भोपाल के तमाम गैस राहत अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की कमी सालों से बनी हुई है.
भोपाल गैस त्रासदी के समय कृष्णा जगताप महज़ 9 साल की थीं. उस रात मची भगदड़ में एक वाहन से टकराकर उनके घुटने चोटिल हो गए थे. हालांकि वे चल फिर तो सकती थीं लेकिन एक सामान्य व्यक्ति की तरह उनके घुटने अब काम नहीं करते थे.
तब से ही वे अस्पतालों के चक्कर काट रही हैं. पिछले कुछ समय से उनका इलाज मध्य प्रदेश शासन द्वारा गैस पीड़ितों के नि:शुल्क इलाज के लिए बनाए गए छह सरकारी गैस राहत अस्पतालों में से एक मास्टर लाल सिंह अस्पताल में चल रहा था. लेकिन पिछले दो महीने से उनका इलाज नहीं हुआ है.
इसका कारण बताते हुए वे कहती हैं, ‘यहां पर पहले हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सुनेजा हुआ करते थे. दूसरे डॉक्टर भी थे तो इलाज हो जाता था. पर अब यहां पर कोई डॉक्टर ही नहीं है. अब किसे दिखाएं? ये कहते हैं कि डीआईजी बंगले स्थित जवाहर लाल नेहरू अस्पताल जाओ. लेकिन हमारे पास किराया-भाड़ा हो तब तो जाएं. हम मजबूर हो जाते हैं तो रह जाते हैं. इलाज कैसे हो अब? बीमारी कैसे सही हो? हमीदिया अस्पताल जरूर पास है लेकिन खड़े होते नहीं बन रहा है. क्योंकि अब दवा बंद है. जब तक दवा खाती थी, आराम मिलता था. दवा बंद होने से तकलीफ बढ़ गई है.’
गैस राहत अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के अभाव के चलते इलाज से वंचित होने की कृष्णा जगताप जैसी और भी कहानियां हैं. केंद्र और राज्य सरकारों ने भोपाल गैस कांड पीड़ितों के लिए नि:शुल्क अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र तो बना दिए हैं लेकिन वहां उन्हें इलाज मिलेगा ही, यह सुनिश्चित करना ज़रूरी नहीं समझा है.
मध्य प्रदेश सरकार ने गैस पीड़ितों को नि:शुल्क इलाज मुहैया कराने के उद्देश्य से छह गैस राहत अस्पतालों का निर्माण कराया था. जो मध्य प्रदेश शासन के भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के तहत काम करते हैं.
इसके अतिरिक्त नौ डे-केयर यूनिट और नौ यूनानी, आयुर्वेदिक एवं होम्योपैथिक केंद्र भी राज्य सरकार ने गैस प्रभावित क्षेत्रों में स्थापित किए हैं.
तो वहीं भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) भोपाल का सबसे बड़ा गैस राहत अस्पताल है. इसकी स्थापना वर्ष 1998 में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्दशों के तहत हुई थी और इसका संचालन सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनाया गया भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ट्रस्ट (बीएमएचटी) करता था.
वर्तमान में इसके संचालन का ज़िम्मा केंद्र सरकार के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग (डीएचआर) के पास है. इसके अंतर्गत भोपाल के विभिन्न गैस प्रभावित क्षेत्रों में गैस पीड़ितों के इलाज के लिए नि:शुल्क आठ स्वास्थ्य केंद्र भी चलाए जाते हैं.
इस तरह कुल 33 गैस राहत केंद्र गैस पीड़ितों के इलाज के लिए भोपाल के गैस प्रभावित क्षेत्रों में चल रहे हैं. जहां इलाज के लिए आने वाले मरीजों की संख्या भी अच्छी-खासी है क्योंकि इलाज, दवा और जांचें सभी की यहां नि:शुल्क व्यवस्था है.
बाहरी तौर पर देखने में यह व्यवस्था जनहितकारी जान पड़ती है लेकिन नि:शुल्क इलाज उपलब्ध कराना, गुणवत्तापूर्ण इलाज की गारंटी नहीं होता.
यह बात इन सभी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों के संदर्भ में साबित भी होती है. क्योंकि मरीजों का इलाज डॉक्टर करते हैं, अस्पताल के बड़े-बड़े ढांचे नहीं. लेकिन कड़वा सच यह है कि इन सभी गैस राहत केंद्रों में विशेषज्ञ और डॉक्टरों की कमी के चलते कई गंभीर बीमारियों से जुड़े अहम विभाग खाली पड़े हैं. वहीं सहायक स्टाफ की भी बहुत कमी है.
