मुक्तिबोध का हिंदी के केंद्रों से दूर रहकर भी साहित्य, विचार के केंद्र में रहना विस्मयकारी है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध साहित्य और जीवन संबंधी अपने विचार और स्थापनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में रसे-बसे रहकर ही व्यक्त और विकसित करते थे. ऐसे रोज़मर्रा के जीवन के कितने ही चित्र, प्रसंग और छवियां उनकी कविताओं और विचारों में गहरे अंकित हैं. 

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गजानन माधव मुक्तिबोध. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

आलोचक और अध्येता जय प्रकाश द्वारा बहुत अध्यवसाय से गजानन माधव मुक्तिबोध की जीवनी पूरी कर ली गई और उसे सेतु प्रकाशन ने रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत ‘मैं अधूरी दीर्घ कविता’ के शीर्षक के साथ दो ज़िल्दों में प्रकाशित किया है. यह हिंदी में एक असाधारण घटना है क्योंकि यह मुक्तिबोध की एक तरह से सबसे प्रामाणिक जीवनी है और 1,200 पृष्ठों से अधिक की होने के कारण अब तक हिंदी में लिखी गई सबसे लंबी जीवनी है. जय प्रकाश ने ऐसे बहुत से ब्योरे कुल लगभग 47 वर्षों में सिमटे जीवन के एकत्र किए हैं जो मुक्तिबोध के बारे में हमें इससे पहले पता नहीं थे.

यह जीवनी सिर्फ़ मुक्तिबोध का जीवन भर नहीं खोलती है, उनके साहित्य के कई अल्पलक्षित पक्षों को भी आलोकित करती है. अपनी मृत्यु के बाद 1964 से ही मुक्तिबोध साहित्य में एक बड़ी प्रेरक उपस्थिति रहे हैं और अब इस जीवनी के द्वारा उनके जीवन, उसके संघर्ष-बेचैनी-विडंबना आदि की बेहतर पहचान हो पाएगी.

मुक्तिबोध अपने समय में सिर्फ़ कवि-लेखक भर नहीं थे. वे उस समय की बहसों और विवादों में, राजनीति और संस्कृति के व्यापक मुद्दों को लेकर लगातार बौद्धिक हस्तक्षेप भी करते थे. यह साफ़ देखा जा सकता है कि अगर अज्ञेय अपने समय में एक हस्तक्षेपकारी लेखक थे तो उनके बरअक्स मुक्तिबोध भी ऐसे ही थे.

मुझे मणि कौल की फ़िल्म ‘सतह से उठता आदमी’ का एक दृश्य याद आता है. अभिनेता एमके रैना और गोपी फ़र्श पर बैठकर एक कमरे में थालियों में खाना खा रहे हैं और ‘कला के तीन क्षण’ पर बात और बहस हो रही है. मुक्तिबोध साहित्य और जीवन संबंधी अपने विचार और स्थापनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में रसे-बसे रहकर ही व्यक्त और विकसित करते थे. ऐसे रोज़मर्रा के जीवन के कितने ही चित्र, प्रसंग और छवियां उनकी कविताओं और विचारों में गहरे अंकित हैं. विशेषतः उनके जीवन के अंतिम चरण में उनके जो साथी और मित्र थे, जिनसे बातचीत में उनके विचार और कविताएं उपजती थीं, वे, कुल मिलाकर, साधारण लोग थे. उनका हिंदी के केंद्रों से दूर रहकर भी साहित्य और विचार के लगभग केंद्र में बने रहना विस्मयकारी है.

मुक्तिबोध को ‘स्वप्नदर्शी अभागे’ बताते हुए जय प्रकाश ने उनका अपने कविधर्म के बारे में यह वक्तव्य उद्धृत किया है: ‘न मालूम कितने ही महीने और वर्ष उन पर ख़र्च किए हैं और उनसे मुझे कुछ नहीं मिला- न धर्म, न अर्थ, न काम, न मोक्ष’.

जय प्रकाश जीवनी का समापन इस तरह करते हैं: ‘बल्कि उनके प्रिय कवि जयशंकर प्रसाद भाग्यशाली थे कि 1936 में अपनी शाहकार कृति ‘कामायनी’ के प्रकाशन के बाद 1937 में उनका निधन हुआ. उन्होंने ‘कामायनी’ को प्रकाशित होते अपनी आंखों देख लिया था. प्रसाद को ‘किड़मिड़ा कर प्यार, करने वाले’ मुक्तिबोध का भाग्य अपने प्रिय कवि की तरह न था. उनकी शाहकार रचना ‘अंधेरे में’ उनके निधन के बाद प्रकाशित हुई. कैसा संयोग था कि जयशंकर प्रसाद और मुक्तिबोध ने सिर्फ़ 47 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा ली’ इसमें इतना जोड़ा जा सकता है कि मुक्तिबोध तो अपना पहला कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ प्रकाशित होते अपनी आंखों से नहीं देख पाए थे.

