नवंबर, 1930 में भगत सिंह ने मुल्तान जेल में बंद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त को लिखा था कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर हर मुसीबत का मुक़ाबला भी कर सकते हैं.
आज की तारीख में यह एक खुला हुआ तथ्य है कि भगत सिंह अपनी शहादत को लेकर न सिर्फ बहुत उत्साहित बल्कि खासी उम्मीद से भी थे. पुलिस की लाठियों से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर, 1928 को अंग्रेज पुलिस अफसर जाॅन सांडर्स की हत्या का अभीष्ट असर न होने से हाथ आई निराशा के बावजूद उन्हें उम्मीद थी कि उनकी शहादत के बाद देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रह जाएगी. इसलिए वे चाहते थे कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए.
इसके बावजूद, जैसा कि उन्होंने सुखदेव को एक पत्र में लिखा था, न वे इतने आत्ममुग्ध थे कि यह सोचते कि ‘यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते तो (देश में) कोई भी क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता.’ इसके विपरीत उनका मानना था कि हमारे (उनके, राजगुरु व सुखदेव के) बलिदान उस श्रृंखला की कड़ी मात्र होंगे, जिसका सौंदर्य कामरेड भगवतीचरण वोहरा के दारुण पर गर्वीले आत्मत्याग और हमारे प्रिय योद्धा आजाद की गरिमापूर्ण विदाई से निखर उठा है.
उन क्रांतिकारियों को लेकर उनके अरमान भी कुछ कम नहीं थे, जो शहीद तो नहीं लेकिन यातनापूर्ण लंबे जेल जीवन को अभिशप्त हुए. उनकी इच्छा थी कि ऐसे क्रांतिकारी अपने जीवन को मिसाल की तरह जिएं.
मुल्तान जेल में बंद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त को नवंबर, 1930 में एक पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मैं खुशी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूंगा कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से बलिदान दे सकते हैं. मुझे फांसी का दंड मिला है, किंतु तुम्हें आजीवन कारावास मिला है…और तुम्हें जीवित रहकर दुनिया को यह दिखाना है कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर हर मुसीबत का मुकाबला भी कर सकते हैं.’
उन्होंने आगे लिखा था, ‘(क्रांतिकारियों के लिए) मृत्यु सांसारिक कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त करने का साधन नहीं बननी चाहिए बल्कि जो क्रांतिकारी फांसी के फंदे से बच गए हैं, उन्हें जीवित रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि…वे जेलों की अंधकारपूर्ण छोटी कोठरियों में घुल-घुलकर निकृष्टतम दर्जे के अत्याचारों को सहन भी कर सकते हैं.’
एक समय जब सुखदेव को ‘अंदेशा’ सताने लगा कि हो न हो, उन सबकी फांसियां काले पानी में बदल दी जाएं, जिसके चौदह वर्ष उन्हें निर्जीव करके रख दें और उन्होंने उससे परेशान होकर भगत सिंह को लिखा कि उन्हें लगता है कि काला पानी भुगतते हुए निर्जीव होने से बेहतर होगा कि वे आत्महत्या कर लें, तो भगत सिंह ने उन्हें आत्महत्या के बारे में उनकी पुरानी राय याद दिलाते हुए लिखा था, ‘आत्महत्या एक घृणित अपराध है… पूर्ण कायरता का कार्य… क्रांतिकारी का तो कहना ही क्या, कोई भी मनुष्य ऐसे कार्य को उचित नहीं ठहरा सकता. आपत्तियों से बचने के लिए आत्महत्या कर लेने से जनता का मार्गदर्शन नहीं होगा वरना यह तो एक प्रतिक्रियावादी कार्य होगा… हां, अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रयत्नों में मृत्यु के लिए तैयार रहना और श्रेष्ठ व उत्कृष्ट आदर्श के लिए जीवन दे देना कतई आत्महत्या नहीं है. संघर्ष में मरना एक आदर्श मृत्यु है.’
अनंतर, उन्होंने उनको समझाया था, ‘यदि आपने अपने बंदी बनाए जाने के समय ही (आत्महत्या संबंधी) इन विचारों के अनुकूल कार्य किया होता (अर्थात आत्महत्या कर ली होती) तो क्रांतिकारी कार्य की बहुत बड़ी सेवा की होती, पर इस समय तो इस पर विचार करना भी हमारे लिए हानिकारक है… मेरी अभिलाषा यह है कि जब यह आंदोलन अपनी चरम सीमा पर पहुंचे तो हमें फांसी दे दी जाए. (लेकिन) मेरी यह (भी) इच्छा है कि यदि कोई सम्मानपूर्ण और उचित समझौता कभी संभव हो जाए, तो हमारे जैसे व्यक्तियों का मामला उसके मार्ग में कोई रुकावट या कठिनाई उत्पन्न करने का कारण न बने.’
आगे उन्होंने एक बहुत निर्णायक बात लिखी थी. यह कि ‘जब देश के भाग्य का निर्णय हो रहा हो तो व्यक्तियों के भाग्य को पूरी तरह भुला देना चाहिए. लेकिन अतीत के समस्त क्रांतिकारी अनुभवों से हम यह नहीं मान सकते कि हमारे शासकों और विशेषकर अंग्रेज जाति की भावनाओं में इस प्रकार का आश्चर्यजनक परिवर्तन उत्पन्न हो सकता है. इस प्रकार का परिवर्तन क्रांति के बिना संभव ही नहीं है. क्रांति तो केवल सतत कार्य करते रहने से, प्रयत्नों से, कष्ट सहन करने से एवं बलिदानों से ही उत्पन्न की जा सकती है, और की जाएगी.’