मध्य प्रदेश शासन द्वारा स्थापित गैस राहत चिकित्सा इकाइयों में कुल 1294 पद स्वीकृत हैं. प्रथम श्रेणी में विषय विशेषज्ञ, परामर्शदाता और प्रशासनिक नियुक्ति के लिए कुल 89 पद स्वीकृत हैं और द्वितीय श्रेणी चिकित्सा अधिकारी के 157 पद.
वहीं सहायक स्टाफ जिनमें नर्स और पैरामेडिकल स्टाफ शामिल होते हैं, के 1048 पद हैं. लेकिन मध्य प्रदेश शासन के भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग द्वारा जारी वार्षिक प्रतिवेदन बताता है कि इन सभी पदों पर क्रमश: 60, 122 और 829 कर्मचारी ही कार्यरत हैं.
इस तरह 283 पद खाली हैं. जिसमें प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण खाली पदों की संख्या 64 है. जब डॉक्टर ही नहीं है तो इलाज भगवान भरोसे ही हो सकता है.
दूसरी ओर बीएमएचआरसी का भव्य ढांचा देखने पर आंखों को जितना अधिक सुकून मिलता है, बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं उससे कई गुना अधिक तकलीफ देती हैं.
भोपाल ग्रुप ऑफ इंफॉर्मेशन एंड एक्शन से जुड़े सतीनाथ सारंगी कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी का हाल देखेंगे तो पाएंगे कि यह लगभग पूरी तरह से बंद है. मतलब वहां पूरे-पूरे विभाग बंद हैं. पल्मोनरी विभाग पूरा बंद है. यह वह विभाग है जिसमें गैस पीड़ित मरीजों की संख्या सर्वाधिक होती है. 70 प्रतिशत से अधिक चिकित्सक और विशेषज्ञों के पद वर्षों से खाली हैं. कोई डॉक्टर इस अस्पताल में काम करना ही नहीं चाहता.’
उपलब्ध दस्तावेज़ भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि अपनी बाह्य भव्यता से आकर्षित करने वाले इस अस्पताल में काम करना डॉक्टर किसी दुस्वप्न से कम नहीं समझते हैं.
सभी गैस राहत अस्पतालों पर निगरानी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक पांच सदस्यीय निगरानी समिति बना रखी है. यह निगरानी समिति सभी गैस राहत अस्पतालों के कामकाज की मॉनीटरिंग करती है और अस्पतालों से जवाब तलब करती है. फिर अपनी रिपोर्ट सुधार के लिए आवश्यक सुझावों के साथ त्रैमासिक तौर पर हाईकोर्ट को सौंपती है.
इस समिति की अध्यक्षता वर्तमान में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज वीके अग्रवाल करते हैं. उनके लगभग 3.5 साल के कार्यकाल में अब तक 11 त्रैमासिक रिपोर्ट तैयार की जा चुकी हैं. जिनके अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इन सालों में बार-बार तमाम सिफारिशें करने के बावजूद भी बीएमएचआरसी में नेफ्रोलॉजिस्ट (किडनी विशेषज्ञ) तक की नियुक्ति नहीं हो सकी है.
किडनी विशेषज्ञ की नियुक्ति न होने का ज़िक्र करना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि गैस पीड़ितों में किडनी रोग आम है. वहीं पहली रिपोर्ट से लेकर अंतिम रिपोर्ट तक विशेषज्ञ डॉक्टरों के नौकरी छोड़ने, विभिन्न विभागों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के रिक्त स्थान को जल्द से जल्द भरने की सिफारिशें बार-बार की गई हैं. लेकिन इस दौरान कुछ भी नहीं बदला.
ये तो एक छोटा सा उदाहरण है. जस्टिस अग्रवाल की अध्यक्षता वाली निगरानी समिति की तीसरी रिपोर्ट हालातों की भयावहता को बखूबी बयां करती है जिसमें दर्ज है, ‘काम करने के हालातों में बदलावों के चलते बीएमएचआरसी के विभिन्न विभागों के विशेषज्ञ डॉक्टर अपनी नौकरी छोड़कर कहीं और जा रहे हैं. इस पलायन के चलते अस्पताल का लगभग हर विभाग जूनियर डॉक्टरों के भरोसे चल रहे हैं.’
ये स्थिति तब से अब तक कायम है. और 11वीं रिपोर्ट में भी विशेषज्ञ डॉक्टरों के लंबे समय से खाली पद भरने, डॉक्टरों को काम करने उत्तम माहौल उत्पन्न कराने और सेवा शर्तें लागू करने की सिफारिशें की गई हैं.
