाजपा की भाषा में ही मुक़ाबला किया जा सकता है. उनका कहना है कि केजरीवाल चतुर हैं, भाजपा नेताओं की तरह दुष्ट नहीं. सीएए का विरोध करने का यही तरीक़ा कारगर होगा क्योंकि इससे हिंदू बिदकेंगे नहीं. इसलिए इस रणनीति मानकर इसकी तारीफ़ की जा रही है.

यह कहना भी यह भूल है कि यह मात्र रणनीति है. 2020 में दिल्ली में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के दौरान केजरीवाल की चुप्पी और उनकी सरकार और नेताओं की निष्क्रियता से साफ़ किया कि जब मुसलमानों को साथ की ज़रूरत थी, ‘आप’ ने उनसे किनारा किया क्योंकि उसे भय था कि अगर वह मुसलमानों के पक्ष में खड़ी होगी तो हिंदू उससे बिदक जाएंगे.

यही नहीं, 2020 की फ़रवरी में दिल्ली में रिंकू शर्मा नामक एक युवक की हत्या के बाद ‘आप’ के वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा पर हमला बोलते हुए कहा कि क्या अब देश में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने पर हत्या कर दी जाएगी. मनीष सिसोदिया ने पूछा कि क्या यह नारा भारत में नहीं तो पाकिस्तान में लगाया जाएगा. ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने पर किसी हिंदू की हत्या कौन करेगा? उस काल्पनिक हत्यारे का भय हिंदुओं में सिर्फ़ भाजपा नहीं, आप के नेता भी पैदा कर रहे हैं. इन नेताओं के अनुसार ये हत्यारे बांग्लादेशी, रोहिंग्या, मुसलमान, बाहरी घुसपैठिए ही हो सकते हैं.

राजनीति में सबसे बड़ा उद्देश्य माना जाता है लोगों की या अपने लोगों की गोलबंदी. माना जाता है कि इसके लिए राजनीतिक दलों या नेताओं को जो कुछ करना पड़े, करना चाहिए. ये अपने लोग बहुमत भी बन सकें क्योंकि वही चुनाव में जिताएंगे. इसके लिए एक अल्पसंख्या भी तैयार की जानी होती है जो डरावनी हो क्योंकि एक दिन वह बहुसंख्या पर हावी हो जाएगी. आज बाहरी अल्पसंख्यक है, कल ये चारों तरफ़ फैल जाएंगे, ज़मीनों, घरों, नौकरियों, औरतों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे; यह भय इतना ताकतवर है कि वह बहुसंख्या को एक ताकतवर ‘रक्षक’ की बांहों में धकेल देता है. इस भय पर सवार होकर तरह ‘बहिरागत’ विरोधी नेता शक्तिशाली और सत्ताशाली होते हैं.

दूसरे, बाहरी का भय पैदा करके लोगों को अपने क़रीब लाना या उनका समर्थन इकट्ठा करना राजनीति का सबसे आसान, सस्ता तरीक़ा है. लेकिन यह कहना ज़रूरी है कि यह अनैतिक है. सीएए इसी अनैतिकता की एक अभिव्यक्ति है. वह एक स्वाभाविक भारतीयता की कल्पना को साकार करना चाहता है, जिसमें मुसलमान शामिल नहीं हैं.

नैतिक राजनीति का एक काम ऐसी सामूहिकता का निर्माण है जो भय पर आधारित न हो. अलगाव पर भी नहीं. वह लोगों को शामिल करने के विचार पर टिकी हो, अलग और दूर करने के नहीं. वह मात्र अपने जैसे, अपनी तरह के लोगों की खोज न हो बल्कि अपने से भिन्न लोगों को समझने और उनसे रिश्ता बनाने के लिए लोगों को प्रेरित करने का कम भी करे. वह संकीर्णता नहीं, विशालता की आकांक्षा को उत्साहित करे. संकुचन नहीं, खुलेपन और विस्तार की तरफ़ ले जाए.

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीतिक भाषा अभी ठीक इसके विपरीत है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)