उन्होंने सुखदेव के इस विचार से भी गंभीर असहमति जताई थी कि लंबा जेल जीवन उन्हें पस्त या निर्जीव कर देगा और तर्क दिया था कि ‘जेलें और केवल जेलें ही अपराध और पाप जैसे सामाजिक विषयों का स्वाध्याय करने का सबसे उपयुक्त स्थान हैं. स्वाध्याय का सर्वश्रेष्ठ भाग है स्वयं कष्टों का सहना.’
उनके अनुसार ‘रूस में जारशाही के तख्तापलट के बाद जेलों के प्रबंध में क्रांतिकारी परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण जारशाही के दौरान राजनीतिक बंदियों का यातनाएं सहन करना ही था.’
उन्होंने सुखदेव से पूछा था कि यदि आप वास्तव में यह अनुभव करते हैं कि जेल का जीवन अपमानपूर्ण है तो उसके विरुद्ध आंदोलन करके उसे सुधारने का प्रयास क्यों नहीं करते? अगर आप महसूस करते हैं कि चौदह वर्ष लंबी कैद का वातावरण आपके समस्त विचारों को रौंदकर कुचल देगा तो मैं आपसे पूछ सकता हूं कि क्या जेल से बाहर का वातावरण हमारे विचारों के अनुकूल था? फिर भी असफलताओं के कारण क्या हम उसे छोड़ सकते थे?
उन्होंने उनसे यह भी पूछा था कि ‘क्या आपका आशय यह है कि यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते तो कोई भी क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता?’ फिर उत्तर दिया था, ‘यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं….हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं…. साम्यवाद का जन्मदाता कार्ल मार्क्स (तक) वास्तव में इस विचार का जन्मदाता नहीं था. असल में यूरोप की क्रांति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे. उनमें मार्क्स भी एक था…. मैंने और आपने भी इस देश में समाजवाद और साम्यवाद के विचारों को जन्म नहीं दिया, वरना यह तो हमारे समय और परिस्थिति के प्रभाव का परिणाम है.’
भगत सिंह के क्रांतिकर्म की दार्शनिकता यहीं तक सीमित नहीं थी. वे उन क्रांतिकारियों के पथप्रदर्शक भी थे, जो स्वतंत्रता के लिए कुछ भी कर गुजरने की भावना से क्रांतिकर्म के आकर्षण में बंधे उसकी ओर चले तो आते थे, मगर उसके दार्शनिक या सैद्धांतिक पक्ष से अपरिचय उनके रास्ते की बाधा बना रहता था.
23 दिसंबर, 1929 को वायसराय की ट्रेन उड़ाने की विफल क्रांतिकारी कार्रवाई के बाद महात्मा गांधी ने ‘बम की पूजा’ शीर्षक लेख में क्रांतिकारियों की तीखी आलोचना की, तो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अध्यक्ष करतार सिंह की ओर से 26 जनवरी, 1930 को ‘बम का दर्शन’ नामक जो ‘घोषणापत्र’ देश भर में बांटा गया, वह भी जितना क्रांतिकर्म के आलोचकों को आईना दिखाने के लिए था, उससे कहीं ज्यादा क्रांतिकर्म को लेकर जज़्बाती युवाओं को उसके दार्शनिक-सैद्धांतिक पक्ष से वाकिफ कराने के लिए था. क्रांतिकारियों के बारे में देश में फैलाए जा रहे भ्रमों को दूरकर उनके उद्देश्यों की सही जानकारी देने के लिए तो था ही.
‘बम का दर्शन’ भगवतीचरण वोहरा ने लिखा, जिसे भगत सिंह ने जेल में अंतिम रूप दिया था. दोनों ने मिलकर कोशिश की थी कि हिंसा और अहिंसा का जो द्वंद्व बार-बार स्वतंत्रता संग्राम के आडे़ आता रहता है, वह और उसे लेकर कांग्रेस व क्रांतिकारियों के बीच बनी आ रही दूरी पूरी तरह खत्म हो. उसमें उन्होंने ‘स्वतंत्रता के पक्ष में जनजागृति के महत्वपूर्ण कार्य के लिए’ कांग्रेस की सराहना से भी गुरेज नहीं किया था.
उन्होंने लिखा था: देश में ऐसे लोग भी होंगे, जिन्हें कांग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं, उससे वे कुछ भी आशा नहीं करते. यदि गांधी जी क्रांतिकारियों को इस श्रेणी में गिनते हैं तो वे उनके साथ अन्याय करते हैं. क्रांतिकारी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस ने जनजागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया है. उसने आम जनता में स्वतंत्रता की भावना जागृत की है…. क्रांतिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेस आंदोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जाएगी और वह क्रांतिकारियों के कंधे से कंधा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्रता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी.
उन्होंने कांग्रेस के अहिंसा व सत्याग्रह जैसे मूल्यों के लिए लिखा था: हिंसा का अर्थ है अन्याय के लिए बल प्रयोग. अन्याय क्रांतिकारियों का उद्देश्य नहीं है, इसलिए उनके संदर्भ में हिंसा शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता. दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है, वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धांत….इसके तहत अपने आपको कष्ट देकर आशा की जाती है कि अंततः विरोधी का हृदय परिवर्तन संभव हो सकेगा…
सत्याग्रह को सत्य के लिए आग्रह बताते हुए उन्होंने पूछा था कि उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति यानी अहिंसा के प्रयोग का ही आग्रह क्यों? इसके साथ-साथ शारीरिक बल भी क्यों न किया जाए? क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक व नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है पर नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं.
उनके अनुसार तत्कालीन परिस्थितियों में सवाल यह नहीं था कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि यह था कि आप अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल्कि प्रयोग करना चाहते हैं या केवल आत्मिक शक्ति का.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)