ऐसी परिस्थिति में समझा जा सकता है कि गैस पीड़ितों को सरकारें कैसा इलाज उपलब्ध करा रही हैं? निगरानी समिति के अध्यक्ष जस्टिस अग्रवाल कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी के चलते इलाज का स्कोप बहुत कम हो गया है. इसी प्रकार राज्य सरकार ने भी गैस पीड़ितों के लिए जो अस्पताल बनाए हैं, वहां भी कई विभागों में डॉक्टरों की कमी है. कुछ और कमियां भी हैं, जैसे– हाइजीनिक कंडीशन बहुत अच्छी नहीं हैं. एम्बुलेंस और आपातकालीन इलाज की सुविधा नहीं है. गंभीर मरीजों को भी ख़ुद ही एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जाना होता है. बस सर्दी, खांसी, ज़ुकाम जैसे साधारण इलाज की व्यवस्था हो रही है. समय-समय पर हम दोनों ही सरकारों का ध्यान आकर्षित कराते रहते हैं. लेकिन इलाज की संतोषजनक व्यवस्था फिर भी नहीं हो रही है.’
ऐसा भी नहीं है कि ये हालात पिछले कुछ समय में बने हों. पिछली मॉनीटरिंग समिति की 2004 से 2008 के बीच तैयार रिपोर्ट पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि लगभग दशकभर से अधिक समय से लगातार गैस राहत अस्पतालों में विशेषज्ञों की कमी, डॉक्टर की कमी, तकनीकी स्टाफ और उसकी ट्रेनिंग की कमी बनी हुई हैं.
कोई ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल नहीं बनाया गया है. दवाओं की आपूर्ति नहीं है. मशीनों का रखरखाव सही नहीं है. इन्हीं कारणों के चलते तीन दशक बाद भी गैस पीड़ित पीढ़ी की स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है.
यहां सवाल यह भी उठता है कि आख़िर बीएमएचआरसी जैसे बड़े अस्पताल में डॉक्टर काम क्यों नहीं करना चाहते?
जस्टिस अग्रवाल कहते हैं, ‘7-8 साल पहले जो डॉक्टरों की कमी थी अब और ज़्यादा बढ़ गई है. उसका कारण ख़ासतौर पर यह है कि इस अस्पताल ने अब तक सर्विस रूल्स नहीं बनाए हैं. जिसके चलते डॉक्टर अपने भविष्य की आशंका के मद्देनज़र दूसरे बड़े अस्पतालों का रुख़ कर रहे हैं. वहां उन्हें बेहतर टर्म्स एंड सर्विस कंडीशन उपलब्ध कराई जा रही हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘उपलब्ध डॉक्टर छोड़कर चले गए. नए आ नहीं रहे. क्योंकि उनके लिए कोई ठोस ऑफर नहीं है. एडहॉक लेना चाहते हैं जबकि उन्हें कहीं परमानेंट जगह मिल सकती है. अनिश्चितताओं के बीच क्यों कोई विशेषज्ञ आना चाहेगा? यह केंद्र सरकार के ही हाथ में है. लेकिन वह बस सालों से आश्वासन दे रही है. शायद उनकी प्राथमिकता स्वास्थ्य नहीं है.’
जस्टिस अग्रवाल कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी को सरकारें इतना महत्व नहीं देतीं, ये हम महसूस कर रहे हैं. क्योंकि हर बार समान जवाब मिलता है कि फाइल इस टेबल से उस टेबल पहुंच गई है. इसको सुधार समझें तो सुधार है, पर हमारी समझ में ज़ीरो है. जब तक आदमी को खाना न मिला और ये कहना कि उसमें हल्दी डाल दी, नमक डाल दिया, बस छौंक लगाना है, इसका क्या मतलब हुआ? भूखा आदमी तो बैठा ही है. मरीज़ को तो डॉक्टर चाहिए.’
वहीं इन अस्पतालों का एक स्याह पक्ष यह भी है कि यहां मरीजों को गुणवत्तापूर्ण इलाज भले ही न दिया जाए लेकिन समुचित इलाज के अभाव उनकी जानें ज़रूर जा रही हैं.
गैस पीड़ितों के अधिकारों के लिए लंबे समय से लड़ रहीं रचना ढींगरा बताती हैं, ‘2004 से 2008 के बीच बीएमएचआरसी में ही गैस पीड़ितों पर गुप्त रूप से क्लिनिकल ट्रायल हुआ. ऐसे 13 ट्रायल किए गए. इनमें से जब तीन का ऑडिट ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने किया तो पाया कि 13 लोगों ने इनमें अपनी जान गंवाई है. सोचिए ज़रा कि सभी ट्रायल की जांच होने पर मृतकों की संख्या क्या हो सकती है?’