बच्चे नहीं हैं हमास

कुछ महीने पहले, दरअसल मई 2023 में मैंने गाजा के एक कवि मोसब अबू तोहा का, अंग्रेज़ी अनुवाद में सिटी लाइट्स द्वारा प्रकाशित, कविता-संग्रह खरीद था: ‘थिंग्ज यू मे माइंड हिडेन इन माई ईयर’ यानी ‘चीज़ें जो तुम मेरे कान में छिपी पाओगे’. इन कविताओं को एक साथ ‘दिल तोड़ने और जगाने वाले’ कहा गया है.

इस पुस्तक में शामिल एक इंटरव्यू में कवि बताते हैं कि 2014 में जब उनके विश्वविद्यालय पर हमला हुआ था, वह छह सप्ताह चला था और उसमें अधिकृत आंकड़ों के अनुसार 2,251 फिलिस्तीनी मारे गए थे, 11,231 लोग घायल या विकलांग हुए थे, जिनमें स्त्रियां और बच्चे थे, 18,000 मकान ध्वस्त किए गए थे और एक लाख लोग बेघर हुए थे. उस समय 262 स्कूलों और चिकित्सा इकाइयों को निशाना बनाया गया था.

ठीक दस साल बाद, इस समय यानी इन पंक्तियों के लिखे जाते समय 30,000 ये अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिसमें हज़ारों बच्चे शामिल हैं, लाखों लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हैं और बीस लाख लोग बेघर हुए हैं. यह दृश्य मानवता पर कलंक है, इज़रायल को जघन्य अमानवीय अपराधी साबित करता है लेकिन सारी दुनिया, लगभग सारी यह सब होते लाचार देख रही है.

ऐसे में कविता स्थिति की मानवीय भयावहता, क्रूरता और हिंसा, हत्या और लाचारी को दर्ज़ कर सकती है, फिलिस्तीनी कवि यही कह रहे हैं. तोहा उनमें से एक हैं. उनकी कुछ कविताएं या उनके अंश देखिए:

मकान हमास नहीं थे
बच्चे हमास नहीं थे.
उनके कपड़े और खिलौने हमास नहीं थे.
पड़ोस हमास नहीं था.
हवा हमास नहीं थी.
हमारे कान हमास नहीं थे.
हमारी आँखें हमास नहीं थीं.
उसने जिसने क़त्ल का हुक्म दिया,
उसने जिसने बटन दबाया सोचा
सिर्फ़ हमास के बारे में…

एक गद्य-कविता में यह इंदराज है:

एक दिन, हम अपने घर में सो रहे थे. नज़दीक के एक खेत में पर एक बम गिरा सुबह छह बजे, एक अलार्म घड़ी की तरह हमें, स्कूल के लिए जल्दी जगाते हुए.

अगस्त 2014 में 51 इज़रायली हमलों के बाद, मेरे कमरे की दीवारों में जब मैं गया था तब के मुक़ाबले ज़्यादा खिड़कियां थीं, खिड़कियां जो अब बंद नहीं होती थीं. ठंड हम पर बहुत सख़्त हुई.

एक कविता है ‘फिलिस्तानी सड़क’:

मेरे शहर की सड़कें बेनाम हैं.
अगर कोई फ़िलिस्तीनी स्नाइपर या ड्रोन से मारा जाए
तो हम सड़क का नाम उन पर रख देते हैं.

बच्चे गिनती बेहतर सीखते हैं
जब वे गिन सकते हैं कि कितने घर या स्कूल
बर्बाद किए गए, कितने पिता और माताएं
घायल हुए या जेल में भर दिए गए.

वयस्क लोग फ़िलिस्तीन में अपने आईडी का इस्तेमाल करते हैं
न भूलने के लिए
कि वे कौन हैं.

एक और कविता में तोहा कहते हैं:

रात को कौन ज़्यादा बड़ा है, रेगिस्तान कि अंधेरा?
रेत पर कौन ज़्यादा भारी है, तुम्हारे पांव या तुम्हारा डर?
तुम वाटरटैंक की दीवारों पर दस्तक क्यों नहीं देते?
क्या नींद तुम्हारे मुंहों पर मोटी रस्सी लपेट रही है?

एक कवितांश है:

मैं समुद्र तट पर सावधानी से चलता हूं, देखने के लिए
अगर आगे किसी बच्चे के नक़्शेक़दम हैं
बच्चे के जिसने एक या दोनों पैर गंवा दिए
या जो अब लहरों की आवाज़ नहीं सुन सकता

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)