गौरतलब है कि यही वह मामला था जिसके बाहर आने पर सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की अर्ज़ी पर बीएमएच ट्रस्ट भंग कर दिया था.
गौर करने वाला पक्ष यह भी है ट्रस्ट के भंग होने के बाद से अस्पताल का संचालन कर रही केंद्र सरकार इसे चलाने के लिए अब तक तीन विभाग बदल चुकी है.
सबसे पहले डिपार्टमेंट ऑफ बायो टेक्नोलॉजी और डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी ने संयुक्त रूप से इसे संभाला. 2012 में इसे भारतीय चिकित्सीय अनुसंधान केंद्र के हवाले कर दिया गया. और 2016 से इसे डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्च संभाल रहा है.
जो साफ दिखाता है कि सरकार के पास इसे चलाने की कोई पुख़्ता योजना ही नहीं है. हां, सरकार अब यह ज़रूर चाहती है कि इसे एम्स भोपाल में विलय कर दिया जाए. लेकिन इस बीच सरकार भूल रही है कि यह अस्पताल उन पैसों से बना है जो मुआवज़े के तौर पर यूनियन कार्बाइड से वसूले गए थे. इसलिए इस पर पूरा हक़ गैस पीड़ितों का हैं. क्या इसका विलय गैस पीड़ितों से उनके अधिकार छीनने जैसा नहीं होगा?
काबिल-ए-गौर यह भी है कि गैस पीड़ितों की बीमारी कोई आम नहीं है. यह या तो मिथाइल आइसोसाइनेट गैस की देन हैं या फिर यूनियन कार्बाइड के आसपास प्रदूषित भूजल में मौजूद हानिकारक रसायनों की. इसलिए इनके इलाज के लिए शोध की ज़रूरत है.
सतीनाथ कहते हैं, ‘तीन दशक बीतने पर भी कोई ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल नहीं है. प्रोटोकॉल से आशय है कि गैस ने शरीर के अलग-अलग तंत्रों को अंदरूनी क्षति पहुंचाई है. जिसके चलते अलग-अलग लक्षण सामने आते हैं. अब अगर सिर्फ लाक्षणिक इलाज देंगे तो वे लक्षण बार-बार आते रहेंगे. वहीं लाक्षणिक इलाज में दर्द निवारक और एंटीबायोटिक जैसी हानिकारक दवाएं खिलाई जा रही हैं. जो फौरी तौर पर लक्षण दबा देती हैं लेकिन दीर्घकालीन तौर पर गंभीर समस्याएं पैदा कर देती हैं. इसलिए इस विषय में शोध की ज़रूरत है.’
इस बात की पुष्टि गैस पीड़ित भी करते हैं. कमला नेहरू अस्पताल में इलाज को आए सैयद शाकिर अली कहते हैं, ‘तब से यही हाल है कि जब तक दवा खाओ, ठीक. बंद कर दो तो फिर वहीं हाल.’
कृष्णा जगताप कहती हैं, ‘दर्द में राहत तब तक ही है जब तक दवा खाऊं.’ शाकिर अली अस्पताल के दवा वितरण केंद्र पर पंक्ति में खड़े गोविंद बाथम कहते हैं, ‘डॉक्टर कभी नहीं कहते कि ठीक भी होंगे. बस सालों से सुनते आ रहे हैं दवा खाओ. बंद करते हैं तो दिक्कत बढ़ने लगती है.’
गैस रिसाव का सर्वाधिक प्रभाव झेलने वाले जेपी नगर के रहवासी भी यही बात कहते हैं.
हालांकि ऐसा नहीं है कि इस संबंध में शोध की पहल न की गई हो. बीएमएचआरसी भी एक रिसर्च संस्थान ही है. वो बात अलग है कि जस्टिस अग्रवाल के अनुसार बीएचआमआरसी में भी कोई शोध कार्य नहीं हुआ.
साथ ही 2010 में आईसीएमआर द्वारा नेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरमेंटल हेल्थ (निरेह) की भी स्थापना भोपाल में की गई थी, जिसका उद्देश्य ही मिथाइल आइसोसाइनेट के प्रभाव से गैस पीड़ितों में उत्पन्न हुई बीमारियों पर रिसर्च करना था.
सतीनाथ कहते हैं, ‘निरेह में रिसर्च का पहला उद्देश्य था कि पीड़ितों को क्या इलाज दिया जाए, इस पर शोध हो. लेकिन विडंबना यह रही कि सात सालों में अब तक कोई शोध प्रकाशित नहीं हुआ है. जबकि नियुक्तियां बराबर हो रही हैं.’
हालांकि शोध के जो प्रयास भी हुए उन पर सरकारों ने कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी. बकौल सतीनाथ, ‘डॉ. आर. श्रीनिवासमूर्ति ने हादसे के बाद 1985-86 में गैस पीड़ितों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में एक रिसर्च किया. जिसका निष्कर्ष निकला कि 30 प्रतिशत गैस पीड़ित गंभीर मानसिक अस्वस्थता के शिकार हुए थे. 25 साल बाद वही डॉक्टर निरेह से जुड़े और वही रिसर्च उन्होंने दोबारा भी की. तब चौंकाने वाले नतीजे सामने आए कि हादसे के 25 सालों बाद में लोगों के मानसिक स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ था. उनके अनुसार ऐसा पहली बार देखा गया था.’
सतीनाथ आगे कहते हैं, ‘अक्सर बड़े हादसों में समय के साथ लोगों की मनोस्थिति में सुधार हो जाता है. चर्नोबिल जैसे बड़े हादसों में यह सुधार देखा गया, लेकिन भोपाल के हालात अलग हैं. इस रिसर्च का लाभ इलाज में लेने के बजाय उल्टा हालात ये हैं कि राज्य शासित छह अस्पतालों में एक मनोचिकित्सक है वो भी परमानेंट नहीं है.’
वे बताते हैं, ‘इसी तरह डॉक्टर विजयन ने भी निरेह से जुड़े रहकर फेफड़ों पर काम किया. और पाया कि फिजियोथेरेपी और योग के ज़रिये हालात सुधारे जा सकते हैं उन्होंने इसका डिमॉन्स्ट्रेशन भी किया और परिवर्तन पाया. लेकिन सरकारों ने इसका संज्ञान तब भी नहीं लिया. हमने प्रयास करके दो राज्य शासित गैस राहत अस्पतालों में योग केंद्र चालू करवाए. 2000 लोगों को लाभ हुआ तो अन्य गैस राहत अस्पतालों में भी चालू करने की मांग की. लेकिन चालू करने के बजाय सरकार ने उक्त दो अस्पताल के विशेषज्ञ डॉक्टरों को पत्र लिखकर पूछा की क्या योग से बदलाव आ रहा है? उन्होंने योग की अस्पताल में ज़रूरत नहीं बताई. और जो दो केंद्र चालू हुए थे, वे भी बंद कर दिये गए.’
लोगों पर गैस के हानिकारक प्रभाव जानने के लिए शोधों का अभाव ही कारण है कि आज सैकड़ों की तादाद में गैस पीड़ितों के विकलांग बच्चे इलाज से वंचित हैं और उन्हें केवल चिंगारी ट्रस्ट का ही सहारा है.
चिंगारी ट्रस्ट की फाउंडर हसीना बी बताती हैं, ‘गैस और प्रदूषित भूजल के हानिकारक प्रभावों से बच्चे अपंग पैदा होते हैं. उनके मां-बाप इलाज के लिए अस्पताल ले जाते हैं तो उन्हें यह कहकर लौटा दिया जाता है कि उनका इलाज ही संभव नहीं. तब वे हमारे पास आते हैं. 900 बच्चे हमारे पास रजिस्टर्ड हैं. सैकड़ों ठीक होने के बाद जा चुके हैं. हम उन्हें ठीक कर सकते हैं तो डॉक्टर क्यों नहीं?’
वे कहती हैं, ‘वास्तव में यह व्यवस्था और सरकार इच्छाशक्ति ही नहीं रखते हालात सुधारने की. न वे स्वयं प्रयास करेंगे और न किसी और के प्रयासों को स्वीकार करेंगे. यही कारण है कि हमारे द्वारा बार-बार मध्य प्रदेश सरकार के गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री को चिंगारी आमंत्रित करने पर भी वे कभी नहीं आते.’
वास्तव में जिस व्यवस्था में हर काम महज़ औपचारिकता पूरी करने किया जाता हो, वहां अपेक्षा नहीं की जा सकती कि गैस पीड़ितों को सरकारें गुणवत्तापूर्ण इलाज मुहैया सकें.
इसलिए आज तीन दशक बाद भी गैस पीड़ित उस गैस की जलन अपनी आंखों में महसूस करते हैं और अपने आंसुओं के बहाव से इस जड़ व्यवस्था को डिगाने की कोशिश करते हैं.
2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित कारखाने से रिसी ज़हरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट से 3,000 लोगों की मौत हो गई थी और लगभग 1.02 लाख लोग प्रभावित हुए थे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)